नील स्वर्ग

नील स्वर्ग
प्रकृति हर रंग में खूबसूरत होती है , हरी, पीली , लाल या फिर नीली

Wednesday, July 15, 2015

असली सेक्युलर ! - एक लघु कथा



बड़ा विचित्र किस्म का भिखारी था वो। सुबह सुबह उठ कर गले में एक रुद्राक्ष की माला डाल  कर शिव मंदिर के सामने बैठ जाता था। आते जाते लोग उसकी चटाई पर कुछ छुट्टे कुछ रुपैये डाल देते  थे। दोपहर में  गुरूद्वारे के पास  बैठ जाता था ,  सिखों वाली पगड़ी पहन कर।  लोग काफी  पैसे दे जाते थे।  कई बार  वहीँ लंगर में खाना खा लेता था।  शाम को इबादत की  सफ़ेद जाली की टोपी पहन किसी मस्जिद बाहर बैठ जाता था , वहां  भी अच्छी कमाई हो जाती थी। रमजान के दिनों में बिना रोजा रखे शाम के खाने का जुगाड़ हो जाता था। रविवार के दिन  चर्च  के बाहर ईसाई क्रॉस की माला काम आती थी। सबसे बड़ी मौज तो ये थी की उसके दान दाता उसके सभी ठिकानों में से सिर्फ  एक पर जाते थे , इसलिए किसी को उसके मजहब पर कोई शक नहीं होता था। 

एक दिन उसके एक प्रोफ़ेसर  पडोसी ने उससे पुछा - तुम ये अलग अलग भेष बना कर लोगों को और उनके भगवान को ठगते हो ; तुम्हे ऐसा नहीं लगता की भगवान किसी दिन तुमसे बहुत नाराज हो जाएंगे ?

उसने हँसते हुए उत्तर दिया - मैं कहाँ ठगता हूँ ? ठगते तो वो लोग हैं जिन्होंने  भगवान की   अपनी  मनचाही कल्पना से सूरत बना दी ; अपने आपको भक्त दिखाने  के लिए अजीब अजीब वस्तुएं बना ली - जैसे की रुद्राक्ष , इबादत की टोपी और क्रॉस की माला। यहाँ तक की सभी जगह व्यापक निराकार भगवान के रहने के भी घर बना दिए - जैसे की मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारे और चर्च।  क्या भगवान  यही सब देखते हैं ? ये सारा दिखावा अपने आप के लिए ही तो होता है। मैं भी वही करता हूँ जो उनको अच्छा लगता है। मेरा गुजारा हो जाता है ; उनकी दान दक्षिणा पूरी हो जाती है। फर्क इतना है की वो दूसरे  धर्मों के लिए बुरा भला कहते हैं , मैं सबका सन्मान करता हूँ, सबको आशीर्वाद और दुवाएँ देता हूँ । अब बताइये की भगवान किससे ज्यादा खुश होंगे , उनसे ये मुझसे !

प्रोफ़ेसर साहब निरुत्तर थे। 




Sunday, June 28, 2015

ललित मोदी का बवंडर



कमाल का देश है हमारा ! नरेंद्र मोदी के निरंतर चल रहे एक के बाद एक देश के उत्थान के कार्यक्रम न मिडिया को दिखते  हैं न विपक्ष को ; लेकिन एक बेमतलब के बेकार से गुजरे हुए इतिहास ललित मोदी की एक एक ट्वीट हेडलाइन बन रहा है।

वो कांग्रेस जो भ्रष्टाचार के कारनामों के नीचे दब कर मर चुकी है ; आज बेमतलब के आरोप लगाते  नहीं थकती।  देश के प्रधानमंत्री के लिए अभद्र शब्दों का प्रयोग करना उन्होंने दिनचर्या बना लिया है।  खीज उठती है जब प्रगति के हर काम में वो रोड़ा अटका रहें हैं।  देश के जीवन के मूल्यवान साठ साल उनके परिवारवाद की भेंट चढ़ गए।  हम दुनिया की रफ़्तार के सामने निरंतर पिछड़ते चले गए। अब जब एक नया प्रशासन देश को तेजी से आगे बढ़ाने के लिए प्रयत्नशील है , तब उनके पास एक ही काम बचा है - वर्तमान सरकार को नीचा  दिखाने  के लिए ऊल -जुलूल बाते करना।

ललित मोदी प्रकरण को ही लेवें।  पूरी दुनिया में क्रिकेट खेलने वाले देश जानते है , कि  कैसे ललित मोदी ने क्रिकेट के खेल को एक पैसा छापने वाली मशीन 'आई पी एल' के नाम से बनायीं। ललित मोदी इसके कमिश्नर के रूप में देश के हीरो बन गए। इनके साथ सहयोग कर रहा  था , कांग्रेस सरकार का पूरा तंत्र। बहुत से मंत्रियों ने इसका आर्थिक लाभ उठाया। शशि थरूर अगर ज्यादा पैसे बनाने के चक्कर में अपनी एक अलग टीम नहीं बनाते , तो शायद कहानियां नहीं खुलती।

शायद ललित मोदी ने किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति को नाराज कर दिया , जिसके कारण  वो अपनी अति शक्तिशाली अवस्था से हटा दिए गए।  उसके बाद शुरू हो गया उनके खिलाफ आरोपों का सिलसिला।  धीरे धीरे सब पल्ला झाड़ने लगे। ललित देश छोड़ कर लन्दन जा बैठे। वो सारे नेता जिनके ललित से सम्बन्ध थे , देश में उसका विरोध करते लेकिन लन्दन में उनसे मिलकर सहानुभूति करते थे।

अब लीजिये सुषमा स्वराज और वसुन्धरा राजे का प्रकरण।  सुषमा ने कहा की ललित को वो जानती थी और वो उनकी पत्नी की बीमारी के समय ललित की इतनी मदद कर रही थी की वो पुर्तगाल जाकर अपने पत्नी से मिल सके। वसुंधरा राजस्थान से हैं और उनकी पारिवारिक मित्रता मोदी परिवार से रही है ; उस मित्रता के निमित उन्होंने उस समय ललित की मदद करने के लिए सिफारिश की जब वो राजस्थान  की मुख्यमंत्री नहीं थी। दोनों देवियों ने सच्चाई देश के सामने रख दी। लेकिन कांग्रेस को इनका इस्तीफा चाहिए क्योंकि उन्होंने बकौल कांग्रेस एक अपराधी की मदद की है। पहली बात तो ये की क्या ये मदद अपराध की श्रेणी में आती है ? और अगर आती भी है तो क्या इसका दंड पदत्याग है।

अब जरा कांग्रेस अपनी मदद का इतिहास देखे -
१. मायावती पर बहुत आरोप थे आर्थिक और राजनैतिक भ्रष्टाचार के , क्या कांग्रेस ने उनके साथ सौदेबाजी कर के उनकी मदद नहीं की।
२. मुलायम सिंह के खिलाफ बहुत कुछ था , क्या वही सौदेबाजी उनके साथ नहीं हुई।
३. चारा घोटाले के सबसे बड़े अपराधी लालू यादव को तो कांग्रेस ने गोद  ही ले रखा है।
५ . कांग्रेस के तो बहुतेरे मंत्री ही दागदार हैं , उनका क्या ?

ये सारे उदहारण तो सौदे बाजी के हैं लेकिन क्या सोनिया गांधी ने अपने पति की हत्यारिन के लिए सिफारिश कर उनकी फांसी को आजीवन कारावास में नहीं बदलवाया ? उनका तर्क  भी यही था की मानवता के नाते उन्होंने उसकी मदद की। क्या मानवता के लिए इतने जघन्य अपराध के अपराधी की मदद तो उनकी महानता  है , लेकिन उसी मानवता के लिए अगर सुषमा या वसुंधरा ने किसी सामान्य आर्थिक अभियोगी की मदद बिना किसी व्यक्तिगत लाभ इ लिए कर दी तो अपराध हो गया ?

गलती और अपराध  में एक महीन दूरी  है। सुषमा और वसुंधरा के कृत्य उनके  राजनैतिक कद को देखते हुए गलती तो कहला सकती है लेकिन कोई अपराध नहीं। उनकी ये गलती उतनी ही बड़ी गलती है जितनी दिग्विजय सिंह का अंतरराष्ट्रीय अपराधी ओसामा को ओसामाजी कहना। ऐसी गलतियों की सजा उनकी जग हंसाई तो हो सकती है लेकिन इसके अतिरिक्त और कोई दंड नहीं।

कुछ टीवी चैनेल तो आजकल चिता पर भी रोटियां सेकने का प्रयास करते हैं। उनका उद्देश्य है उनका व्यक्तिगत लाभ यानी टी आर पी ! उन्हें उनका लाभ तो जरूर मिल रहा है लेकिन वो लोग देश का बहुत बड़ा नुक्सान कर रहें हैं। पत्रकारिता के चोले में एक डिक्टेटर जैसा रूप अपना कर बैठे हैं ऐसे लोग। समय ही ऐसे लोगों का हिसाब किताब करेगा।












Saturday, March 7, 2015

भारत की बेटी - विवाद क्यों ?


इंग्लैंड की बीबीसी टेलीविजन चैनल कम्पनी ने एक फिल्म बनाई है - इंडियाज डॉटर यानि भारत की बेटी। फिल्म एक डाक्यूमेंट्री है - निर्भया बलात्कार काण्ड के विषय में।  इस  फिल्म को लेकर पूरे देश में बहुत बड़ा विवाद खड़ा हुआ है। इस विवाद का प्रमुख कारण है , फिल्म निर्देशक द्वारा तिहाड़ जेल में लिया गया एक इंटरव्यू - छह में से एक बलात्कारी का। बलात्कारी अपने अपराध का कारण निर्भया जैसी लड़कियों को मानता है , जो की रात नौ बजे के बाद अपने बॉय फ्रेंड के साथ सड़कों पर निकलती है।

पूरे देश का बुद्धिजीवी वर्ग दो भागों में बंटा  हुआ है - एक का मानना है कि ऐसी फिल्मों को दिखाए जाने पर अंतर्राष्ट्रीय बैन लगना चाहिए , दूसरे  का कहना है की वाणी की स्वतंत्रता पर कभी भी प्रतिबन्ध नहीं लगना चाहिए। प्रतिबन्ध के पक्ष में जो कारण है वो कुछ ऐसे है -

१. एक बलात्कारी को अपनी बात एक पब्लिक प्लेटफॉर्म से कहने की छूट नहीं होनी चाहिए। समाज को एक गलत मनोवृति मिलती है।

२. बलात्कार की शिकार लड़की का नाम फिल्म ने उजागर कर दिया , जो सामाजिक उसूलों के विरुद्ध है।

३. ये फिल्म अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की एक गलत तस्वीर प्रस्तुत करती है।

मैंने आज होली के दिन ये फिल्म यू ट्यूब  पर देखी। मेरी पत्नी के कहने पर देखी। अब  फिल्म पर मेरी प्रतिक्रिया कुछ इस प्रकार है -

१. मीडिया पर इस तरह  बहस से फिल्म का प्रचार प्रसार ही हुआ है। जैसे मैंने मेरी पत्नी के कहने से ये फिल्म यू ट्यूब पर देखी , मेरा ख़याल है की लाखों लोगों ने देखी होगी ; जो शायद कभी यू ट्यूब पर फिल्म  देखते ही नहीं हैं।

२. पूरी की पूरी फिल्म विभिन्न लोगों के साक्षात्कार पर आधारित है , जिसमे शामिल हैं - मुख्य रूप से निर्भया के माता पिता और एक युवा शिक्षक।  इसके अलावा - दिल्ली पुलिस के अधिकारी , हस्पताल के डॉक्टर , बचाव पक्ष के दो वकील , विभिन्न सरकारी अधिकारी , कई अपराधियों के माता पिता और पत्नी ,दिल्ली की मुख्य मंत्री शीला दीक्षित तथा एक बलात्कारी ! किसी विषय पर इससे अच्छी डॉक्यूमेंट्री नहीं सकती।

रही बात बलात्कारी के इंटरव्यू की ! मैं समझता हूँ की ऐसा इंटरव्यू जहाँ एक अपराधी की मानसिकता को दिखाता है , वहीँ एक आम आदमी को उसकी सोच से दूर करता है। मेरे विचार में अपराधी के मनोविज्ञान से ज्यादा खतरनाक सोच उन्हें बचाने वाले वकीलों की है।  ये वकील उन अपराधियों की बात का समर्थन करते हुए कहते हैं की भारत  संस्कृति बहुत महान है , क्यूंकि इसमें नारी के लिए कोई स्थान नहीं है।  घिन आ रही थी जब मैं बचाव  पक्ष के वकील की दलील को सुन रहा था। क्या ऐसे वकील बिना रोकटोक इस देश में प्रैक्टिस कर सकते हैं।

२. फिल्म में लड़की के माता पिता कहते हैं की हमें कोई शर्म महसूस होती है  कहते हुए की हमारी बेटी का नाम था ज्योति सिंह। उन्होंने कहा  उसके बलिदान ने कम से कम नारी  सुरक्षा जैसे विषय को  भारत ही नहीं अंतरर्रष्ट्रीय स्तर पर एक बड़ा मुद्दा बना दिया।  इसके बाद नाम उजागर करने के विरोध में  तर्क  नहीं बचता।

३. ये  सच है की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की बदनामी होगी। लेकिन सच को दबा कर ये बदनामी कब तक रुकेगी। फिल्म  के अंतिम भाग मे भारत होने वाली कन्या भ्रूण हत्या के आंकड़े बताये गए है। इस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि आज भी हमारे देश में एक बहुत बड़ा वर्ग है जो कन्या अपने घर में नहीं चाहता।

बलात्कार की घटनाएँ इतनी अधिक बढ़ चुकी है की इन ख़बरों से बचा नहीं जा सकता।  शुतुरमुर्ग की तरह अपनी  गर्दन रेत में छुपा लेने से या कबूतर की तरह अपनी आँख बंद कर लेने से खतरा टाला  नहीं जाता।

मेरे व्यक्तिगत विचार में यह फिल्म किसी भी तरह सामाजिक मर्यादा का उल्लंघन नहीं करती।  ऐसी फिल्म को सामान्य जनता को दिखाने से समाज के अंदर ऐसे अपराध के विरुद्ध रोष ही बढ़ेगा , जो ऐसी घटनाओं को रोकने में सहायक होगा।

Thursday, March 5, 2015

राम का चक्कर - एक संस्मरण



होली के अवसर पर जीवन के  सबसे मूर्खता पूर्ण अनुभव की तलाश में था।  तब ये घटना याद आ गयी।

बात है १९८२ की। मैं , मेरी पत्नी रेणु , बहन सविता और बहनोई अशोकजी  एक साथ नैनीताल गए थे। तीन दिन वहां रहने के बाद हमने सोचा क्यों न एक दिन के लिए जिम कॉर्बेट पार्क चलें। टूरिज्म विभाग के दफ्तर में पैसे भर कर  वहां के सरकारी बंगले में हमने बुकिंग करवा ली। सुबह एक गाडी ली और चल पड़े।  वहां पहुँचने का रास्ता अशोकजी ने होटल के मैनेजर से समझ लिया , इस लिए ड्राइवर को निर्देश देने का काम उनका था।

बताने वाले ने उन्हें रास्ता यूँ बताया था - रामनगर जाने वाली सड़क पकड़ो,  जाते जाओ।  डेढ़ -दो घंटे में रामनगर आएगा , वहां से एक रास्ता जिम कॉर्बेट पार्क के लिए मुड़ेगा , उस रास्ते को पकड़ कर  चले जाओ।  डेढ़ दो घंटे में पार्क पहुँच जाओगे।  निर्देश इतने आसान थे की हमने कोई नक्सा वैगरह लेने की कोशिश ही नहीं की।

शुरू में हम लोग अपनी ही मस्ती में बढ़ते रहे। बाद में जब सड़क के किनारे लगे मील के पथ्थर देखने शुरू किये तो हमें दिखने लगा रामपुर जो की ७००-८०० किलोमीटर था। अशोकजी ने कहा की शायद उनको समझने में कोई गलती हुई होगी। जाना तो रामपुर होकर ही है।  इस  प्रकार अनजाने में रामनगर का स्थान रामपुर ने ले लिया। जैसे जैसे दिन बीतता गया हमें अपने निर्णय पर गुस्सा आने लगा।  अच्छा भला नैनीताल में मौज कर रहे थे ; मतलब यहाँ गर्मी में धक्के खा रहे थे। अशोकजी बेचारे सबको समझा बुझा कर रामपुर तक ले जा रहे थे।

खैर साहब , किसी तरह १० घंटो की यात्रा के बाद हम रामपुर पहुंचे। वहां पहुँच कर एक ढाबे में चाय पी।  फिर किसी समझदार आदमी से पूछा - ' भाई साहब , यहाँ से जिम कॉर्बेट जाने का कौन सा रास्ता है , और कितना समय लगेगा ?

भले आदमी ने हमारी तरफ देखा और पूछा - दिल्ली से आएं हैं क्या ?

अशोकजी ने कहा - फिलहाल तो नैनीताल से आ रहें हैं।

 अब उस आदमी के चेहरे पर एक मुस्कान आ गयी।  बोला - तो साहब यहाँ रामपुर तक क्यूँ आये हैं।  आप तो रास्ता बहुत पीछे छोड़ आये हैं , जो रामनगर से मुड़ता है।

अब जीजाजी के चेहरे का रंग देखने लायक था। उन्हें जैसे काटो तो खून नहीं। हम सभी उन पर बरस पड़े।  सब ने कह दिया - अब कहीं नहीं जाएंगे , यहाँ से सीधा दिल्ली चलो।

अशोकजी  सबको अनुरोध किया - देखो पैसे भरे हुये हैं।  हमें वापस जाना चाहिए ;  जीवन में फिर यहाँ आना हो या न हो। हार कर सबने उनकी बात मान ली , और चल पड़े वापस एक १० घंटे की यात्रा पर - जिम कॉर्बेट पार्क जाने के लिए। 

Tuesday, March 3, 2015

गुटखा तम्बाकू - एक लघु कथा


मैं इंटरव्यू ले रहा था , एक स्टेनो सेक्रेटरी के पद के लिए। अगला प्रार्थी थी एक दक्षिण भारतीय महिला।  सामान्य प्रश्नोत्तर के दौरान मैंने पूछा - आप के पति क्या करते हैं ?

उसने जरा बुझे से स्वर में कहा - उसका डेथ हो गया। कैंसर था।

न चाहते हुए भी मैं पूछ बैठा - बहुत यंग रहे होंगे ; ऐसा कैसे ?

उसने कहा - उसको गुटखा तम्बाकू बहुत खाता था।

मन में हंसी आई उसकी दक्षिण भारतीय हिंदी सुन कर ; लेकिन अगले ही क्षण मन  में आया - भले ही उसका व्याकरण गलत था , लेकिन अनजाने ही उसकी बात सही थी।  हम समझते हैं की गुटखा तम्बाकू हम खाते हैं , लेकिन वास्तविकता ये है की गुटखा तम्बाकू हमें खाता है।


Tuesday, February 17, 2015

'आप' - फ़िल्मी गाने -फ़िल्मी ताने

आम आदमी पार्टी  संक्षिप्त नाम यानि 'आप' ,  हिंदी भाषा  का एक शब्द होने के कारण बहुत सारे फ़िल्मी गानों में प्रयुक्त हुआ है।  हमने चुने हैं कुछ ऐसे ही गाने जो दिल्ली के चुनाव के बाद बहुत दिलचस्प ढंग से किसी न  किसी व्यक्तित्व से मेल खाते हैं।  उद्देश्य विशुध्द हास्य के अलावा कुछ नहीं है।  आनंद लीजिये -

अन्ना हजारे 
आप से हमको बिछड़े हुए , एक जमाना बीत गया

सतीश उपाध्याय (किरण बेदी से )
आप यहाँ आये किसलिए , आप ने बुलाया इसलिए
आये हैं तो काम भी बताइये , पहले जरा आप मुस्कुराइए

किरण बेदी 
दर्दे दिल दर्दे जिगर दिल  जगाया आप ने

योगेन्द्र यादव (अरुण जेटली से )
आप ने सौ इल्जाम लगाये , वो मेरे नाम लगाये , कहिये कुछ और
चोरों को सारे नजर आते हैं चोर

शीला दिक्षित 
आप को पहले भी कहीं देखा है

प्रशांत भूषण 
क्या क्या न सहे हमने सितम आप की खातिर

दिल्ली 
आप मुझे  अच्छे लगने लगे , सपने सच्चे लगने लगे

सोनिया गांधी
चैन से हमको कभी आप ने जीने ना दिया

राहुल गांधी
जब हमने दास्ताँ अपनी सुनाई , आप क्यों रोये

अजय  माकन
करवटें बदलते रहे सारी रात हम , आप की कसम

नज़ीब जंग
आप की नज़रों ने समझा प्यार के काबिल मुझे

ममता बनर्जी
आप जैसा कोई मेरी जिंदगी में आये , तो बात बन जाए

साजिया इल्मी
हम आपके आपके  हैं कौन

उद्धव ठाकरे
आप के हसीन रुख पे आज नया नूर है
मेरा दिल मचल गया तो मेरा क्या कुसूर  है

केजरीवाल (मोदी से )
आप की राय मेरे बारे में क्या है कहिये

मोदी (केजरीवाल से )
ये मुझे देख कर आपका मुस्कुराना
मुहब्बत नहीं है तो फिर और क्या है

अरविन्द केजरीवाल
आइये आप को मैं अपने बंगले की सैर कराऊँ


क्यों ? आया न मजा ? 

Monday, February 16, 2015

आखिर दिल्ली में हुआ क्या ?



दिल्ली विधान सभा के २०१५ के परिणामों ने पूरे देश को चौंका दिया। आम आदमी के पक्ष में जो फैसला आया उससे तो आम आदमी पार्टी भी स्तब्ध रह गयी। बीजेपी ने ऐसे परिणामों की स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी। कांग्रेस पार्टी तो लगभग अपना वजूद ही खो बैठी है। 

आइये २०१३ से २०१५ तक के परिवर्तन के  परिणामों के आंकड़ों पर नजर डालें -

परिणाम सीटों के दृष्टिकोण से -

                                  २०१३                २०१५                     अंतर                      प्रतिशत 

बीजेपी                         ३१                      ०३                       -२८                        -९०.३२ %

आम आदमी                २८                       ६७                        ३९                        + १३९.२८ %

कांग्रेस                          ०८                      ००                       -०८                       -१०० %

अन्य                           ०३                       ००                      -०३                       - १०० 

इन आंकड़ों को देख कर ऐसा लगता है जैसे आम आदमी ने तो अपनी स्थिति दुगने से ज्यादा मजबूत कर ली है और अन्य सभी दल करीब करीब  साफ़ हो गए हैं। लेकिन वास्तविकता ये नहीं है। 

सीटें परिणाम होती है - बहुमत का। अगर दो दलों के बीच में सिर्फ एक वोट का भी अंतर हो तो उसमे से एक उस सीट का १०० % विजेता होता है और दूसरा उस सीट पर १०० % पराजित !

आइये देखें जनता ने कितना किसे समर्थन दिया और कितना किसे नकार दिया।  ये तुलना मतों की गिनती के आधार पर है। 

परिणाम प्राप्त मतों  के दृष्टिकोण से -

                                  २०१३                       २०१५                      अंतर                            प्रतिशत               

बीजेपी                         ३३.०७ %               ३२.१०%               -०.९७ %                         -०२.९३%

आम आदमी                ३०.०० %                ५४.०० %              +२४ %                           +८०.०० %                   
कांग्रेस                         २४.५५ %                ०९.८०%              - १४. ७५ %                     - ६०.०८ %

अन्य                           १२.३८ %                ०४.१० %              - ०८.२८ %                      -६६.८८ %

इन नतीजों से जो पता चलता है वो इस प्रकार है -

१. बीजेपी ने अपना मुख्य आधार बचा  कर रखा लेकिन उसमे बढ़ोतरी नहीं कर पायी। 
२. कांग्रेस ने अपना वोट बैंक आम आदमी के हाथों खो दिया। 
३. अन्य दल जिसमे मुख्य रूप से आते हैं - बीएसपी , जेदीयु और स्वतंत्र। उनके वोटों का भी वही हुआ जो        कांग्रेस के वोट बैंक का हुआ। 
४. दिल्ली में मुस्लिम जनसँख्या २५ से २७ प्रतिशत है ; जो कभी भी बीजेपी को वोट नहीं देगी । 

जब पूरी दिल्ली दो खेमों में बँट  गयी हो तो परिणाम तो ऐसे ही आने थे।  बिजली मुफ्त ,पानी मुफ्त , अवैध निर्माण बनेंगे वैध - ऐसे नारों से सारी दलित जनता , सारे अवैध रूप से बसे  बंगला देशी  - पूरी की पूरी जमात आम आदमी के पक्ष में चली गयी।  

ये चुनाव था - सुधार और उधार के बीच ; प्रगति और दुर्गति के बीच ; सौर बिजली और चोर बिजली के बीच तथा आत्म सन्मान और मुफ्तखोरी के बीच। दुर्भाग्य से सुधार , प्रगति , सौर बिजली और आत्म सन्मान को मुंह की खानी पड़ी। 

दिल्ली को भगवान बचाये।  सौभाग्य से पूरा भारत इस तरह से नहीं सोचता है। 

Sunday, January 18, 2015

किरण बेदी क्यों जीतेगी !



किरण बेदी को दिल्ली के चुनाव में  ला  कर बीजेपी ने एक बहुत बड़ा दांव खेल दिया है।  आम आदमी  पार्टी के लिए दिल्ली में ये शायद सबसे बड़ी चनुौती होगी। दिल्ली में बीजेपी पर कई चुनावी आरोप थे।  सबसे बड़ा आरोप था की दिल्ली में बीजेपी के पास कोई मुख्यमंत्री पद के लायक नाम और चेहरा नहीं है। इस   शून्य का लाभ ले रहे थे अरविन्द केजरीवाल।  जितने भी मुख्यमंत्री पद के लिए सर्वे हो रहे थे , उनमे अरविन्द केजरीवाल का नाम सबसे लोकप्रिय  रहा था। वास्तविकता ये थी की सामने  डॉक्टर हर्षवर्धन के कद का कोई नाम ही नहीं आ रहा था। अब ये कहानी बदल जायेगी।  डॉक्टर किरण बेदी के नाम के साथ  दिल्ली का एक स्वर्णिम इतिहास  जुड़ा है।   पूरा देश जानता है की किरण बेदी देश की पहली महिला आई पी एस अफसर हैं। दिल्लीवासी उस दबंग महिला पुलिस अफसर को भूले नहीं है , जिसने तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की कार को गलत पार्किंग के कारण  क्रेन  से खींच लिया था। 
अरविन्द केजरीवाल देश के प्रकाश में आये अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी मंच के कारण।  किरण बेदी अपने आप में एक हस्ती रही हैं।  उनका टेलीविजन पर "  आप की कचहरी " नाम के कार्यक्रम ने उनके सामाजिक न्यायाधीश के स्वरुप को पूरे देश के मस्तिष्क में स्थापित  कर दिया। उनके जुड़ने से लाभ अन्ना के आंदोलन को ही हुआ था। अरविन्द ने आंदोलन की लोकप्रियता को भुना कर ' आम आदमी पार्टी '  की स्थापना की।  अन्ना और किरण बेदी ने इस जन आन्दोलन  को राजनीति में परिवर्तित करने का विरोध किया। इस   प्रकार दिल्ली के चुनाव में भ्रष्टाचार विरोध का एकमात्र मुखौटा पहने हुए अरविन्द केजरीवाल को एक आजीवन समर्पित ईमानदार नेता का सामना करना पड़ेगा। 
जहाँ अरविन्द केजरीवाल इनकम टैक्स विभाग में काम करते हुए सिर्फ विवादों से घिरे रहे , वहीँ किरण बेदी ने अपने जीवन में मैग्सेसे  नाम का अंतर राष्ट्रीय स्तर  का अवार्ड जीता। जेल में रहने वाले कैदियों  के जीवन  में अभूतपूर्व परिवर्तन लाने का अभियान उन्होंने शुरू किया।  नवज्योत के नाम से   उनके शुरू किये हुए एन जी ओ ने समाज में ड्रग सेवन के  खिलाफ बहुत बड़ा मोर्चा खोला। 
अगर आगामी चुनाव में केजरीवाल का सामना किरण बेदी से होता है , तो निश्चित रूप से किरण बेदी ही चुनाव जीतेंगी।  दिल्ली के लोग अभी भी केजरीवाल के ४९ दिनों की सरकार को बिना कारण  गिराने के अपराध  को माफ़ नहीं कर पाये हैं। 

Monday, January 5, 2015

टूटे पुतले - एक कहानी


मुन्नी अपनी नयी गुड़िया  बहुत खुश थी।  वो अपनी गुड़िया को नए नए कपडे  पहनाती , उसके बाल  बनाती और उसे अपने पास सुलाती। इतना ही नहीं उसने अपनी सहेली के गुड्डे के साथ उसका ब्याह ही रचा डाला। अपने सुख दुःख की बाते गुड़िया से करती। कभी गुस्सा आता तो वो गुड़िया को  डांट  भी देती ; हाँ , बाद में उसे सॉरी बोल देती।

एक दिन ग़जब हो गया।  छोटे भाई बबलू ने नाराज़ होकर उसकी गुड़िया तोड़ दी। मुन्नी के दुःख और क्रोध  ठिकाना नहीं रहा।  वो बबलू पर चिल्लाई।   इतने से उसका मन शांत नहीं हुआ तो एक  चांटा बबलू  को रसीद कर दिया। बबलू रोते  रोते मां के पास गया। माँ ने मुन्नी को धमकाया और उसके कान खींचे।  मुन्नी ने कहा बबलू ने उसकी प्यारी गुड़िया तोड़ दी ,  उसे कुछ कहने की जगह उसे क्यों डांटा जा रहा है। माँ ने कहा गुड़िया तोड़ दी , उसके लिए उसे डांट मिलनी ठीक थी , लेकिन उसे इतनी  छोटी  गलती पर चांटा नहीं मारना चाहिए।  गुड़िया का क्या है , बाजार  से  खरीद कर लाये थे , दूसरी आ जायेगी ! बात रफा दफा  हो गयी।

५ -७   साल बाद की एक घटना !  दादी अपने पूजा घर में बैठ कर भगवान जी की पूजा कर  रही थी। दादीजी दिन में कम से कम ८-१० घंटे पूजा घर में बिताती।   दिनचर्या शुरू होती भगवान जी को सुबह जगाने से लेकर।  फिर वो भगवानजी को स्नान  करवाती , धुले हुए कपडे पहनाती , नाश्ते का भोग लगाती , झूला झुलाती।  दोपहर का भोजन खिला कर भगवान जी को सुला   देती।

 उस दिन यही भगवान जी के सोने का समय था। बबलू बाहर से क्रिकेट खेल कर लौटा।  उसके हाथ में क्रिकेट का बल्ला और भारी वाली गेंद थी। खेल की मस्ती में उसने गेंद को बल्ले से  मार दिया।  फिर कुछ ऐसा हुआ जिससे घर में एक तूफ़ान खड़ा हो गया।  बबलू की गेंद सीधी पूजा घर में गयी और भगवान जी की मूर्ति से टकराई।  गेंद की चोट से मूर्ति का सर टूटकर अलग हो गया।  दादीजी बिलकुल पगला गयी। बुरी  तरह चिल्लाने लगी - ' आज मेरी जीवन भर की तपस्या नष्ट हो गयी।  मेरे ही घर में मेरे भगवान जी को चमड़े की गेंद से खंडित कर दिया।  मैं कहाँ जाऊं।  लड़के ने मेरे लिए नर्क के द्वार खोल दिए। '

माँ ने ये सब देखा तो अपना आपा खो दिया।  लगी बुरी तरह बबलू को पीटने। बबलू डर के मारे सहमा हुआ  तो था ही , माँ के इस आक्रमण से रोने लगा।  उधर से पापा आ गए , उन्होंने जब सारा दृश्य देखा तो उनका भी पारा चढ़ गया।  उन्होंने भी बबलू को २ तमाचे लगा दिए।

ये सारा दृश्य मुन्नी देख रही थी।  उससे नहीं रहा गया। उसने बीच में पड़  कर बबलू को बचाया। उसे अपने पीछे छुपा कर जोर से बोली - ' क्यों पीट रहे हैं आप इसको ? क्या बिगाड़ा है इसने ?'

दादी चिल्लाई - ' तुम्हे  दिख नहीं रहा ,  इसने भगवान जी को तोड़ दिया ! फिर भी पूछती है  बिगाड़ा है ?'

मुन्नी ने कहा - ' इसने सिर्फ  एक पुतले को तोडा है , और वो भी जान बूझ कर नहीं। '

माँ ने कहा - ' मुन्नी ,  देखती नहीं दादीजी रोज कितने प्यार से भगवान जी को तैयार करती है , भोग  लगाती है और उनकी पूजा करती है।  भगवानजी को एक पुतला कह के तुम उनका अपमान कर रही हो !'

मुन्नी ने अपने उसी तेवर में कहा - '  आखिर क्या फर्क है , दादीजी के भगवानजी में और मेरी गुड़िया में ? दोनों ही बाजार से खरीद कर लाये गए थे , दोनों ही टूटने वाली वस्तु से बने थे। जितना मैं मेरी गुड़िया से प्यार करती  थी उतना ही दादी अपने भगवानजी से करती थी।  दोनों ही बबलू   के हाथों टूट गयी।  लेकिन दोनों बातों में इतना फर्क क्यों ? मेरी गुड़िया मेरे लिए दादीजी के भगवान  से कम नहीं थी , लेकिन फिर भी आप मुझ  पर नाराज हुए  जब मैंने बबलू को तमाचा मारा। आपका कहना सही था , एक गुड़िया थी उसकी जगह दूसरी आ जायेगी।  फिर आज आप सभी की सोच क्यों बदल गयी ? क्योंकि आपने इस पुतले को भगवान का नाम दे दिया। और अगर यही भगवान थे तो फिर अपनी रक्षा क्यों नहीं कर पाये एक मामूली गेंद की चोट से ! और एक मामूली चोट से बिखर भी गए।  ये तो आम इंसान से भी कमजोर निकले।  ऐसे भगवान जी की प्रार्थना से हमें क्या मिलेगा ?

पापा ने प्यार से कहा - बेटी , बात तो तुम्हारी ठीक है , लेकिन इसमें दादीजी की आस्था का सवाल है !

मुन्नी  ही प्यार से कहा - पापा, दादीजी की  आस्था और मेरी बचपन की आस्था में कोई अंतर नहीं है।  मैंने अपनी गुड़िया से  भावनात्मक रिश्ता जोड़ लिया था , वैसे ही दादीजी ने अपने भगवान की मूर्ति से भावनात्मक रिश्ता जोड़ लिया था।  दोनों के लिए ये एक मनोरंजन था।

दादी ने कहा - मुन्नी , तू सचमुच कितनी बड़ी हो गयी है। ये  बातें कई बार मेरे दिमाग में भी  आती है ; क्या मैं सचमुच भगवान की पूजा   कर रही हूँ , या  बुढ़ापे में अपना मन बहला रही हूँ।  मेरे पास समय बिताने के लिए कोई काम नहीं है। मुझे लगता है की मैं जैसे बचपन में तेरे पापा को प्यार से नहलाती धुलाती , खाना खिलाती , सुलाती - वैसा ही एक अनुभव मैंने इस मूर्ति के साथ शुरू कर दिया।  लेकिन ये सारा अनुभव एकतरफा था ; मूर्ति की तरफ से कभी कोई प्रतिक्रिया नहीं थी।

बबलू रुआंसा होकर बोला - दादी माँ ! मुझे माफ़  कर दीजिये।  आज के बाद मैं कभी कोई  तोड़ फोड़ नहीं करूंगा।  कभी भी आपके भगवानजी को कोई चोट नहीं लगने दूंगा।

दादी ने प्यार से बबलू को अपने पास खींचा।  बोली- , बेटा , भगवान  को चोट तुमने नहीं पहुंचाई ,  बल्कि हम सबने पहुंचाई है।  तुम्हारी एक छोटी सी गलती पर हम सबने तिल का  ताड़ बना दिया।  आज के बाद यहाँ कोई भगवान जी नहीं  आएंगे।  मेरे भगवान हो तुम सब।   मेरा प्यार अब मैं एक  मूर्ति पर नहीं लुटाऊंगी।   मेरा प्यार हैं मेरे  पोते और पोती के लिए।

दादी ने परिवार के सभी सदस्यों को अपनी बाँहों में भर लिया।