नील स्वर्ग

नील स्वर्ग
प्रकृति हर रंग में खूबसूरत होती है , हरी, पीली , लाल या फिर नीली

Friday, December 10, 2010

सत्तर के दशक का टेलीफोन

 एक बहुत बड़ा परिवर्तन देखा है हमारी पीढ़ी ने , हमारी पीढ़ी यानि वो लोग जो ५० से ६५ साल के बीच हैं . ३० -३५ वर्षों में बहुत कुछ बदल चुका है. हम चुपचाप हर बदलाव में घुल जाते हैं और भूल जाते हैं पिछली बातों को . आज मन किया कि  क्यों याद करूँ ७० के दशक को और उसमे रहने वाली जीवन शैली को . इस बहाने कुछ पुरानी बातें डोकुमेंट भी बन जायेंगी , भविष्य के लिए .

आज जब हम  गाडी चलते हुए , सुबह की जोग्गिंग करते हुए   यहाँ तक की विमान में उड़ते हुए भी पूरे विश्व में जहाँ चाहे बात कर सकते हैं , वो भी बहुत थोड़े से पैसों में , याद कीजिये ७० का दशक जब टेलीफोन पर बात करना टेढ़ी खीर था  . कुछ बातें जो मैं याद कर पाता हूँ टेलीफोन से जुडी हुई उनमे से खास ये हैं -

उस ज़माने में टेलीफोन मिलता था फोन विभाग से वर्षों की इन्तेजार के बाद . बेकेलाइट से बना हुआ वो भारी भरकम काला डिब्बा , जिसमे होता था एक नंबर घुमाने वाला चक्का . नंबर वाले छेद में अंगुली डालिए और उसे घुमाते हुए ले जाइये वहां तक जहाँ स्टोपर लगा हो .वहां जा कर उस चकरी को छोड़ दीजिये वो वापस वहीँ पर पहुँच जाती थीफिर अगला नम्बर .

उस फोन की  शक्ल थी कुछ ऐसी -   
मैंने एक नयी बात सीखी थी किसी से . अगर नंबर वाली चकरी पर ताला लगा हो तो भी नंबर मिला सकते हैं . जब मेरे मित्र ने सिखाया था तो मुझे उसकी बात बकवास लगी थी, लेकिन एक बार ऐसी स्थिति  गयी . मुझे बाज़ार से कुछ सामान लेने भेजा गया घर से . लेकिन वहां उस सामान से सम्बंधित कुछ स्पष्टीकरण की जरूरत पड़ी . दुकान  वाले के पास फोन तो था लेकिन उसका मालिक फोन पर ताला लगा कर भोजन करने गया था . मैंने कहा सेल्समन से - भैय्या क्या बिना ताला खोले मैं एक प्रयास करूँ . थोड़ी देर मुझसे कैफियत तलब करने के बाद उसने इजाजत दे दी, इस विश्वास से की बिना चकरी घुमाये , ये माई का लाल देखें कैसे फोन मिलाता हैकहानी का अंत अच्छा रहा . मैंने सफलता पूर्वक फोन लगाया , बात की और जरूरी स्पष्टीकरण मांग कर सामान ख़रीदा . सेल्समन भी मेरी कला  को देख कर अवाक् रह गया .

अब आप कहेंगे की इतनी देर से हांक रहा है , लेकिन मुद्दे की बात नहीं बता रहा कि बिना चकरी घुमाये मैंने फोन कैसे मिलाया . तो मित्रों कला यूँ थी - फोन का चोगा उठाइए , डायल टोन सुने तो नंबर मिलाइए  - ऐसे ! अगर तीन नंबर मिलाना है तो चोगे को रखने वाले बटन को तीन बार दबाइए - ज्यादा धीरे और ज्यादा जोर से , छोटा सा विराम , अगला नमबर  , उसी प्रकार घुमाइए - सोरी , दबाइए   बटन को आठ बार , अल्प विराम फिर अगला नंबर ...............बस ! उन दिनों कलकत्ता शहर में नंबर के फोन नंबर होते थे . छहों नम्बरों को दबाने का सिलसिला बिलकुल एक लय में होना जरूरी था . इस तरकीब से कई बार बिना फोन में दस पैसे का सिक्का डाले फोन किया है मैंने .

आप जानते हैं १९७१ में पूरे देश में फ़ोनों की संख्या दस लाख से भी कम थी . छोटे शहरों के फोन में डायल नहीं होते थे , मुठी भर फोन हुआ करते थे छोटे शहरों में . फोन उठा कर इंतजार करना पड़ता था टेलेफोन बाबू  का . वो जब फ्री हो जाते थे तब पूछते थे कहाँ मिलाना है .और वो मिला कर दे देते थे , कई बार नहीं भी मिलाते  थे , एक दो बार कोशिश की और कह दिया, सामने वाले का फोन खाली  नहीं है, या फिर केबल ख़राब लगता है ; एक दो घंटे बाद कोशिश करो .

एक शहर से दुसरे  शहर फोन करना एक अलग बहादुरी का काम था . ट्रंक काल बुक करना पड़ता था . पूरे देश में ट्रंक काल करने के लिए एक ही नंबर था - १८० . पहला बहादुरी का काम था १८० नंबर मिला पाना . सैंकड़ों बार कोशिश के बाद ये नंबर लग जाता था और पूरे घर में एक ख़ुशी की लहर दौड़ जाती  थी कि    आज तो ट्रंक काल बुक हो जायेगा .बुक करने के लिए अपना नम्बर , सामने वाले का शहर का नाम तथा फोन नंबर लिखवाना पड़ता था . सामने वाला स्थान यदि कोई जाना पहचाना नाम हुआ तो ठीक है , लेकिन अगर कोई बहुत अनजान सी जगह हुई तो साड़ी  जियोग्राफी समझानी  पड़ती थी . एक और मुद्दा था - पी पी काल . पी पी का मतलब था पर्टिकुलर पर्सन . यानी जिस खास व्यक्ति से बात करनी हो उसका नाम दीजिये . इस सुविधा का ज्यादा चार्ज  था. फोन बुक हो जाने पर एक टिकट नंबर  दिया जाता था . इस नम्बर  को कहीं लिख कर रखना जरूरी था, क्योंकि जरूरी नहीं था की आपका ट्रंक काल - घंटों के अन्दर मिल जाए .कई बार तो सुबह का बुक किया हुआ काल शाम तक मिलता था . ट्रंक कॉल दो किस्म के बुक होते थे - आवश्यक (Urgent ) या सामान्य (Ordinary ). कीमत में दुगुनी का फर्क था , इन्तेजार की सीमा में ये पता लगाना मुश्किल था कि कोई फायदा होगा या नहीं .  अगर आप कहीं बाहर जाना चाहते हैं तो इस ट्रंक कॉल को कैंसिल करना भी आपकी जिम्मेवारी थी  . उसे कैंसिल करने के लिए आपको टिकट नमबर चाहिए होता था , जो आपने संभाल कर रखा होता था .और फिर एक नम्बर  था - १८१ , जिसे मिलाने कि भी मशअक्कत १८० जितनी नहीं तो भी आधी तो जरूर थी . 

विशेष परिस्थितियों के लिए विद्युत् काल ( Lightening Call ) की सुविधा थी , लेकिन बहुत महँगी सुविधा . सामान्य काल  से आठ गुनी कीमत . इसमें आपका काल तुरंत कोशिश कर के मिलाया जाता था , अगर केबल फाल्ट हो तो ये कॉल मिल जाता था .इस तरह  के कॉल लोग करते थे सिर्फ जीने मरने की खबर पहुँचाने के लिए .

हर कॉल का टाइम रिकॉर्ड होता था , कॉल हो जाने के बाद ओपेरटर  का फोन आता था ये बताने के लिए की आपने तीन, छः या नौ मिनट बात की है . नौ मिनट से ज्यादा लम्बी बात करना नियम के अनुसार गलत था . बहुत अनुरोध करने पर ओपेरटर आधी एक मिनट ज्यादा बात करवा देता था . या फिर आप  एक साथ दो या ज्यादा कॉल बुक कीजिये ताकि आप नौ नौ के गुणित  में और बात कर सकें .

समय के साथ थोड़ी प्रगति हुई ; ७० के दशक के ख़त्म होते होते एक नए किस्म का कॉल शुरू हुआ - उसका नाम था - डिमांड कॉल . इस कॉल का तरीका लगभग विद्युत् कॉल जैसा ही था लेकिन कीमत थी urgent  कॉल से दुगनी . बहुत लोकप्रिय हुआ ये ट्रंक कॉल का तरीका . STD  की सेवा पूरे देश में आने तक डिमांड कॉल का ही सहारा था .

आज जब मैं देखता हूँ - स्कूल के बच्चों को हर समय मोबाइल फोन पर बात करते हुए, या मेसेज भेजते हुए , या फिर अपने घर के नौकर को जो रसोई में भोजन बनाने के साथ अपने गाँव में अपने घर पर बात करता है , या फिर ट्रेन में बैठे बैठे बुजुर्गों को जो विदेशों में रह रहे अपने बच्चों से दिल भर के लम्बी बात करते हैं , तब महसूस होता है कि हम कहाँ से कहाँ गए .

विज्ञान  से होने वाली भलाइयों में से बहुत महतवपूर्ण चीज है - दूर संचार .