नील स्वर्ग

नील स्वर्ग
प्रकृति हर रंग में खूबसूरत होती है , हरी, पीली , लाल या फिर नीली

Saturday, December 31, 2011

अन्ना ! तुम हारे नहीं !

अन्ना ने अपना अनशन डेढ़ दिनों में ही तोड़ लिया ! अन्ना के अनशन में मुंबई में भीड़ नहीं जुटी ! अन्ना ने अपना जेल भरो  आन्दोलन फिलहाल वापिस लिया ! ................बस फिर क्या था ! इतना होते ही मिडिया ने गिरगिट की तरह रंग बदल लिया . कोंग्रेस के तेवर बदल गए . अन्ना प्रकरण का समापन घोषित कर दिया . बुद्धिजीवियों को इस पूरे वर्ष में पहली बार मौका मिल गया , अन्ना के आन्दोलन पर इकतरफा प्रहार करने का - क्या जरूरत थी अनशन की जब सरकार ईमानदारी से लोकपाल विधेयक पर चर्चा के लिए तीन दिन का विशेष सत्र रख रही थी ? अन्ना को अपनी कमजोरी का अंदाजा लग गया होगा !अन्ना आर एस एस का एजेंट है , इस लिए सिर्फ कोंग्रेस का विरोध कर रहा है !  अन्ना का आकर्षण ख़त्म हो गया ..................वैगरह वैगरह !

अन्ना ने अपने २७ दिसंबर से २९ दिसंबर के अनशन  की घोषणा बहुत पहले ही कर दी थी , क्योंकि उन्हें पता था की लोकसभा और राज्यसभा का शीतकालीन सत्र २६ दिसंबर को समाप्त हो जाएगा . उन्होंने यह भी घोषणा की थी , अगर सरकार एक सशक्त लोकपाल बिल पारित कर देगी तो ये अनशन एक जश्न के रूप में मनाया जाएगा . उन्होंने वही किया जो उन्होंने बहुत पहले से कहा था . दरअसल सरकार ने उल्टा किया . शीतकालीन सत्र तो बिना लोकपाल की चर्चा के निकाल दिया और फिर अन्ना की तलवार लटकती देखी तो तीन दिन के लिए सत्र बढ़ा दिया . ये सरकारी चाल नहीं थी तो और क्या था ? ये षड्यंत्र था अन्ना को बदनाम करने के लिए - की हम तो लोकपाल पर चर्चा कर रहें हैं और ये लोग बाहर बैठ कर अनशन कर के हमें बदनाम कर रहें हैं .

दुर्भाग्य वश अन्ना जी का स्वास्थ्य बिगड़ गया और उन्हें अपना अनशन तोडना पड़ा . ये भी सही है की उनके अनशन में रामलीला मैदान के अनुपात में भीड़ बहुत  कम थी ; लेकिन इस संख्या के कम होने का कारण अन्ना जी के आन्दोलन की कमजोरी नहीं थी . एम एम आर डी ऐ मैदान में भीड़ न जुटने के मुख्य कारण थे ये -

१. अनशन का स्थान चुना गया था - दादर का शिवाजी पार्क या फिर आजाद मैदान . दोनों जगह   प्रशासन   ने अनुमति देने से इंकार किया . आजाद मैदान तो इस तरह के आन्दोलनों के लिए नियुक्त ही है , लेकिन  प्रशासन  ने कहा की हम पूरा मैदान नहीं देंगे . अगर अन्ना का अनशन आजाद मैदान में हुआ होता तो संख्या कम से कम एक लाख लोगों की होती क्योंकि जहाँ आजाद मैदान मुंबई के लोगों की बहुत आसान पहुँच में है , क्योंकि ये मैदान वेस्टर्न और सेंट्रल रेल लाइनों के मुख्य स्टेशनों  - चर्चगेट और सी एस टी के बिलकुल पास पड़ता है , वहीँ एम एम आर डी ऐ मैदान सब से नजदीक बांद्रा स्टेशन  से भी कम से कम ५-७ किलोमीटर की दूरी पर है . इतना लम्बी दूरी चल कर जाना आम आदमी के लिए मुनासिब नहीं है . बस आदि की व्यवस्था उस इलाके के लिए बहुत सीमित है .

२. दिल्ली की अपेक्षा मुंबई में भीड़ कम होनी लाजिमी था  . कारण आम मुम्बईकर बड़े से बड़े हादसे - जैसे  की बम ब्लास्ट के बाद भी अपना दफ्तर नहीं छोड़ता ; ऐसे में सप्ताह के बीचोंबीच अनशन की तारीखें रखना ही गलत निर्णय था .

३. लोकसभा की गरमागरम बहस देखने के लिए इस विषय में कार्यशील  लोग घरों ही नहीं दफ्तरों में भी टी वी खोल के बैठे थे - ऐसे में मैदान की अनुपस्थिति अपेक्षित थी .

४. पहले दिन अन्ना जी मैदान में पहुंचे ११ बजे के बाद जबकि पूर्व  घोषित कार्यक्रम के अनुसार उन्हें वहां पहुंचना था साढ़े नौ बजे  . सुबह जुटने वाली भीड़ काफी संख्या में आकर जा चुकी थी .

बहरहाल कारण जो भी थे दूसरे दिन अन्ना जी ने न केवल अनशन तोड़ दिया , बल्कि उस दिन से आन्दोलन को एक बार स्थगित कर दिया . अब देखिये उस स्थगन का परिणाम . जब  २७ दिसंबर को लोकसभा की बहस चल रही तब , सरकार पूरे जोरों से लगी थी किसी तरह उनका लोकपाल विधेयक  पास हो जाए - क्योंकि बाहर अन्ना जी का आन्दोलन जारी था .ये दबाव सिर्फ सरकार पर ही नहीं बल्कि विपक्ष पर भी था . यही कारण था की विपक्ष के बहुत सारे सुझावों के न माने जाने पर भी लोकपाल विधेयक लोकसभा में पारित हो गया .

अगले दिन बहस होनी थी राज्यसभा में ; लेकिन सुबह से ही ये बातें मिडिया में आने लगी की अन्नाजी का स्वस्थ्य ठीक नहीं है , इसलिए उन्हें शायद अनशन तोडना पड़ेगा . आधे दिन तक सरकार क़ानूनी औपचारिकताओं का बहाना बना कर राज्य सभा में बहस शुरू करने से बचती  रही , लेकिन जब अन्ना जी ने अपना उपवास और आन्दोलन स्थगित कर दिया तो सरकार बेलगाम हो गयी , और इस प्रकार राज्यसभा का एक महत्वपूर्ण दिन बिना किसी बहस के चला गया . सरकार जानती थी की अब उन्हें किसी तरह राज्यसभा का सिर्फ एक दिन और पार करना है .

सरकार शुरू से ही जानती थी की राज्यसभा में उसका बहुमत नहीं है और बहुत सारे संशोधन आयेंगे , क्योंकि विपक्ष की कोई भी पार्टी उनके लोकपाल के प्रारूप को स्वीकार नहीं कर रही ; लेकिन सरकार ने ये नहीं सोचा था की उनकी अपनी सरकार की एक पार्टी तृणमूल कोंग्रेस भी उनका किसी मुद्दे पर विरोध करेगी . तृणमूल कोंग्रेस जैसे की विपक्ष की ही आवाज बन गया , और सरकार के लिए एक बहुत ही कमजोर स्थिति बन गयी . लोकपाल एक ऐसी हड्डी बन गया सरकार के लिए जिसे निगले  तो मुश्किल और उगले  तो मुश्किल . इस स्थिति से निपटने के लिए सरकार ने जिस घटिया राजेनीति का सहारा लिया वो सारे देश ने देखा . जिस लोकपाल बिल पर आये हुए संशोधनों के लिए सारा विपक्ष सारी रात बहस करने को तैयार था , ताकि उसके बाद मतदान करवा के सभी विवादस्पद मुद्दों पर निर्णय हो सके , वहीँ सरकार ने रात के १२ बजे तक स्थिति स्पष्ट नहीं की , और अचानक १२ बजे के बाद सदन की कार्यवाही समाप्त कर दी . इस बेशर्मी का कारण स्पष्ट है की मतदान का मतलब होता कि लोकपाल में वो सारे प्रावधान पारित हो जाते जो विपक्ष , और काफी हद तक टीम अन्ना चाहती थी . सरकार मैदान छोड़ कर भाग गयी .

अन्ना हजारे की बात एक बार फिर सिद्ध हो गयी की ये सरकार एक शशक्त  लोकपाल कभी नहीं लाएगी क्योंकि भ्रष्टाचार की नदी का स्त्रोत्र ये सरकार स्वयं है . सदन में हुए राम जेठमलानी के भाषण ने सरकार की चालाकियों की पोल खोल कर रख दी .

अन्ना ! तुम हारे नहीं , बल्कि जीते हो ! देश की आँख खुलती जा रही है . सरकार की करतूतें खुद उसी पोल खोल रही हैं .

Sunday, December 25, 2011

मेरी क्रिसमस


आज क्रिसमस के दिन एक बहुत पुरानी घटना याद आती है . मेरी बुआजी दार्जिलिंग के पास एक छोटे से शहर कर्सियांग  में रहती थी. पहाड़ों के बीच एक बहुत सुन्दर हिल स्टेशन था - कर्सियांग  . कर्सियांग की विशेषता थी वहां के बहुत सारे स्कूल - अंग्रेजों के ज़माने से बने कोनवेंट  स्कूल जहाँ पढ़ाते थे सजे धजे ईसाई पादरी और नन !  बुआजी का एक बहुत बड़ा संयुक्त परिवार था . चार चार पीढ़ियों के सदस्य एक साथ रहते थे . उनके परिवार की कई दुकाने थी , जहाँ घर के अलग अलग सदस्य काम सँभालते थे .

बुआजी के दादा ससुर नित्य अपनी एक दुकान में बैठते थे . शहर का बच्चा बच्चा उनको जानता था . एक दिन क्रिसमस के त्यौहार के समय वो अपनी दुकान में बैठे थे . वहां के स्कूल की एक स्मार्ट सी टीचर वहां से गुजर रही थी . दादाजी को हमेशा देखती थी . क्रिसमस का दिन था इस लिए उसके मन में आया की उन्हें क्रिसमस की शुभकामनायें दी जाए . बस , वो दुकान में आई , मुस्कुरा कर दादाजी का हाथ अपने हाथ में लिया , हथेली के पिछले भाग पर एक हल्का सा चुम्बन किया और बोली - मेरी क्रिसमस ! और फिर उसी तरह मुस्कुरा कर बाहर चली गयी. कुछ देर तो दादाजी स्तब्ध रहे , फिर उन्होंने अपने बेटे को आवाज दी और कहा - "अरे भई , ये स्कूल की टीचर क्या कर रही थी . उसने मेरे हाथ को पहले चूमा और फिर बोली - मेरी किस्मत . "

Friday, December 23, 2011

लोकपाल - एक और सरकारी तमाशा


दिसंबर २२, २०११ का दिन भारत के इतिहास में इस लिए महत्वपूर्ण रहेगा , क्योंकि इस दिन संसद में सरकार ने अपना लोकपाल बिल पेश किया . लोकपाल बिल - जो पूरी तरह देश की जनता के आन्दोलन के कारण सरकार को लाना पड़ा . ऐसा नहीं है की सरकार लोकपाल बिल लाना नहीं चाहती थी ; दरअसल सरकारी लोकपाल तो बहुत पहले बन चूका था लेकिन फिर अन्ना हजारे के आन्दोलन ने उस बिल की धज्जियाँ उड़ा दी. तब से इस देश में क्या कुछ नहीं हुआ - अन्ना का उपवास , पूरे देश में आन्दोलन , संसद का अन्ना को विश्वास पत्र , स्टैंडिंग कमिटी की अपनी मीटिंगें और फिर उसकी विवादस्पद रिपोर्ट , राजनैतिक दलों की  उस रिपोर्ट से असहमति वैगरह . आखिर में यू पी ऐ सरकार ने सभी दलों को विश्वास में लेकर एक मसौदा  बनाना चाहा. कल पेश किया गया बिल उसी मिली जुली प्रतिक्रिया का एक साकार रूप होना था . लेकिन ऐसा हुआ नहीं . सरकार अभी भी गिरगिट की तरह रंग बदल रही है . 

सरकार द्वारा पेश किये गए बिल की शुरुवात ही असंवैधानिक है . लोकपाल एक ऐसी स्वतंत्र संस्था बननी है जिसमे ८ सदस्य और एक उसका प्रधान या चेयरमैन होगा . इस नौ सदस्यों की टीम को बनाने के लिए उसमे समावेश कर दिया गया - " कम से कम ५०% आरक्षण अनसूचित जाति , जनजाति , महिलाएं एवं ओ बी सी (Other Backward  Classes ) के लिए . " और उसके बाद लालू यादव , मुलायम सिंह यादव और अन्य मुस्लिम नेता कूद पड़े की जब इतने लोगों का आरक्षण है तो माइनोरिटी ( वोट बैंक की दृष्टि से सीधा मतलब मुस्लमान ) का आरक्षण क्यों नहीं . भारतीय जनता पार्टी की नेता सुषमा स्वराज ने कहा की ये कोई सरकारी नौकरियों की व्यवस्था तय नहीं की जा रही है , ये तो एक  ऐसी संस्था का निर्माण हो रहा है , जिसका काम भ्रष्टाचार से लड़ना है . बस साहब , संसद बन गया एक जातिवाद का अखाडा . 

कांग्रेस पार्टी ने अपना वोट बैंक खिसकते देखा तो एक   सुधारनमा पेश करते हुए - आरक्षण की फेहरिस्त  में माइनोरिटी  शब्द जोड़  दिया.  उसके बाद क्या था - संसद एक फ्री स्टाइल भाषण का अखाडा बन गया .

ये तो था वो दृश्य जो नजर आ रहा था देश को , क्योंकि संसद का सीधा प्रसारण उपलब्ध है . लेकिन अन्दर की बात जो नजर आती है वो है एक गंभीर साजिश - लोकपाल बिल को फिर एक बार अटका कर छोड़ देने की साजिश . लालू यादव और कांग्रेस के प्रेम संबंधों को कौन नहीं जानता . कांग्रेस ने जान बूझ कर आरक्षण को मुद्दा बनाया . लालू यादव पूर्व नियोजित तरीके से संसद के मध्य में प्रदर्शन करने लगे - माइनोरिटी के मुद्दे को लेकर . मुलायम सिंह यादव के लिए इस मुद्दे पर नाचना लाजिमी था - क्योंकि यु पी के चुनाव सामने है . 

सच्चाई ये है की आरक्षण का ये मुद्दा पूरी तरह गलत है - क्योंकि संविधान इस तरह की इजाजत नहीं देता . इलेक्शन कमीशन , सी ऐ जी आदि स्वतंत्र संस्थाएं हैं जिनमे ऐसे किसी आरक्षण का प्रावधान नहीं है . लोकपाल का स्वरुप भी कुछ वैसा ही है . ये बात सभी राजनैतिक दल भी जानते हैं , लेकिन फिर भी ये मुद्दा संसद का कीमती वक्त ले डूबा - क्योंकि ज्यादा तर दल चाहते हैं की ये सत्र इसी तरह फिजूल के विषयों पर खर्च हो जाए , चाहे उसे तीन दिन के लिए बढ़ा क्यों न दिया गया हो . 

संसद में पूरे देश के सामने राजनैतिक दलों के झूठ के आवरण का नंगा नाच हो रहा है . अन्ना अगर अनशन न करें तो जाएँ कहाँ ? अगर अन्ना मर भी जाएँ तो भी ये पार्टियाँ उनके जन लोकपाल मसौदे  को पास नहीं होने देंगी . राजनैतिक पार्टियाँ स्वयं भ्रष्टाचार हैं और अन्ना स्वयं लोकपाल - युद्ध जारी है !

Monday, December 19, 2011

धरम करम - एक लघु कथा

वो डॉक्टर के सामने गिडगिडा रहा था -  डॉक्टर साहब ,मेरे बाप को बचा लो , वो मर रहा है . दो दिन से शरीर भट्टी की तरह जल रहा है , पेट में कुछ गया नहीं .  डॉक्टर ने कहा - पहले जाकर हस्पताल में दस  हजार रुपैये जमा करवा दो , फिर उसे हस्पताल में जगह मिलेगी . उसने कहा -  डॉक्टर साहब , मेरे पास तो बीवी के दो कंगन के सिवा कुछ नहीं , इन्हें रख कर ही मेरे बाप को भरती कर लो .  डॉक्टर ने कहा - पैसों का जुगाड़ हो जाए तो आ जाना  . ये कह कर  डॉक्टर मुंह फेर कर चल दिया .

वो रुआंसा होकर जमीन पर लेटे बापू के पास गया और बोला - बापू मैं क्या करूँ ? बापू उसका उत्तर देने के लिए जीवित नहीं था .

थोड़ी देर बाद वो फिर गिडगिडा रहा था , गाँव के पंडितजी के सामने - पंडितजी , बापू का किरिया करम करवा दीजिये . पंडितजी बोले - किरिया करम तो हो ही जाएगा , लेकिन उसके लिए तैयारी करनी पड़ेगी .अर्थी , लकड़ी ,घी आदि का मूल्य करीब अढाई हजार , गौदान के निमित्त पांच हजार और मृतक भोज के लिए कम से कम तीन हजार का खर्च है . वो फिर गिड़गिड़ाया - पंडितजी इतना पैसा होता तो आज बापू जिन्दा होता .मेरे पास तो बस बीवी के दो कंगन हैं . उसे ले लीजिये . पंडितजी ने बिदक कर कहा - छी छी , तुम्हारी बीवी के कंगन मैं लूँगा ? जाकर साहूकार के यहाँ बेच आओ , कह देना पंडितजी ने भेजा है . हजार पांच सौ कम भी मिले तो चला लेंगे .

वो फिर एक बार रुआंसा होकर बापू की लाश के पास गया और बोला - बापू तुम्ही बताओ , मैं क्या करूँ ? बापू से उत्तर नहीं मिला .

तभी उसकी बीवी ने कहा - तुमने बेटे का धरम निभा लिया , डॉक्टर के पास लेकर गए , पंडितजी से मिन्नत कर ली ; उन लोगों ने अपना धरम नहीं निभाया . अब उठाओ बापू को अपने हाथों में और चलो शमशान . जो करना है हमें ही करना है . उसने अपनी बीवी की आँखों में देखा और फिर  आश्वस्त  होकर बापू को हाथों में उठा लिया .  


Saturday, December 10, 2011

कोलकाता में कहर


कोलकाता में कल एक बहुत बड़ी दुर्घटना हो गयी . अमरी ( ऐ एम् आर आई ) नाम के एक वातानुकूलित हस्पताल के तहखाने में एक ऐसी आग लगी , जिसने धीरे धीरे पूरी बिल्डिंग को चपेट में ले लिया . बंद बिल्डिंग में धुआं नीचे से ऊपर तक भरता चला गया . हस्पताल ज्यादा बड़ा था , इसलिए उसके अन्दर मरीज , डोक्टर , कार्यकर्ता तथा अन्य लोग भी थे . लोग आग में झुलसने की बजाय जहरीले धुंए में घुट कर मर गए . अंतिम गणना तक  90   मृत घोषित हो चुके थे . बहुत से लोग अभी भी अन्दर फंसे हुए हैं - जिन्दा या मुर्दा ये पता नहीं . बहुत से लोगों को आसमानी सीढियां लगा कर बचाया गया . कुल मिलकर एक विभीषिका , एक कहर !

जैसा की ऐसी दुर्घटनाओं के बाद होता है , कारण की तलाश शुरू हुई . सबसे आसान काम पश्चिम बंग सरकार के पास था वो ये  कि उसने हस्पताल के  ६ डिरेक्टोरों को गिरफ्तार कर लिया गया , जिसके फलस्वरूप कोलकाता शहर के कई नामी उद्योगपति इस हस्पताल में पूँजी निवेश करने के जुर्म में बंदी बना लिए गए . अमरी हस्पताल की वेबसाईट देखें तो पता चलता है की ये हस्पताल पश्चिम बंग सरकार के साथ एक साझा प्रकल्प है . इस बात की चर्चा न तो मीडिया कर रही है और न ही सरकार . मुख्य  मंत्री ममता बनर्जी  घटना स्थल पर जाकर लोगों को मिल कर सांत्वना दे रही थी . अगर हस्पताल के मालिक ही इस घटना के लिए जिम्मेवार है तो सरकार के मुखिया होने के नाते ममता जी को भी गिरफ्तार किया जाना चाहिए . 

आखिर ये जिम्मेवारी है किसकी ? ये जिम्मेवारी है भारत की सड़ी गली सरकारी व्यवस्था की , जहाँ हर गैर कानूनी बात संभव है , पैसे देकर . ऐसा नहीं है की जो बात कानूनी है वो बिना पैसे दिए हो जाती है . देश का बच्चा बच्चा जानता है कि भारत के हर शहर का ये अनलिखा कानून है कि किसी भी निर्माण के लिए बहुत सारी सरकारी  आज्ञाएँ लेनी होती है , जो बिना अच्छा खासा पैसा खर्च किये संभव नहीं है . चाहे हस्पताल हो या होटल ,स्कूल हो या अपना घर - मुनिसिपल कोर्पोरेसन में पैसे दिए बिना नक्शा पास नहीं होता . यही कारण है की भारत के हर शहर में बिल्डिंगों के दाम दो होते हैं - चेक का अलग और कैश का अलग . अगर कोई पूरा चेक देकर फ्लैट खरीदना चाहे , तो ये उसके लिए असंभव है . काले का पैसा काले कानूनों के लिए अलग से लेना पड़ता है . सबसे मजे की बात ये है की ये सच्चाई देश का हर नागरिक जानता है , लेकिन सरकारी हिसाब किताब में ये भ्रष्टाचार की सीमा में नहीं आता . ऐसी व्यवस्था में जरूरी बचाव और सुरक्षा  की बातें सबसे पहले गौण हो जाती हैं , क्योंकि उनकी कमी किसी को नहीं खलती , जबतक कोलकाता जैसी दुर्घटना न घट जाए . 

बहरहाल समय के साथ लोग इस दुखद घटना को भूल जायेंगे , जैसे की दिल्ली के उपहार सिनेमा काण्ड को भूल चुके हैं . लेकिन वो लोग जिन्होंने किसी अपने को खोया है , वो जिंदगी भर नहीं भूल पायेंगे इस हादसे को , जिसमे जीवन की तलाश में भर्ती प्रियजन  मौत की घाट उतर गए .   

Wednesday, November 30, 2011

देर है अंधेर नहीं है


जी हाँ , ये बात भारतीय न्याय व्यवस्था पर पूरी तरह लागू होती है . देर सवेर न्याय मिलता है , ये अलग बात है की देर की परिभाषा एक वर्ष से लेकर एक जीवन काल तक कुछ भी हो सकती है .आइये ऐसे ही एक किस्से की चर्चा करें . 

मुंबई  हाई कोर्ट के एक बहुत ही प्रसिद्ध  जज - जस्टिस मदन लक्ष्मणदास तहिलियानी  ने कल एक बहुत ही मार्ग दर्शक फैसला सुनाया . जस्टिस तहिलियानी वही जज हैं जिन्होंने कसाब का मुक़दमा सुना और अंत में सजा -  - मौत सुनाई.  मुहम्मद अल्ताफ खान २००१ में  बीस वर्ष का थाजब उसे पुलिस ने गिरगांव इलाके में हुई एक चोरी की वारदात में शक के आधार पर गिरफ्तार किया .  उस  समय मुहम्मद खान की आर्थिक स्थिति ऐसी  नहीं थी  , की वो अपने लिए कोई अच्छा वकील  खड़ा कर  सके ;  लिहाजा कोर्ट ने अपने पेनल में से एक वकील की नियुक्ति  की . जस्टिस तहिलियानी ने मामले के इतिहास को समझते हुए ये बताया की , खान को सही क़ानूनी सहायता नहीं दी गयी . उनके  अनुसार उस समय के सेसन कोर्ट के जज साहब के लिए ये आवश्यक था की वो कोर्ट द्वारा नियुक्त वकील को शिकायत कर्ताओं को क्रोस एक्सामिन करने का अवसर देते , जो किया ही नहीं गया . इतना ही नहीं खान को उसके नागरिक अधिकारों के विषय में भी बताया नहीं गया . मुफ्त क़ानूनी सहायता इस देश  के हर  नागरिक का अधिकार है , जो समय पड़ने पर  उसे मिलनी चाहिए . जस्टिस तहिलियानी ने कहा कि सामान्य रूप से ऐसी अवस्था में मुझे ये केस सेसन कोर्ट के पास भेज देना चाहिए ताकि वो दुबारा पूरे मामले की  छान बीन करें , लेकिन ये आरोपी मुहम्मद अल्ताफ खान के साथ अन्याय होगा , क्योंकि वो पहले ही दस वर्ष जेल में काट चुका है . अपने इस वक्तव्य के साथ जस्टिस तहिलियानी ने मुकदमा ख़ारिज करते हुए खान को मुक्त करने का आदेश दिया .

अब इसे आप क्या कहेंगे - अंधेर या देर ? शायद दोनों ! किसी के जीवन के दस वर्ष , वो भी आयु के २० वें वर्ष से लेकर ३० वें वर्ष तक के - अगर जेल में बिताने पड़े , बिना किसी आरोप के सिद्ध हुए - तो इससे बड़ा अंधेर क्या होगा ? लेकिन जो कुछ जस्टिस तहिलियानी ने किया , वो इस अंधेर के अन्दर से न्याय की एक लौ को जगाने का काम किया .    

Saturday, November 5, 2011

अँधा कानून


क्या आपको फिल्म कानून याद है - जिसके मुख्य कलाकार थे अशोक कुमार , राजेंद्र कुमार , नंदा और जीवन ? उस फिल्म की शुरुवात बहुत ही जबरदस्त थी . कालिदास को अदालत उम्र कैद की सजा सुनाती  है - गणपत के क़त्ल के जुर्म में . कालिदास चीख चीख कर गुहार करता है की उसने किसी का क़त्ल नहीं किया . कोई सुनवाई नहीं होती . सजा काटने के बाद जब कालिदास बाहर आता हैतो उसे पता चलता है की गणपत जिन्दा है और मजे की जिंदगी बिता रहा है . कालिदास का खून खौल उठता हैवो एक पिस्तौल उठा कर उस क्लब में पहुँच जाता हैजहाँ गणपत मजे कर रहा होता है . कालिदास सबके सामने गणपत का खून कर देता है . जब उसे अदालत के सामने लाया जाता है , तो वो एक सवाल करता है जज साहब से - आज मुझे किस जुर्म के लिए लाया गया हैअगर गणपत के क़त्ल के जुर्म में , तो उसकी सजा तो मैं पहले ही काट चूका हूँ ; एक ही जुर्म की क्या दो बार सजा हो सकती है ? अदालत के पास कोई जवाब नहीं होता .  दिलचस्प कहानी थी .

वो तो एक कहानी थी , अब बात करें एक सच्ची घटना की . अगस्त ,२००० को झाँसी  के एक ठाणे में एक अफ आई आर दर्ज हुई - तीन व्यक्तियों - रामेश्वर , उसके पिता मोहन और उसके चाचा डालचंद के खिलाफ ! आरोप था भगवानदास नाम के एक व्यक्ति के क़त्ल का . १० फरवरी २००३ को झाँसी के सेसन कोर्ट ने तीनों अभियुक्तों को उम्र कैद की सजा सुना दी . तीनों अभियुक्तों ने इलाहबाद हाई कोर्ट में अपने निर्दोष होने की गुहार लगाई . पूरे छह साल और आठ महीने के बाद इलाहबाद हाई कोर्ट ने सेसन कोर्ट के फैसले  पर मुहर लगते हुए आजीवन कारावास की सजा को बरक़रार रखा .

कहानी में एक बहुत बड़ा मोड़ तब  गया जब भगवन दास अचानक दिसंबर २०१० में अपने गाँव पहुँच गया . उसने बताया कि वो हिमाचल प्रदेश के किसी हिस्से में नौकरी कर रहा था . गाँव के एक प्रभावशाली व्यक्ति ने दोनों परिवारों की सम्पति पर कब्ज़ा जमा लिया था . यह उसी व्यक्ति की चाल थी - ऐसा वहां के लोगों का मानना है .सारा मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा . कल यानि चार नवम्बर  २०११ को सुप्रीम कोर्ट ने तीनों सजायाफ्ता निर्दोष व्यक्तियों को जमानत पर रिहा करने का हुक्म दिया . अब तीनों ने राज्य से पचास पचास लाख रुपैये हर्जाने कि मांग की है.

ये हमारे देश की व्यवस्था में आमूल चूल घुसे भ्रष्टाचार का एक ज्वलंत उदहारण हैकैसे पुलिस अपने अधिकारों का दुरुपयोग करके सफ़ेद को काला और काले को सफ़ेद कर देती हैमुद्दा सिर्फ तीन निर्दोष व्यक्तियों के जीवन के सबसे अच्छे दस सालों के अमानवीय हनन का ही नहीं है ,  बल्कि इस तरह के हजारों अन्य लोगों का भी हैजो शिक्षा और धन के अभाव में पूरी तरह सड़ी गली   व्यवस्था से लड़ नहीं सकते .

चाहिए एक अन्ना हजारे जो देश की विभिन्न जेलों में फंसे हुए हजारों बेगुनाहों की मदद करे . पांच पांच हजार रुपैये की जमानत के अभाव में  जाने कितने बेगुनाह सलाखों के पीछे एक अभिशप्त जीवन काट रहें हैं . देश की न्यायपालिका के इतिहास में ये घटना एक शर्मनाक पन्ने की तरह जुड़ेगी . 

एक प्रश्न भी खड़ा होता है - अगर ऐसे निर्दोष  लोगों को मृत्युदंड दे दिया गया होता तो देश के पास क्या उत्तर होता ?