नील स्वर्ग

नील स्वर्ग
प्रकृति हर रंग में खूबसूरत होती है , हरी, पीली , लाल या फिर नीली

Saturday, July 28, 2012

नारायण ! नारायण ! - एक लघु कथा

नेताजी अपने दफ्तर में बैठे हुए अपना काम कर रहे थे . तभी चपरासी ने कहा - सर , एक युवक आया है किसी गाँव से  , कहता है आपसे मिलना है . नेताजी ने कहा - जाकर पूछो कि  काम क्या है . चपरासी बोला - पूछा  था सर, कहता है कि वो आपका बेटा है .
नेताजी ने नजर उठाये बिना कहा - उसका नाम , पता , जन्म तिथि , उसकी मां  का नाम , उसके गाँव का नाम रजिस्टर में लिखवा लो .
चपरासी बोला - सर लिखवा लेता हूँ, फिर क्या कहना है ?
नेताजी - कहना की हफ्ते भर बाद खबर लो , तब तक हम अपने दौरों का रेकोर्ड चेक कर लेते हैं . हाँ कहना मिडिया विडिया के चक्कर में न पड़े , कुछ पता  चला तो आपस में सलटा  लेंगे. 

Thursday, July 26, 2012

खौफ 26 जुलाई का


 
नमूना 26 जुलाई की बरसात का 
मुंबई की बरसात मुंबई की जीवन रेखा है . इस वर्ष कम हुई तो लगता है की पूरे मुंबई शहर की जल की आपूर्ति नहीं हो पाएगी . लेकिन 2005 की बरसात , और वो भी 26 जुलाई की बरसात- आज भी हर मुम्बईकर  के रौंगटे खड़े कर देती है . बरसात क्या थी मानों प्रलय का एक ट्रेलर था . हर मुम्बईकर  के पास अपनी एक दास्तान  मिलेगी ; मैं आज अपने परिवार की कहानी यहाँ मेरे पाठकों के साथ शेयर करता हूँ .
आधी डूबी  हुई बस उस दिन की दास्ताँ बयान  करती है 

मेरा घर है जुहू में और उन दिनों मेरा दफ्तर होता था मस्जिद बन्दर इलाके में . गाडी से आने जाने में भी सामान्य दिनों में औसतन डेढ़ घंटे का सफ़र हुआ करता . उस दिन मै  और मेरा बेटा पराग एक साथ दोपहर का खाना खा रहे थे - रोज कीतरह करीब दो बजे . बाहर सुबह से ही बरसात बदस्तूर जारी थी . ये हर वर्ष होता है इसलिए कोई ख़ास बात नहीं थी . करीब सवा दौ बजे मेरी पत्नी रेणु  का फोन  आया की जुहू की तरफ बहुत जोरदार बरसात हो रही है , साथ में उसने हलके से कह दिया की कोई विशेष काम न हो तो निकल जाओ . मैंने कहा अगर ऐसे निकालेंगे तो फिर पूरे महीने रोज ही निकलना पड़ेगा .

ये लोग खड़े हैं रेल की पटरियों के दोनों तरफ प्लेटफोर्म पर 
 करीब  15 मिनट बाद फिर उसका फोन आया ; इस बार उसकी आवाज में थोड़ी घबराहट थी ; उसने मजबूती से कहा की दफ्तर जल्दी बंद कर दो और सभी कर्मचारियों को भी जाने दो , और तुम भी निकल पड़ो . मैंने कहा की देखते हैं . फिर मैंने दो चार जगह फोन कर के पुछा तो लगा की बरसात कुछ अधिक ही है . मैंने निर्णय लिया की तीन बजे तक दफ्तर बंद कर के सबकी छुट्टी कर दी जाए . तीन बजे मैं और पराग अपनी गाडी में बैठे ही थे , कि  श्रीमतीजी का  फिर फोन आ गया . इसबार वो पूरी तरह परेशान थी ; बोली की घर के सामने की सड़क पर पानी का स्तर  कमर तक आ गया है . अब अगर मैं निकल गया हूँ तो फिर आगे के रास्ते की परिस्थिति देख कर बढ़ना . ये बात चौंका देने वाली थी क्योंकि जुहू के इलाके में मैंने कभी इस तरह पानी भरते हुए नहीं देखा था .

बाद में ये गाडी पूरी डूब गयी थी 
मैंने अपने ड्राइवर से कहा की ऐसा रूट पकड़ो जहाँ पानी न भरता हो .हमारा रोज का रास्ता था किंग  सर्किल होकर धारावी से हाइवे पर निकलने का ; लेकिन हमें अंदाज था की किंग सर्किल काफी नीचा क्षेत्र है ( मैं 3 साल पहले वहां सारी  रात किसी मित्र के यहाँ बिता चूका थी - इसी वजह से ) ; इसलिए हमने भायकला  से तुलसी पाइप रोड का रास्ता पकड़ा . बरसात इतनी तेज थी की हमें आगे वाली गाडी की सिर्फ लाल बत्ती ही नजर आ रही थी . धीरे 2 करीब घंटे में हम दादर स्टेसन के पुल पर  पहुंचे ; वहां से आगे का नजारा देखा तो होश उड़ गए . वहां से दूर दूर तक गाड़ियों की लाइन लगी थी जो एक इंच भी आगे नहीं बढ़ पा रही थी .

आधी घंटे इन्तजार करने के बाद अपने सेल फोन से सबसे संपर्क करना शुरू किया . पत्नी से लगातार बात हो ही रही थी . उसने सलाह दी की मुझे वहीँ कहीं किसी होटल में या किसी जानकार के यहाँ शरण लेनी चाहिए . मैंने अपने एक रिश्तेदार को फोन किया , क्योंकि मुझे याद आया की उनकी ससुराल इसी इलाके में कहीं है . उन्होंने मुझे वहां तक पैदल चल कर जाने का रास्ता बताया . मैं और पराग गाडी से निकल कर चल पड़े ; ड्राइवर से कहा की गाडी को कहीं ढंग से खड़ा कर के उसी जगह आ जाए .
रेलवे स्टेसनों पर शरण ली रेल यात्रियों ने 

जब हम सडक पर निकले तब हमें अंदाज हुआ बरसात के तीखेपन का . पानी कमर तक पहुँच चुका  था . आगे जाकर देखा तो पाया की सभी गाड़ियों के ड्राइवर अपनी अपनी गाड़ियों को वहीँ लोक कर के चले गए हैं . यानि की उस रस्ते पर कोई भी गाडी अपनी जगह से हिलने की स्थितिमे नहीं थी . हम पहुंचे हमारे गंतव्य पर जहाँ घर की स्त्रियों ने हमारा स्वागत किया . पता चला की घर के पुरुष किसी और जगह पर हमारी ही तरह फंसे हुए हैं . बस इसी एक कारण  ने उस दिन पूरे शहर को एक परिवार के रूप में बदल दिया . हर व्यक्ति आये हुए शरणागत में अपने घर के व्यक्ति - अपने पति . पुत्र देवर आदि को ढूंढ रहा था .

बस अड्डे भी शरण के रूप में ही काम आये 
उस दिन सब कुछ संभव था 
हमारे मेजबान ने हमें बदलने को कपडे दिए ; गरम गरम चाय के साथ पूरियां खिलाई . बरसात के रुकने का इन्तजार करते हुए रात के 11 बज गए , लेकिन बरसात रुकने क नाम नहीं ले रही थी . पत्नी ने वहां से न निकलने की हिदायत दी . लेकिन किसी और के घर पर हम सारी  रात कैसे रुक सकते थे ; वो भी तब जब की उस घर के पुरुष घर में मौजूद नहीं थे . जब हमने वहां से निकलने की बात की तो घर की महिलाओं ने हमें जाने की आज्ञा  नहीं दी . उन्होंने साफ़ साफ़ कह दिया की अब रात में कहीं जाने की जरूरत नहीं ; सुबह अगर मौसम ठीक हुआ तब निकलें . इस प्रकार उन्होंने हमारी उलझन को दूर किया . रात का भोजन वहीँ किया . हमारा ड्राइवर भी आ चूका था , उसने भी वहीँ शरण ली . हम रात को उनके घर पर ही सो गए .

अगली सुबह का नजारा भी बदला नहीं था . एक अंतर ये हुआ की रात में किसी वक़्त घर का छोटा बेटा घर पहुँच चूका था . उन्होंने दोपहर 12 बजे तक हमें निकलने नहीं दिया . उसके बाद हम बिलकुल हाथ जोड़ कर धन्यवाद कर के  निकल गए .गाड़ियाँ थोड़ी थोड़ी निकल चुकी थी . धक्का देकर गाडी को उस रास्ते से बाहर  किसी खाली  सडक तक लाये . भगवन की दया से गाडी स्टार्ट हो गयी . पैदल की स्पीड से गाडी को बंदर तक लाये . वहां पता चला की वहां से आगे गाड़ियाँ बिलकुल बंद है . एक जगह गाडी को खड़ा किया और पैदल चल पड़े जुहू तक जाने के लिए . हमें कम से कम डेढ़ दौ घंटे लगे इस पदयात्रा में . सड़कों पर कमर तक पानी था . लोग उंचाई की जगह पर कतारों में चल रहे थे . उसके दो कारण  थे - एक तो सड़कों के बीच का डीवाइडर   ऊंचा था , दुसरे उस पर चलने  से किसी गड्ढे में पैर फंसने का डर  नहीं था .

पटरियों पर रेंगता जीवन 
जैसे जैसे हम जुहू के पास पहुँचते गए पानी का स्तर  और ऊपर मिलता गया . घर तक हम पहुंचे करीब करीब छाती तक की ऊँचाई के पानी में . घर पहुँच कर पता चला की मेरी बेटी अपने मित्रों के साथ कहीं गयी हुई थी , और वो घर लौटी थी गर्दन तक के पानी में . हमारा मकान चार मंजिला है , हम रहते हैं पहली मंजिल पर ; निचला फ्लोर , हालाँकि  सड़क के स्तर से कम से कम 3 फुट ऊँचाई पर है , फिर भी मेरे मित्र शंकर के घर का सारा फर्नीचर पानी में डूबा पड़ा था .

मुंबई के विभिन्न इलाकों से पता चल रहा था , की लोग सड़कों पर डूब कर मर गए ; कालीना  में मकानों की पहली मंजिल तक पानी चढ़ गया ; एक अकेली बुढिया  जिसने घर की डाइनिंग टेबल पर शरण ली थी , वो पानी के धीरे धीरे बढ़ते रहने से घर में  डूब गयी  ; जुहू में दो बच्चे अपनी गाडी लोक कर के बैठे थे , गाडी का ऐ सी ख़राब हो गया ; और शीशे नीचे करने वाला इलेक्ट्रोनिक सिस्टम काम करना बंद कर दिया , दोनों बच्चे घुटन से गाडी में मर गए - न जाने कितनी घटनाएँ घटी उस दिन !

मेरे घर पर कुछ काम चल रहा था ; 3-4 मिस्त्री रात भर मेरे यहाँ ही रुके थे , पत्नी ने उन्हें भोजन करवाया था . और सबसे विचित्र बात ! इतनी बरसात में जब की सब कुछ बंद हो चूका था - बिजली , टी वी , फोन आदि - हम सबसे अधिक परेशान थे पानी के अभाव  से ! हैं न विचित्र बात ! मकान  के टैंक में पानी समाप्त हो चूका था . पानी चढाने वाली मोटर पानी में पड़ी पड़ी ख़राब हो चुकी थी . आस पास की दुकाने  बंद दी जहाँ पानी की बोतलें खरीद पाते . जब उस दिन कुछ भी कर पाना संभव नहीं था तो मैंने बैठ कर लिखना शुरू किया - एक छोटी सी कविता लिखी . जो इस प्रकार है -

ये कैसी बरसात 
ये कैसी बरसात 
जीवन देने वाली 
गिरी है बन के गाज 

निकले थे लोग 
घर से सुबह 
दिन भर के जीवन के लिए 
लौटे नहीं 
रातों को भी  
आशंकाएं मन में लिए 

काली  थी कैसी रात  
ये कैसी बरसात 
ये कैसी बरसात 




Saturday, July 7, 2012

सस्ती रोटी

भूख के समय पेट रोटी की गुहार करता है . और फिर ऐसी जगह जहाँ आप किसी अपने को हस्पताल में रख कर उसका इलाज करवा रहें हो , तो घर की रोटियां वहां कहाँ ? ऐसे में जो भी हस्पताल के बहार खाने को मिल जाता है उसे इंसान खाने को मजबूर होता है .


लेकिन रांची के राजेंद्र मेडिकल कॉलेज और हस्पताल में आने वाले लोगों के लिए बहुत बढ़िया साधन है - सस्ती रोटी का स्टाल ! सिर्फ दस रुपैये में 7 गरमागरम चपातियाँ , साथ में पेट भर आलू की मजेदार  सब्जी और फिर स्वच्छ बोतलबंद मिनरल वाटर की बोतल मात्र 6 रुपैये में . मरीज की खिचड़ी फोयल पेपर में पैक - सिर्फ 6 रुपैये में . 






मैं को हवाई बातें नहीं कर रहा . मेरी पिछली रांची यात्रा में मैं स्वयं देख कर आया इस समाज सेवा के प्रकल्प को . हस्पताल ने एक छोटा सा शेड दे दिया - जहाँ 4-5 महिलाएं बैठ कर रोटियां सकती रहती हैं . सब्जी बहुत बड़ी मात्र में दोनों समय बना कर रख दी जाती है . रोटी के काउंटर पर एक व्यक्ति हर समय तत्परता से रोटियां परोसने को खड़ा रहता है . 




ये सेवा उपलब्ध करवाने का श्रेय है श्री शत्रुघ्न लाल और श्रीमती सुशीला देवी गुप्ता को . उन्होंने न केवल ये प्रकल्प अपने प्रयासों से शुरू किया , बल्कि घाटा होता है , उसे वो अपना सौभाग्य समझ कर अनुदान के रूप में देते हैं . सिर्फ पैसा देने से कोई योजना नहीं चलती . समय देने वाले भी चाहिए . दोनों पति पत्नी नियम पूर्वक वहां का एक चक्कर लगाते हैं , खुद सारी  व्यवस्था को देखते  हैं . रोज दोनों समय सैंकड़ों भूखे व्यक्ति वहां तृप्त होकर जाते हैं . 





ये देश सर्कार के भरोसे नहीं चल रहा . ये चल रहा है - ऐसे सेवा भावी गुप्ता दम्पति जैसे लोगों के भरोसे।.  

Tuesday, July 3, 2012

कृष्ण लीला - एक लघु कथा

किशन अपने ड्राइंग रूम में टेलीविजन के  चैनल पर भजन सुन रहे थे . वाचमैन ने आकर कहा की कोई आपसे मिलने आये हैं . किशन ने झल्ला कर पुछा - ' नाम तो पूछते कि  कौन है !' बेमन से उठ कर किशन दरवाजे पर आये .सामने एक गरीब आदमी मैली कुचैली जींस पहने खड़ा था ; कई दिनों की बढ़ी हुई दाढ़ी  थी .

किशन ने कहा - ' यस ? क्या काम है ?'

आगंतुक दो पल एकटक किशन को देखता रहा और फिर बोला - ' किशन भैया , नहीं पहचाना ? मैं हूँ सुदामा ! सुदामा शर्मा , तुम्हारा होस्टल का मित्र ! '

किशन ने तुरंत पहचान लिया , एक बार चमक सी उठी उसकी आँख में ; लेकिन दूसरे  ही पल चेहरा बदल    गया . किशन ने कहा - ' आई डोंट रिमेम्बर एनी सुदामा ! सॉरी !' - ये कह कर गेट बंद कर लिया .

अन्दर से रुक्मिणी आई . बोली - ' कौन था जी ?'

किशन ने कहा - ' पता नहीं ; नौकरों का दोस्त होगा कोई ! मैंने कह दिया की ये समय नौकरों से मिलने का नहीं है . '

और इस तरह आज के समय की कृष्ण लीला समाप्त हुई !