नील स्वर्ग

नील स्वर्ग
प्रकृति हर रंग में खूबसूरत होती है , हरी, पीली , लाल या फिर नीली

Wednesday, December 31, 2014

ईमानदार बेईमान - एक लघु कथा


वास्तव में उसकी बहुत ऊंची पहुँच थी। अब सबको अपने बच्चे का दाखिला कराना होता है किसी अच्छे स्कूल में।  बच्चा कितना भी मेधावी क्यों न हो , आखिर स्कूल में सीटें तो सीमित ही होती हैं।  उसमे से फिर सिफारिशी कोटे में आधी तो यूँ ही निकल जाती है। इसलिए जो समझदार और पैसे वाले माँ बाप होते हैं वो खोजते हैं कोई ऐसा शख्श जो कुछ ले दे कर उनका काम पक्का करवा दे। थोड़ी बहुत पूछ ताछ के बाद वो पहुँच जाते थे - गुरुदेव के पास।

न, वो कोई शिक्षक नहीं था ; वो तो था एक बिचौलिया जिसकी ऊपर तक जान पहचान थी। हर व्यक्ति उसके पास जाता था क्योंकि वो ईमानदार था।  उसक पक्का नियम था - वो एक लाख रुपैये लेता था , वो भी अड्वान्स में। उसकी गारण्टी होती थी , की वो दाखिला करवा ही देगा ; लेकिन किसी कारण  से अगर वो दाखिला नहीं हुआ तो पूरा पैसा बिना किसी काट छांट के लौटा देगा।  वो अपनी बात का धनी था।  आज तक एक भी उदहारण ऐसा नहीं था , जहाँ उसने किसी का पैसा काम न होने पर नहीं लौटाया हो।

बात शिक्षा विभाग में ऊपर तक पहुँच गयी। विभाग ने एक इन्क्वायरी बिठाई।  इन्क्वायरी करने वाले इन्स्पेक्टर ने गुरुदेव को बुलाया और पूछा , कि  वो विभाग में किसे पैसे देता है। गुरुदेव ने कहा - किसी को नहीं। इन्स्पेक्टर उसके उत्तर से संतुष्ट नहीं था।  उसने फिर पूछा - फिर बच्चों का दाखिला कैसे होता है ? गुरुदेव ने कहा - प्रभु कृपा से ! इन्स्पेक्टर ने कहा - मतलब ?

गुरुदेव ने कहा - मैं जो भी केस हाथ में लेता हूँ , उसके लिए मंदिर में सवा रुपैये का प्रसाद चढ़ा देता हूँ।  जिनका दाखिला हो जाता है , उनके पैसे रख  लेता हूँ , जिनका नहीं होता ,उस बच्चे के माँ बाप को पैसे लौटा देता हूँ।

इन्स्पेक्टर सोचता रहा - ये शख्श  ईमानदार है या बेईमान !

Thursday, December 25, 2014

भारत रत्न



आखिर श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी को भारत सरकार ने भारत रत्न से विभूषित कर दिया। और अगर न भी करते तो क्या  ? क्या अटल जी का मूल्यांकन घट जाता ? क्या उनका अद्वितीय नेतृत्व , उनकी महान भाषण शैली , उनकी उदारवादी सोच और उनका विश्व से मैत्रीभाव रखने का दृष्टिकोण अपना प्रभाव खो देता ? सच्चाई ये है की अटल जी किसी ऐसे पुरष्कार की प्रतीक्षा नहीं कर रहे थे , बल्कि पूरा देश प्रतीक्षा  कर रहा था कि कब तक कोंग्रेसी सरकार निर्लज्जता से अटल जी  के इस राष्ट्रीय सन्मान से बचेगी। कांग्रेस की सरकार विलुप्त हो गयी ; आखिर भारत रत्न कहे जाने वाले पुरष्कार का उचित सन्मान हुआ।

नोबेल पुरष्कार देने वाली सभा आज तक महात्मा गांधी को शांति के लिए नोबेल पुरष्कार न दिए जाने की गलती पर खेद व्यक्त करती है।

२ जनवरी १९५४ को जब देश के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ने इस सर्वोच्च सन्मान की स्थापना की , तो शायद उन्होंने नहीं सोचा होगा की भविष्य में यह सन्मान किस प्रकार कांग्रेस के नेताओं की बपौती बन कर रह जाएगा। यहाँ सब सन्मान प्राप्त लोगों की चर्चा कर के मैं उनके देश के प्रति समर्पण को छोटा नहीं बनाना चाहता ,  हाँ उन लोगों की चर्चा जरूर करना चाहूंगा जिनका नाम आज तक इस  सन्मान के लिए क्यों नहीं लाया  गया।

देश को आजादी दिलाने वाले शहीदों की पूरी जमात इस सन्मान से वंचित रखी गयी है - वर्ना चंद्रशेखर आजाद , भगत सिंह , राजगुरु,  सुखदेव  छूट जाते ? १९९२ में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस को भारत रत्न सन्मान से सन्मानित किया गया किया गया , लेकिन बाद में उनकी मृत्यु के रहस्य को लेकर उनके मरणोपरांत पुरष्कार  की गुत्थी को लेकर  पुरष्कार स्थगित कर दिया गया।   क्या ये पुरष्कार उनके जिन्दा या मुर्दा होने से  सम्बंधित था ? या उनके  कार्यकलापों के लिए ?

 ये सच  है कि हर व्यक्ति को पुरष्कार नहीं दिया जा सकता ;  लेकिन ये भी सच है की अगर कामराज , एमजीआर और गुलजारी लाल नंदा भारत रत्न हैं तो श्री अटल बिहारी वाजपेयी उनसे कहीं बहुत अधिक भारत रत्न हैं ! और एक अंतिम प्रश्न ! नेल्सन मंडेला भारत रत्न कैसे हो गए ? न उनका जन्म भारत में  और न ही कार्यक्षेत्र भारत - फिर भारत कैसे उनपर अपना रत्न होने का दावा कर सकता है ?

कांग्रेसी राज में रत्नों का चुनाव भी कांग्रेसी पैमानों पर ही होता रहा है। 

Thursday, November 6, 2014

बचपन की चाहत - एक लघु कथा



एक दिन पोते ने जिद पकड़ ली कि  दादाजी उसको पार्क में ले जाएं. दादाजी शहर के गिने चुने खानदानी बड़े सेठों में शुमार होते थे। पोते के  सामने झुकना पड़ा।  अपनी बड़ी सी महँगी गाडी में वो पोते को लेकर गए। पार्क में काफी लोग थे।  एक तरफ बच्चों के झूले लगे थे।   पोता उस तरफ दौड़ा।  वो एक के बाद एक झूले पर बैठने  और झूलने लगा। आज दादाजी उसके साथ थे इसलिए वो अपने आप को को अन्य बच्चों से ज्यादा शक्तिशाली समझ रहा था।

एक झूले पर अपनी पारी समाप्त हो जाने के बाद वो तुरंत दूसरी पारी की जिद करने लगा।  अन्य बच्चों ने समझाया  बच्चे बारी बारी से झूले पर बैठ रहें हैं , इसलिए उसे फिर से लाइन में लग जाना चाहिए। जब वो नहीं माना तो सभी बच्चों ने उसे जबरन उसे वहां से हटा दिया। दादाजी को ये बात बहुत नागँवार गुजरी।

उन्होंने घर आकर अपना फरमान जारी कर दिया।   पोता उस सड़े हुए सरकारी पार्क में नहीं जाएगा। उन्होंने उसी समय एक झूले बनाने वाली कंपनी को बुला कर सभी झूलों का आर्डर दे दिया।  उनके बंगले के पीछे बहुत सारी जगह पड़ी थी।  वहां एक फुलवारी बनाकर सभी झूले लगवा दिए गए।  पोते के जन्मदिन पर वो पर्सनल पार्क पोते को भेंट कर दिया।

 दिन भर दफ्तर का काम निपटा कर दादाजी घर पहुंचे तो उन्हें पोता उदास सा दरवाजे पर बैठा पाया। दादाजी ने पूछा - ' क्यों भाई , आज जी  भर के झूला झूले या नहीं ?'

पोते ने कहा -' किसके साथ खेलूं ? मेरे सभी दोस्त तो वहां पार्क में हैं। '

दादाजी अपने सारे अनुभवों के उपरांत भी बचपन की चाहत को समझ नहीं पाये।


Monday, November 3, 2014

आज का दिन ( ऑक्टोबर ३१) - १९८४ में

आज का दिन बहुत विशेष है. आज सरदार वल्लभ भाई पटेल का जन्मदिन है।  इस विशेष अवसर की वास्तविक विशेषता को उजागर  किया है हमारे प्रधानमंत्री मोदीजी ने।   पूरे देश में आज का   दिन मनाया जा रहा है - एकता दिवस के रूप में।

 आज का दिन एक और महत्वपूर्ण घटना की याद दिलाता है। आज के दिन १९८४ में देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी  की हत्या उनके सुरक्षा कर्मियों ने दिन दहाड़े कर दी थी।

व्यक्तिगत - मेरे लिए भी  आज का दिन  महत्वपूर्ण है - क्योंकि आज मेरा भी जन्मदिन है।  १९८४ की एक घटना को याद करता हूँ।  उस वर्ष ईश्वर ने बहुत बड़ी कृपा की और मेरे पुत्र पराग का जन्म हुआ  २४ सितम्बर को। परिवार के लोग बहुत खुश थे , इसलिए हमने सभी रिश्तेदारों और मित्रों के लिए एक पार्टी का आयोजन किया - ऑक्टोबर ३१ यानी आज ही के दिन। इस पार्टी का स्थान हमने चुना फोर्ट विलियम गोल्फ क्लब का हाल तथा बगीचा।

फोर्ट विलियम भारतीय सेना के  अंतर्गत है , गैर सेना के लोगों को ये जगह वहां दी जाती थी , गोल्फ क्लब के  सदस्यों की सिफारिश पर।  इस शर्त पर की अगर सेना का  कार्यक्रम नहीं हुआ तभी वो जगह दी जायेगी।  हमने ३-४ हफ़्तों पहले ही वहां अड्वान्स देकर अपनी तारीख   सुनिश्चित कर ली थी। निश्चित दिन से  चार पांच दिन पहले मेरे पास फोर्ट विलियम क्लब से फोन आया - ' सर आपकी बुकिंग हमारे पास ३१ ऑक्टोबर शाम के  लिए है , लेकिन उस दिन अचानक एक डिफेन्स का कार्यक्रम तय हो  गया है , इसलिए हम आपको हमारी जगह नहीं दे सकेंगे। '

हमारे पार्टी के  निमंत्रण पत्र बंट चुके थे। लेकिन नियमों के आधार पर हम विरोध भी नहीं कर सकते थे। हमने पार्टी  एक दिन पहले यानि ३० ऑक्टोबर की रख दी।  सबको फोन पर सूचित करना पड़ा। ईश्वर की दया से हमारा कार्यक्रम अच्छी तरह संपन्न हो गया।

अगले दिन सुबह रेडियो और टीवी पर दुखद खबर  आई - ' प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या हो गयी। ' ३१ ऑक्टोबर  नहीं बल्कि  अगले हफ्ते भर तक कोलकाता शहर में कोई पार्टी या कार्यक्रम नहीं हुए।  क्या हुआ ये मेरे  पाठक जानते ही  हैं।

हर बात के पीछे कोई न कोई कारण छुपा होता है ;  है या नहीं ?

Monday, October 20, 2014

जिम्मेवारी - एक लघु कथा

हमेशा की तरह घर पहुँच कर उसने बीवी के हाथ में अपनी महीने भर की पगार रख दी और बोला - ' ये  लो दस हजार  रुपैये !' उसकी पत्नी छूटते ही बोली - ' दस हजार रुपैये ? क्यों ? तुम्हारी पगार तो पंद्रह हजार है ?'

उसने सफाई दी - ' हाँ , है तो पंद्रह ही , लेकिन सुबह माँ का फोन आया , कहने लगी बहुत तंगी है , दवाओं का खर्च बढ़ गया है ; सो मैंने पांच हजार उनको भेज दिए !'

बीवीजी का पारा सातवें आसमान पर चढ़  गया। बिफर कर बोली -' किसी तरह से तुम्हारी पगार में घर का खर्च चला रही हूँ।  इसमें से भी अगर तुम दान पुन में लग जाओगे तो मेरे बस का नहीं ये घर चलाना ! जिस लाड़ले बेटे के पास रहती है वही क्यों नहीं खर्च उठाता ? नहीं उठाता तो फिर ये हमारी जिम्मेवारी कैसे बन गयी ? '

उसने उसी नरमी से कहा - ' ये सच है की वो उसका खर्च नहीं दे रहा , इसी लिए  तो मेरे पास फोन आया था। जहाँ तक जिम्मेवारी का सवाल है , तो दामाद भी बेटे की तरह ही होता है , उस हक़ से उन्होंने फोन किया और उसी हक़ से ये हमारी जिम्मेवारी बनती है। '

बीवी जी को तो काटो तो खून नहीं।  आँखों से झड़ने वाली चिंगारी तरल आंसू बन कर झरने लगी।  कुछ क्षणों के लिए पतिदेव की आँखों में देखा और फिर गिर गयी उनके चरणों में।


Saturday, October 11, 2014

मन की बात

प्रधानमंत्री  मोदी ने कुछ दिनों पहले रेडियो पर  देश के लोगों को सम्बोधित किया। ये सम्बोधन अपने शीर्षक के अनुरूप उनके मन की ही बात थी। इस सम्बोधन में न  कोई राजनीति थी और न ही कोई चुनाव प्रचार।  लेकिन किसी व्यक्ति के  मन  की बात का सम्बन्ध उसकी कार्य शैली से कितना अधिक होता है , ये मैं आपको बताऊंगा। अगर आपने उनके मन की बात नहीं सुनी हो तो सुनिए इस लिंक के द्वारा -

Modi's Man KI Baat

अब मैं आपको बताता हूँ मेरे मन की बात। मोदी का ये प्रसारण था  3 ऑक्टोबर को। इस की एक बात जो मेरे मन को छू गयी वो थी - अपनी शक्ति को पहचाने। उन्होंने स्वामी विवेकानंद की एक कहानी का उल्लेख किया के एक शेरनी का एक बच्चा बिछड़ गया और भेड़ों के एक झुण्ड से मिल गया। उसकी  हरकतें धीरे धीरे भेड़ों जैसी हो   गयी।  फिर जब उसे  एक दूसरा शेर मिला उसने उसे अहसास दिलाया की वो एक शेर है भेड़  नहीं।

उस दिन मोदी की  ये बात एक सामान्य शिक्षा से अधिक  नहीं थी।

कुछ दिन पहले देश की सीमा पर पाकिस्तान ने बिना किसी कारण ही बमबारी शुरू कर दी। निहत्थे निरपराध नागरिक मारे गए। ऐसी घटनाएँ पहले भी होती रही है। लेकिन देश की पूर्व सरकार ऐसी घटनाओं को महत्व नहीं देती रही है। वास्तव में कांग्रेस  सरकार कुछ भी करने में विश्वास नहीं करती थी।  हमारी सीमा के  अंदर घुस कर देश के जवानों के सर काट कर उन्होंने सीमा पर फेंक दिए , विदेश मंत्री ने कहा हमें संयम से काम लेना चाहिए। चीन की फ़ौज हमारी सीमा  तक घुस आई , लेकिन हमारे विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद ने इसे कोई बड़ी बात नहीं माना।

हमें हमारी शक्ति का परिचय करवाया - मोदी ने।  पहले जब पाकिस्तान से आये  हुए पाकिस्तान के डेलीगेसन ने  सरकार की चेतावनी  को अनसुना देते हुए अलगाव वादी हुर्रियत नेताओं से बात चीत की , तो मोदी ने   बिना किसी वार्ता के उन्हें लौटा दिया।   नवाज शरीफ ने युएन ओ में भारत  के खिलाफ झूठ का पिटारा खोला तो मोदी ने पूरे विश्व के सामने  उसे सलाह दे दी की बातचीत करनी है तो पहले  अपनी आतंकवादी गतिविधियाँ बंद करो।

असली उत्तर पाकिस्तान  को मिला दो दिन पहले -  जब प्रधानमंत्री मोदी ने देश की फ़ौज को पूरा अधिकार दे दिया कि ईंट का जवाब पत्थर से दो।   पाकिस्तान के सीमावर्ती इलाकों में भारतीय सेना ने जो जबरदस्त जवाबी  हमला बोला ,  पाकिस्तान की सेना उलटी भाग खड़ी  हुई।  दो दिन की पूरी शांति बाद पाकिस्तान सही रास्ते पर आ  गया है ; भारत से बातचीत की फरियाद कर रहा है । सच है लातों के भूत बातों से नहीं मानते हैं।

सचमुच मोदी ने देश की जनता और सेना को अपनी स्वयं की ताकत से पुनः मिलवा दिया है। 

Tuesday, September 30, 2014

कश्मीर की विभीषिका - ईश्वर का फैसला

इस महीने कश्मीर को झेलनी पड़ी एक भयानक विभीषिका। एक बाढ़ - जिसकी कल्पना  कश्मीर वासियों ने सपने में भी नहीं की होगी। घरों के दुसरे तीसरे स्तर को जलस्तर पार कर गया।   न जाने कितने लोग मरे , न जाने कितने घर बहे ! लाखों लोगों को सेना के जवानों ने अपनी जान पर खेल कर बचाया। लाखों फंसे हुए लोगों तक सेना के विमानों ने खाद्य सामग्री को पहुँचाया। बूढ़ों, बीमारों, बच्चों और स्त्रियों को हेलीकॉप्टर से  कर उठाया गया।  एक अभूतपूर्व बाढ़ - और उतना ही अभूतपूर्व बाढ़ का मुकाबला।

जो हुआ वो बहुत बुरा हुआ।  लेकिन मैं इस घटना को एक आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखता हूँ। मुझे इसमें परिलक्षित  का एक बहुत बड़ा फैसला ! एक ऐसा फैसला जो भारत की आजादी  आज तक उलझा हुआ था। पाकिस्तान ने धर्म के आधार पर कश्मीरियों  एक उलझन दाल रखी  थी - की कश्मीर को पाकिस्तान का हिस्सा होना चाहिए।   वो बार बार मांग उठाते रहें हैं की कश्मीर वालों को ये फैसला करने का मौका दिया जाना चाहिए। कल भी यू एन ओ में पाकिस्तान के राष्ट्रपति नवाज शरीफ ने अपना पुराना  राग दोहराया है की कश्मीर में प्लेबीसाईट ( स्वयंनिर्णय ) करना चाहिए।

कश्मीर के लोगों को इस बाढ़ से बहुत सी बातें सीखनी चाहिए।   ईश्वर  ने उन्हें इस बाढ़  माध्यम से कई सन्देश दिए हैं।  वो सन्देश इस प्रकार हैं -

१. घर से बेघर होने का दुःख क्या होता है - उन्हें कश्मीरी पंडितों के निष्कासन की पीड़ा समझनी चाहिए।

२. बार बार सेना की मौजूदगी से परेशान हर कश्मीरी -  इस बाढ़ में सेना के  आने की आशा में टकटकी लगाये बैठा था।  उनके प्राणों की रक्षा कर रही थी भारतीय सेना।

३. भारत की सरकार   ने कश्मीर के लिए क्या किया और पाकिस्तान की सरकार ने पाक अधिकृत कश्मीर के लिए क्या किया - ये विषय कश्मीरियों के लिए सोचने का है।

४. कश्मीर की विभीषिका  पूरे देश के सभी प्रान्त कश्मीर की सहायता   में जुट गए।  पंजाब में सिखों ने लाखों लोगों का भोजन बनवा कर प्रतिदिन भिजवाया।  मुंबई के गुजराती समाज ने समाज ने लम्बे चलने वाले थेपलों के पार्सल भिजवाये। राज्य सरकारों ने आर्थिक मदद भेजी। प्रधानमंत्री मोदी ने तो जैसे केंद्र का खजाना ही खोल दिया।

अब देखें अब देखें कश्मीर के खैरख्वाह बनने वाले हुर्रियत के नेताओं  अलगाववादी संघठनों ने क्या मदद की। आलम ये है की किसी भी  सूरत तक नजर नहीं आई कश्मीर वासियों की।  दोहरी   चाल चलने वाले ओमर अब्दुल्ला भी बहानेबाजी के अलावा कुछ नहीं कर पाये।

५. अभी तक तो मुकाबला था विभीषिका से ! अब सामने आएगी पुनर्वास की समस्या ! फिर एक बार काम आएगा उनका अपना मुल्क - भारत।

हँसता खेलता जामु कश्मीर पूरे देश की आँख का तारा  हुआ करता था।  पूरे कश्मीर की गुजर बसर  और विश्व के पर्यटकों से।  अमरनाथ यात्रा और वैष्णोदेवी  भक्त  कश्मीर की आर्थिक सम्पन्नता  बनते थे। पाकिस्तान ने क्या दिया - अशांति , आतंकवाद और अलगाव। कश्मीर का जीवन दूभर कर   दिया इस बेसिरपैर के पाकिस्तानी ख्वाब ने।


समय है हर कश्मीरी  के लिए स्थिति का जायजा लेने का और खुल कर दुनिया भर को सन्देश देने का कि



  -  कश्मीर भारत का एक अभिन्न अंग है और हमेशा रहेगा।








Sunday, August 31, 2014

धर्म गुरु का धर्महीन प्रस्ताव


लगता है शंकराचार्य  स्वरूपानंद को मिडिया में बने रहने का नया चस्का लग गया है। उनका साईबाबा वाला वक्तव्य अभी तक  गरम था। इसी बीच  उन्होंने एक धर्म संसद नाम की बैठक में एक नया सगूफा छोड़ दिया। उन्होंने कहा की हिन्दू मैरेज एक्ट में एक बदलाव किया जाना चाहिए। हिन्दू पुरुष को दूसरे विवाह की अनुमति दी जानी चाहिए। इसके पीछे उन्होंने एक तर्क दिया की यदि स्त्री सन्तान पैदा करने में सक्षम न हो तो उसके पति को सन्तान प्राप्ति के लिए  दूसरी शादी करने की छूट मिलनी चाहिए।

 उनके इस बयान पर एक हड़कम्प सा मचा तो उन्होंने टेलीविजन के सामने दूसरा तर्क रखा - ' प्रधानमंत्री मोदी जी देश में यूनिफार्म सिविल कोड लाने की बात करते हैं तो जब एक मुसलमान को चार  पत्नियाँ रखने का  अधिकार है तो फिर हिन्दू को दो पत्नियाँ  रखने का अधिकार क्यों नहीं ?'

ये सोच है देश के सबसे बड़े धर्मगुरु होने का दावा करने  वाले शंकराचार्य की  !  बात बात में वेदों की दुहाई देने वाले ये महापुरुष भूल गए की विवाह संस्कार की प्रतिज्ञाओं में से एक प्रतिज्ञा वर ये भी करता है कि  मैं तुमसे विवाह के पश्चात किसी और स्त्री की तरफ नजर उठा कर देखूँगा भी नहीं। क्या  प्रतिज्ञा में ऐसा कोई मन्त्र वेदों में लिखा है कि  अगर तुम मेरे लिए संतान उत्पन्न करने में अक्षम रही तो फिर ये प्रतिज्ञा लागू नहीं होगी ?

आदरणीय शंकराचार्यजी ! जहाँ तक आपके तर्कों का सवाल है तो मेरे भी कुछ सवाल हैं , उत्तर देवें -

१. क्या आप वही अधिकार स्त्रियों को भी देंगे ? यदि कोई पुरुष सन्तान उत्पत्ति में सक्षम नहीं हो तो क्या एक स्त्री अपनी मातृत्व की इच्छा पूर्ति के लिए अपने पति के रहते हुए कोई दूसरा विवाह कर सकती है ?

२. यदि दूसरी पत्नी भी सन्तान देने के लिए अयोग्य हुई तो क्या तीसरी , चौथी , पांचवी शादी का भी प्रावधान चाहिए ?

३ . यूनिफार्म सिविल कोड में मुसलमानों  की बराबरी करने के लिए तो चार पत्नियां रखने का प्रावधान  चाहिए , क्या हम  मांगों को अलग अलग काल-खंड  (फेज) में रखेंगे ?

४. क्या हम हिन्दू मुसलमान बनने की प्रक्रिया में चल रहें हैं ?

आदरणीय धर्मगुरुजी ! विश्व जब विकट असांस्कारिक दौर से गुजर  रहा है ,  उस वक़्त क्या हमारी धर्म संसद के पास कोई और विषय नहीं था।  हर रोज का अखबार भरा रहता है बलात्कार की ख़बरों से - क्या आपको ये जरूरी नहीं लगा  पीढ़ी में इस अपराध भावना को दूर करने के लिए कोई बदलाव किये जाने चाहिए।

विवाह नाम की   संस्था क्षीण होती जा रही है।  शादियां होने के साथ साथ टूट रही हैं , इस प्रवृति को ठीक करने के लिए क्या कोई प्रस्ताव नहीं बन सकता था आपकी संसद में ?

संतान विहीन लोगों को क्या अनाथ बच्चों को गोद लेकर अपने कुल का नाम नहीं बढ़ाना  चाहिए ?

अगर कोई ढंग का प्रस्ताव नहीं था तो न सही , लेकिन ऐसे बेसिर पैर के विचारों को वाद विवाद में लाकर आपने कहीं अपनी प्रतिष्ठा को ही दांव पर लगाया है।

आज का पढ़ा लिखा हिन्दू समाज आपके इस चिंतन को पूरी तरह नकारता है !



Wednesday, July 2, 2014

एक पाकिस्तानी महिला की पीड़ा

I AM ASHAMED OF BEING A PAKISTANI
Jinnah made a mistake
Mahwash Badar
Karachi, Pakistan

"...to every single person who defends their patriotism blindly and their religion with a bullet, I hope you know exactly whose side you are on. I hope you sleep well at night knowing that you are on the side of the murderers." 
 
May 12, 2014
 
Jinnah made a mistake and I am ashamed of being Pakistani 
 
Mahwash Badar
Karachi, Pakistan
Well, one brave lady has dared to challenge the crook establishment of radical/murderous islamist in Pakistan.
 
Anyone who has ever traveled abroad will tell you that no matter where you go, no matter how developed the country it is that you're traveling to, if you are a British national or a Caucasian American, the doors become friendlier. The security becomes less pressurizing. Visa queues are shorter. Procedures are simpler.
 
If you're a brown Pakistani man (or even woman) who is travelling to another country, that's a whole other story. You're working in the Middle East, chances are your salary is just a little bit above the basic working wage or anything that will get you a bed-space with seven other human beings. Respect is minimal. 
 
You're not supposed to ruffle any feathers. Or demand for rights. Your children are thousands of miles away studying (because you can?t afford education for them here), your wife probably has another job to help make ends meet and your job squeezes every drop of your blood into a tiny container that helps build the skyscrapers and that little container is thrown away quicker than you can say "burj", as soon as your company decides to say bye bye.
 
Pretty much the equivalent of, well, I don't know. What is that the equivalent of? What analogy do I draw to represent the utter misery that is being a Pakistani in this super-power dominated world?
 
As if the current state of the country, what with its years of dictatorship and lack of infrastructure, hasn't driven us insane enough, there is the added bonus of inviting religious extremists and letting them destroy everything we hold near and dear. Sure, apologists will reason it saying "this is not true Islam" and what not. But my question is when, seriously, when do we set aside the debate of what is true Islam and what isn't?
 
Let the clerics and the religious scholars sit in their mosques and minibars, oh I meant minbars. But once and for all, eliminate and annihilate the savage, beastly, cowardly, immoral men who buy the bodies of fragile, poverty-stricken, desperate men, strap them with explosives and send them into markets with innocent women and children. Finish these abhorrent elements in the society that attempt to throw us back to the Stone Age.
 
A recent article in the New York Times reported on the World Health Organisation (WHO) declaration of the polio emergency in Pakistan.
 
Last year, a polio worker was killed in Peshawar, as well as another who was shot dead in Khyber Agency. Several were kidnapped in Bara. In January this year, gunmen killed three health workers taking part in a polio vaccination drive in Karachi. Not Kabul. Not Sierra Leone. Not Riyadh. Karachi. 
 
My heart boils and burns as more devastating news and reports flood the channels. The New York Times article further stated that according to a report, the highest refusal rates for polio vaccination were recorded in wealthy neighbourhoods of Karachi because they had little faith in public health care. In North Waziristan, the Tehreek-e-Taliban Pakistan (TTP) have forbidden vaccinations since years. Pakistan thus has 59 polio cases to report, the most of any in the world.
 
Being a mother, it scares me. It keeps me awake at night. It reminds me that even if I run far far away from the borders of my own land, its demons will continue to haunt me and my future generations. I Google "Pakistan" on the news and everything that is reported is about death, destruction, squabbling politicians, ailing children, extremists blowing up things and a struggling economy.
 
I raise my eyes to our neighbouring country and see what could have happened if we were still a United India. Maybe we would have been polio free too. We would have been a unified part of a process of being the world's next big force to reckon with. Of being a part of the next blazing economy.
 
I find myself deeply wishing that Jinnah hadn't made this mistake, that he had thought about the future of Pakistan. He didn't think of the obscurantist mindset that he had propelled forward, the countless millions that died at the hand of this vague agenda that fails to unite us as a nation. I look at the years of struggles that Pakistan faces, the fall of Dhaka, the provincial wars, the stark separatist mindsets and I wonder what Mr Jinnah was thinking when he decided to leave the Indian National Congress (INC).
 
We share more with our Indian brothers than our ancestral DNA. Our food, language, clothes, lifestyles are more like them than the Arabs we so badly want to mimic and ape. I stare at the green passport with the same self-loathing as the fat 16-year-old girl with pimples on her face who is told that she cannot get married because she will always be blind, diseased and fat and her elder, stronger, prettier, better-educated sister will snag all the good catches because she ended up with the better caretaker after the divorce of their parents.
 
  I am ashamed of being a Pakistani today. 
  I am ashamed that I belong to a country that kills human rights lawyers and sitting governors, and issues death threats to university professors. 
  I am ashamed that we believe in spaghetti monster theories and pie in the sky conspiracies and risk the future of our children. 
  I am ashamed that we have rejected our scientists just because they believe in a different dogma. 
  I am ashamed that we cannot protect our women, we cannot protect our children and we cannot protect our men from the evil that is extremism, fundamentalism and the foolhardy idea that Pakistan is a great nation.
   I ashamed that women have no choices in life honor killing is rife in Pakistan
 
Pakistan is a fledgling, flailing state. 
 
And those 59 children, whose legs can never work anymore, the family of Raza Rumi's driver, those who shed tears for Salman Taseer, for Perveen Rehman, for Rashid Rehman, for Dr Murtaza Haider and his 12-year-old son, every single person who went out to have a normal day and never made it home alive, are all paying the price of the empathy, respect and awe YOU show cowards like Mumtaz Qadri.
 
So, to every single person who defends their patriotism blindly and their religion with a bullet, I hope you know exactly whose side you are on. I hope you sleep well at night knowing that you are on the side of the murderers.
Mahwash Badar

Saturday, June 28, 2014

भगवान कौन ?


आजकल देश में एक नया विवाद खड़ा हो गया है। ज्योतिष व द्वारिका-शारदा पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने  शिरडी के साईं बाबा को अवतार मानने से इन्कार कर दिया है।उन्होंने कहा, "साईं भक्ति अंधविश्वास के सिवाय कुछ नहीं। साईं के मंदिर बनाकर पूजा-अर्चना सनातन धर्म के विरुद्ध है। इससे हिंदू समाज के बंटने का खतरा पैदा हो गया है। साईं हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रतीक नहीं हैं। जिन लोगों को धर्म का ठीक प्रकार से ज्ञान नहीं है, वे साईं भक्ति की बात कह रहे हैं। अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कुछ लोग इस तरह के अंधविश्वास को बढ़ावा दे रहे हैं।
शंकराचार्य ने कहा कि वेद-पुराणों में कहीं भी साईं के अवतार का उल्लेख नहीं किया गया है। कुछ लोग मंदिरों व घरों में साईं की मूर्ति लगा रहे हैं, यह भगवान की आराधना नहीं है। सनातनी परंपरा में सभी देवताओं के मंत्र और यंत्र हैं।
लो साहब ! शंकराचार्य ने जैसे कोई विवाद का बंद पड़ा पिटारा ही खोल दिया है। महंतो , पंडों , तथाकथित हिन्दू धर्म के विद्वानों के दो भाग गए।  कुछ साईं अर्चना के पक्ष में और बाकी विपक्ष में। टेलीविजन चैनेल को तो TRP  चाहिये। बस भिड़ा दिया दोनों पक्षों को।  टेलीविजन पर आने  का मौका कोई छोड़ने को तैयार नहीं। हंसी आती है हिन्दू समाज के इन ठेकेदारों के इस वाद विवाद पर। भगवान को पारिभाषित करने की हौड़  है। एक ही सांस में ये ज्ञानी पुरुष वेद और पुराण को एक ही तराजू पर तौलते हैं।  
सच्चाई ये है कि  इंसान भगवान को खोजता है - इंसानों में , चमत्कारों में , अनहोनी में। और दूसरी सच्चाई ये है की ईश्वर इनमे से किसी में भी नहीं है। राम , कृष्ण, ईशा मसीह , पैगम्बर मुहम्मद हो या फिर साईं बाबा - ये सभी इंसान के रूप में ही परिभाषित होते हैं ; सम्भवतः विशिष्ट इंसानों के रूप में; लेकिन भगवान किसी भी तरह से नहीं  सकते। इनकी मूर्तियां तो कत्तई नहीं !
 चमत्कार या अनहोनी भी भगवान  नहीं होते।  वास्तव में चमत्कार अनहोनी कुछ होते ही नहीं ;  वो घटनाएँ हैं जिन्हे अपनी अल्पज्ञता के कारन इंसान कभी समझ ही नहीं पाता।  एक ऐसे व्यक्ति के लिए जो सभ्यता से दूर कहीं जंगल में पैदा हुआ हो और बड़ा हुआ हो -  उसके लिए गाडी , रेल, टेलीविजन , बन्दूक सब कुछ चमत्कार  है। इंसान जो कुछ समझ नहीं पाता  उसे वो बातें चमत्कार या अनहोनी लगती है। 
फिर भगवान है क्या ? भारत में एक सन्यासी हुआ था - स्वामी दयानंद सरस्वती। जब उसका विश्वास शिवलिंग पर  स्वतंत्रता से दौड़ते , गन्दगी फैलाते चूहों को देख कर शिवलिंग के ईश्वर होने की आस्था से डोल गया , तो उसने सच्चे ईश्वर की खोज शुरू की। घर त्याग दिया।  देश भर में घूमता रहा। सारे उपलब्ध ग्रन्थ पढ़ डाले। विभिन्न मतों के गुरुओं से शास्त्रार्थ किया। और अंत में अपने सारे ज्ञान  का निचोड़ निकाला। और उस निचोड़  में से निकली ईश्वर की परिभाषा।  और वो परिभाषा कुछ ऐसी थी - 
" ईश्वर सच्चिदानंद स्वरुप , निराकार , सर्वशक्तिमान , न्यायकारी , दयालु, अजन्मा ,अनंत , निर्विकार , अनादि , अनुपम , सर्वाधार , सर्वेश्वर , सर्वव्यापक ,सर्वान्तर्यामी , अजर , अमर , अभय ,नित्य , पवित्र , और सृष्टिकर्ता है , उसी की उपासना करनी योग्य है। " 
मेरी दुनिया भर के हर धर्म के पंडित , विद्वान , मौलवी , आर्च-बिशप , गुरु और धर्माचार्यों से अनुरोध है कि  वो इस परिभाषा में दिए गए २० विशेषणों में से किसी भी एक को गलत सिद्ध कर दें ; या फिर कोई एक नया विशेषण जोड़ दें , जो इन बीस विशेषणों में निहित  न हो। और अगर ये दोनों बातें संभव न हो तो फिर स्वामी दयानंद कृत  ईश्वर की इस परिभाषा को परम सत्य मान लें। और एक बार ऐसा मान लिया तो  सारे प्रश्न अपने आप हल हो जाएंगे। 
इस परिभाषा की कसौटी पर तौलें हर उस  व्यक्ति को जिसे वो भगवान  मानने का आग्रह करते हैं - समाज के ये धर्माधिकारी। उत्तर स्वयंसिद्ध होगा !  


Friday, June 27, 2014

मोदी सरकार का एक महीना


एक दिलचस्प किस्सा सुनाता हूँ।  एक दिन मेरे साले के बेटे सिद्धू  ने अपने दादाजी  से जिद की कि उसे एक ख़ास किस्म की गाडी चाहिए।  सिद्धू छोटा बालक ही था। दादाजी  ने टालने के लिए कहा - बेटा ,  बहुत महंगी आती हैं ,  अपने पास इतने पैसे नहीं हैं ; इसलिए पहले पैसे और कमा लेते  हैं।  जब इतने पैसे हो जाएंगे तब ये गाडी खरीद लेंगे। शाम को दादाजी दफ्तर से लौटे तो सिद्धू प्रतीक्षा कर रहा था। आते ही गोद में   चढ़ गया।  पूछा - दादाजी पैसे कमा लिए क्या ?  सुबह शाम वो पूछने लगा - दादाजी पैसे कमा  लिए क्या ?

ये तो  बात हुई - एक छोटे बच्चे की ! लेकिन उससे भी ज्यादा नादान वो लोग हैं जो दिन रात नरेंद्र मोदी से प्रश्न करते हैं -  कहाँ गए आपके अच्छे दिन ? दस साल की गन्दगी कोई एक महीने में साफ़ नहीं होती।  और इस सफाई से निकलने वाली दुर्गन्ध को भी सहना पड़ेगा।  समय हर काम में लगता है।  सुगंध फैलाने के पहले दुर्गन्ध को निकालना जरूरी होता है।

अगर एक डॉक्टर एक गंभीर बीमारी से जूझ रहे मरीज से कहता है की मेरे इलाज से तुम कष्ट से मुक्त हो जाओगे , तो उस मरीज को इंजेक्शन , सर्जरी और कड़वी दवा को लेने की तैयारी करनी पड़ती है। मरीज ये शिकायत नहीं कर सकता कि डॉक्टर आपने तो कहा था की आप मुझे कष्ट से मुक्त  देंगे , लेकिन आप तो मुझे और भी कष्ट दे रहें हैं।

कांग्रेस पार्टी अगर मोदी से सवाल करती है ,  ये उनकी बेशर्मी के सिवा  कुछ नहीं ! देश उनके ही कुकर्मों को भुगत रहा है।



Monday, June 9, 2014

ऐसे होते हैं अच्छे दिन !

मोदी जी ने कहा था - अच्छे दिन आने वाले हैं ! पूरा देश कह रहा है - अच्छे दिन आने वाले हैं ! लेकिन अच्छे दिन कैसे होंगे , आम आदमी के जीवन में उसका क्या प्रभाव होगा - आइये इसकी चर्चा करें !

 अपनी ही बात करता हूँ।  मेरा ट्रांसपोर्ट सेवा का व्यापार है।  व्यापार में अपने ग्राहकों को उधार देना पड़ता है। मेरा एक ग्राहक एक बहुत बड़ी कंपनी है ,  सरकारी और निजी क्षेत्र के लिए बड़े बड़े कारखाने और अन्य प्रकल्प लगाती है।  हमारी सेवा उसमे लगती है , उनकी बड़ी बड़ी मशीनों और अन्य वस्तुओं का परिवहन करने में।  २०११ से उन्होंने मेरा भुगतान बंद कर दिया , २०१२ से मैंने उन्हें सेवाएं देना बंद कर दिया। जब काफी कोशिशों के उपरांत भी पैसा नहीं मिला , तो मैंने अदालत का दरवाजा पकड़ा। मैंने अपने मूल धन के अलावा ब्याज का भी दावा कोर्ट में कर दिया।

अदालतों में फैसले बहुत समय लेते हैं।  मेरा मुक़दमा भी मंथर गति से चल रहा है।  दो दिन पहले मेरे पास मेरे ग्राहक के दफ्तर से फोन आया और उन्होंने मुझे बात चीत के लिए बुलाया। उनके सर्वोच्च अधिकारी ने मुझसे मुलाकात की।  सबसे पहले उसने मुझसे क्षमा मांगी  और कहा की उनकी कंपनी शर्मिंदा है की इतने लम्बे समय से वो पैसा नहीं दे पा रही थी।  उसने मुझे अपने कारण  बताये . कारण  ये था की उनके कई बड़े बड़े प्रकल्पों में उनका पैसा फंस गया था ,  उन्हें  ग्राहकों से पैसे नहीं मिले थे।  उनके ग्राहकों के पैसे न देने का कारण  था , कांग्रेस सरकार का पर्यावरण मंत्रालय , जिसने बहुत आगे बढ़ चुके प्रकल्पों पर पर्यावरण के नाम पर पाबंदी लगा दी थी। लेकिन अब स्थिति बदल रही थी ;  प्रकल्प आगे बढ़ने लग गए थे।  ग्राहकों से पैसे मिलने शुरू हो गए थे , इसलिए वो चाहते थे की हमारे पैसे भी कुछ किस्तें बना कर चुका  दिए जाएँ। उन्होंने मुझसे ब्याज और मूल में  भी कुछ छूट मांगी।  मैंने पैसों  की आशा में उनकी बात मान ली।  एक दस्तावेज बन गया , जो अदालत में पेश करके केस को समाप्त करने का निर्णय हो गया।

 इतना ही नहीं उन्होंने मुझसे सेवाएं पुनः शुरू करने का अनुरोध किया , जिस पर मैं विचार कर रहा हूँ।

और कैसे होते हैं अच्छे दिन ?

Wednesday, June 4, 2014

दिल की बात

मित्रों ने इन दिनों कई बार शिकायत की - क्या महेन्द्र भाई , देश में इतना सब कुछ चल रहा है और आप का ब्लॉग बिलकुल खामोश बैठा है। शिकायत दुरुस्त भी है ; मार्च २० से लेकर आज मई २५ के बीच मैंने कुछ नहीं लिखा। मेरा स्पष्टीकरण दूँ !

ऐसा नहीं है के इस बीच में मेरे पास लिखने को कुछ था नहीं ; बल्कि सच्चाई ये है कि  गत दो महीने का काल इतना गतिशील और घटनाओं से पूर्ण था कि  एक दिन में मैं चार चार बार भी लिखता तो घटनाक्रम को पकड़ नहीं पाता।  हर दिन का अखबार जैसे इतिहास का एक एक पन्ना बनता जा रहा था।

चुनाव का माहौल तो देश में पिछले ६ महीने से ही रहा है ; लेकिन चुनाव किस तरफ जा रहा था ये कहना बड़ा मुश्किल था।  ख़ास कर , पिछले दो लोक सभा के चुनावों के परिणाम देखते हुए , इस देश के मत दाताओं का मन पढ़ना बड़ा मुश्किल था। सभी दल  अपने अपने प्रचार में लगे हुए थे।  कभी सत्ताधारी कांग्रेस का पलड़ा भारी लगता , तो कभी सत्ता के अन्यायों से लड़ती भारतीय जनता पार्टी का ; कभी लगता की नवजात आम आदमी पार्टी देश के चुनाव का गणित बदल कर रख देगी , तो कभी ऐसा लगता कि मजबूत क्षेत्रीय दल शायद कोई तीसरा मोर्चा बना कर बना कर सत्ता हथिया लेंगे।  ऐसे में दिल  अपने अंदर की बात कहने या लिखने में भी डर लगता था।  ये कहना कितना हास्यास्पद होता कि देश में भारतीय जनता पार्टी श्री नरेंद्र मोदी  नेतृत्व में पूर्ण बहुमत प्राप्त करेगी।

चुनाव की बिसात पर हर राजनैतिक दल मोहरों की तरह होता है ; जनता सांस थामे हर मोहरे की चाल को पहचानने की कोशिश करती है।  राहुल गांधी इस बिसात पर उस दिन पिट गए जिस दिन उन्होंने अर्णव गोस्वामी को टाइम्स नाऊ चैनेल को इंटरव्यू दिया।  प्रबुद्ध जनता , तमाम मिडिया और सभी प्रतिद्वंद्वी दलों ने राहुल के नेतृत्व को शुन्य समझ लिया ; दुर्भाग्य कांग्रेस का था कि दिग्विजय सिंह जैसे लोगों ने सोनिया  गांधी की आँखों से अंधी ममता की पट्टी हटाने की जगह सच्चाई से दूर रखने वाला काला चश्मा और लगा दिया।

आम आदमी एक बहुत बड़े परिवर्तन के रूप में देश में आई थी। अन्ना हजारे के आंदोलन की रेल पर सवार होकर अरविन्द केजरीवाल दिल्ली के चीफ मिनिस्टर की सीट तक पहुँच गए ; एक ऐसी पार्टी की मदद से जिसके भ्रष्टाचार की दुहाई वो पिछले २-३ सालों से दे रहे थे। ४९ दिनों तक सस्ती लोकप्रियता हासिल करने की कोशिश के बाद अरविन्द ने बिलावजह दिल्ली की विधान सभा से हाथ झाड़ लिया। अरविन्द को लोकसभा की सीटों का आकर्षण खींच कर ले गया। सीधे छलांग लगा दी प्रधानमंत्री की कुर्सी के लिए। नरेंद्र मोदी से लड़ने का निर्णय ले लिए।  कोई अपनी बहादुरी जताने के लिए सीधा पहाड़ से टकरा जाए , तो उसे बहादुरी नहीं मूर्खता ही कहेंगे। इस चुनाव के साथ आम आदमी पार्टी और अरविन्द केजरीवाल दोनों का महत्व इस देश की राजनीति में शुन्य हो गया है।

जैसा चुनाव प्रचार नरेंद्र मोदी ने किया , ऐसा लगा की देश के प्रत्येक व्यक्ति से उन्होंने उसके दिल की बात की। चुनाव के नतीजे इस देश का सारा इतिहास भुला कर ऐसी दिशा में मुड़  गए हैं - जिसके आगे बस अच्छे दिन ही आ सकते हैं।

जय नरेंद्र मोदी ! जय जनता ! जय भारत !


एयर इंडिया

अच्छा समय आने वाला है ; मोदीजी की आशावादिता पूरे भारत पर भले ही लागू हो सकती है , लेकिन एयर इंडिया पर नहीं।  '  हम नहीं सुधरेंगे '- के सिद्धांत पर अडिग है एयर इंडिया ! आप सोचेंगे की बिना मौसम बरसात की तरह मैं क्यों आज एयर इंडिया के पीछे पड़ा हूँ।  लीजिये मेरा ये अनुभव पढ़िए और फिर आप तय कीजिये कि कौन किसके पीछे पड़ा है .

कुछ दिनों  पहले एक कॉन्फरेंस के लिए चेन्नई गया था। अगले दिन शाम को वहां से हैदराबाद जाना था।  मेरे बच्चों की मुझे सख्त हिदायत दे रखी है कि कोई  टिकट न मिले तो यात्रा रद्द कर देना लेकिन एयर इंडिया से मत जाना। लेकिन मैंने अपनी मूर्खता का सहारा लेते हुए इस लिए एयर इंडिया की टिकट खरीद ली थी , क्योंकि वो दूसरी एयर लाइन से काफी  सस्ती थी। मैंने सोचा की यात्रा पूरी होने के बाद बच्चों को बताऊंगा कि तुम्हारी बात न मान कर मैंने कितने पैसे बचाये।

एयरपोर्ट पहुँच कर चेक इन किया तो पता चला की फ्लाइट अपने निर्धारित समय ५ बज कर २० मिनट पर उड़ने वाली है। ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा।  मन ने कहा - आखिर अच्छे दिन आ गए हैं। समय पर बोर्डिंग की घोषणा हो गयी। बस में बैठ कर जब विमान के पास पहुंचा तो पूरा विश्वास  हो गया की अब सब कुछ सही चल रहा है। हमसे पहले एक और हमारे बाद एक और यात्रियों से भरी बस आकर खड़ी  हो गयी. बस यहीं से शुरू हो गयी वही पुरानी वही कहानी - एयर इंडिया स्टाइल।

१५-२० मिनट तक खड़े रहने के बाद भी किसी ने आकर बस का दरवाजा खोलने का निर्देश नहीं दिया।  एयरपोर्ट के अंदर की बसों में बैठने   सिर्फ ८-१० सीटें ही होती है , बाकी २०-३० यात्री किसी तरह से फंस कर  खड़े रहते हैं। लगातार एक ही स्थान पर इतनी देर  तक खड़े खड़े लोगों का गुस्सा बढ़ना शुरू हुआ।  स्थिति को भांप कर एक वयोवृद्ध महिला ( एयर इंडिया में सभी वयोवृद्ध ही होते हैं ) बस में आई , उसने कहा - प्लेन में कोई टेक्नीकल स्नैग होने की वजह से ये विलम्ब हो रहा है।  मैंने कहा - मैडम , क्या बोर्डिंग की घोषणा करने के पहले आपके यहाँ टेक्नीकल चेक पूरी करने का प्रावधान नहीं है। दुसरे अगर ऐसी  समस्या है तो यात्रियों को इस प्रकार अमानवीय तरीके से बसों में भर कर रखने का क्या औचित्य है। देवीजी ने आश्वासन दिया कि दस मिनट के अंदर समस्या दूर हो जायेगी और सब से शांति बनाये रखने का अनुरोध किया। दस मिनट में समस्या तो नहीं सुलझी लेकिन देवीजी ने घोषणा कर दी की ये विमान अब नहीं जाएगा , इस लिए सभी को वापस टर्मिनल बिल्डिंग में जाना है।

वहां पहुँच कर कहा गया की आप अपने बोर्डिंग पास नए ले लेवें।  विकल्प की व्यवस्था होने पर ले जाया जाएगा। यह भी कहा गया कि जो यात्री न जाना चाहें , अपनी टिकट कैंसल करवा सकते हैं। मैं असमंजस में था तभी घोषणा हुई की यह यात्रा अब रात  ९ बजे होगी। यह सुनकर मैंने मन बना लिया की अब नहीं जाना इस विमान में। ९ कह रहें हैं बाद में फिर कितना और विलम्ब कर दें। मैंने पता किया दूसरी एयरलाइंस में। हैदराबाद जाने वाली सभी फ्लाइट जा चुकी थी। मैंने सोचा की अब चेन्नई में होटल का पैसा चुकाने से अच्छा है , की अपने घर मुंबई चलें।  एक बहुत महंगी टिकट मिली स्पाइस जेट में। वो लेकर मैं गया एयर इंडिया के काउंटर पर। मैंने कहा मेरी टिकट कैंसल कर दीजिये , और मेरा सामान वापस मंगवा दीजिये।

देवीजी ने कहा - आप क्यों कैंसल करना चाहते हैं , अब हमारा विमान ठीक हो गया है और थोड़ी देर में उड़ सकेगा। मैंने अपना सर पीट लिया. मेरी स्पाइस जेट की टिकट कैंसल होने की सीमा के बाहर  थी। मैंने गुस्से में कहा - देवीजी , आप लोग खुद नहीं जानते की आप क्या कर रहें हैं। मेहरबानी करके मुझे मुक्त कर दीजिये।  बड़ी मुश्किल से मेरा सामान वापस लाया गया।

कैसे किसी यात्रा को एक अभूतपूर्व कटु अनुभव के रूप में बदला जाए - इस पर महारत हासिल है - एयर इंडिया को।  मैंने हमेशा के लिए मेरे बच्चों की बात मान ली है - भर पाये एयर इंडिया से !


Thursday, March 20, 2014

मयंक गांधी से बातचीत

कल सुबह बड़ा मजा आया।  मैं अपनी सुबह की  सैर के लिए जुहू जॉगर्स पार्क पहुंचा , तो देखा कि वहाँ आम आदमी पार्टी के कुछ कार्यकर्त्ता पार्क के प्रवेश द्वार पर खड़े होकर पर्चे पकड़ा रहे थे और आने वाले चुनाव के लिए प्रचार कर रहे थे। सभी लगाये हुए थे आप कि चिर परिचित टोपियां ! मैं रुक गया। एक चेहरा था आप की  मुम्बई इकाई के मुख्य नेता और आगामी चुनाव में मुम्बई उत्तर पश्चिम के प्रत्याशी श्री मयंक गांधी का । मयंक को कई बार मैंने सुना है टाइम्स नाऊ के वाद विवाद कार्यक्रमों में। बहुत संयत व्यक्ति हैं।  बोलने के लिए अपनी बारी की  प्रतीक्षा करते हैं। तीखे कटाक्षों को सुनकर भी मुस्कुराते रहते हैं।

मैंने मयंक से कहा - मयंक भाई , जब आप लोगों ने इंडिया अगेंस्ट करप्सन का अभियान शुरू किया था , तब मैं भी अन्ना  की  टोपी पहन कर अँधेरी स्टेशन से शुरू होने वाले जुलुस में शामिल होने गया था।  मेरे मन भी भ्रष्टाचार के विरोध में वही भाव था , जो आप सब के मन में था। जब अरविन्द ने राजनैतिक दल बनाया तो भी मैं अरविन्द के साथ था , और अन्ना के विरोध को मैं गलत समझता था। आप के दिल्ली के चुनाव प्रचार के समय भी मैं मन से आपके साथ था ; लेकिन चुनाव के बाद जब आपने कांग्रेस की  मदद से अपनी सर्कार  बनायीं तो मैं बिलकुल चौंक गया था। दिन रात शीला को गालियां देकर चुनाव में २८ सीटें प्राप्त करने वाली आपकी पार्टी ३७  के आंकड़ें तक पहुँचने के लिए उसी भ्रष्ट  कांग्रेस की  मदद लेने को तैयार हो गयी।

साथ में श्रीमतीजी भी पूरी तैयार तैयार थी , बोली - सर्कार बनाने के बाद कहाँ गए आप के सभी आरोप जिसके आधार पर आप शीला को अंदर करने वाले थे ?

हिम्मत कर के मयंक ने कहा - बिना प्रभावी लोकपाल ले हथियार के ये सम्भव नहीं था , इसलिए हम  जन लोकपाल वाला बिल लाये।

मैंने फिर मेरा प्रश्न दागा - तो आप क्या ये सोच कर लाये थे कि ऐसा लोकपाल बिल आपकी सहयोगी पार्टी कोंग्रेस पास होने देगी ? और अगर आप ये जानते थे तो इसका अर्थ ये हुआ , कि आप इस तरह गलत सहारे की  सर्कार से छूट कर भग्न चाहते थे।

फिर मैंने उनका दिया हुआ चुनावी परचा हाथ में लिया।  उसमे नारों के अलावा जो वाडे थे वो इस प्रकार थे -
1. Reduction of domestic power tariff by 50% ( Less Than 300 units consumed)
2. Providing alternate housing before a slum is demolished.
3. Construction of SRA schemes by MHADA, not private builders.
4. A free home measuring 450 sq. ft. (carpet area) for slum dwellers.
5. Generating opportunities for employment and reshaping policy.
6. New schools and health care units.

मैंने पूछा - भाई साहेब , आप राज्य का चुनाव लड़ रहे हो या संसद का ? ये तमाम बातें तो मुम्बई से जुडी हैं। देश के लिए आपकी क्या योजना है इसका तो कहीं नामोनिशान नहीं है।

मयंक तो कुछ नहीं बोले लेकिन उनके एक साथी ने कहा - ये सब तो चुनाव में लिखना पड़ता है !

मैंने फिर घेरा - ये सब बातें तो आपने दिल्ली के विधान सभा चुनाव में भी कही थी न ; क्या हुआ
उन सब का ?

उनके पर्चे में आगे लिखा था -

I Promise-
1. I will not avail of any VIP perks or security.
2. If I am found guilty of corruption, you will have the right to penalise me..
3. To seek the opinion of my electorate before a parliament session.
4. I will do my bestand usher in 'Swaraj'.

यानि एक बार फिर वही थोथी बातें जो अरविन्द और उनके आप के साथियों ने दिल्ली में कही थी और किसी बात पर सच्चे नहीं उतरे थे।  मुम्बई का वोटर बहुत जागरूक है।  ऐसी हलकी चुनावी बातों के झांसे में वो आने वाला नहीं है।  अगर आप ने   पूरे मुम्बई शहर के लिए ऐसे ही झूठे वादों कि दावत तैयार कि है तो आप विश्वास रखें यहाँ से आम आदमी को किसी भी आम आदमी का वोट नहीं मिलेगा।

तब तक दो चार व्यक्ति और जुड़ गए थे।  एक सज्जन ने बड़ा ही तीखा प्रश्न किया - अगर आप की  लड़ाई कांग्रेस के साथ थी , तो आप बेमतलब नरेंद्र मोदी के खिलाफ क्यों प्रचार कर रहें हैं ? अगर आप चाहते हैं कि देश में सर्कार न कांग्रेस की   और न बीजेपि कि तो क्या देश में ऐसी ही अस्थिरता बनी रहे ? देश नरेंद्र मोदी का समर्थन कर रहा है , ऐसे में आपकी पार्टी उनके  वोटों को काट कर कांग्रेस की  ही मदद कर रही है। जब आप जानते हैं कि आपकी  से ज्यादा नहीं आने वाली तो फिर आप इस तरह बेमतलब की  कवायद क्यों कर रहें हैं ?

इसका जो उत्तर मयंक ने दिया वो शायद उनका सबसे सच्चा और जोरदार उत्तर था।  मयंक ने कहा - मित्रों , जैसे कंप्यूटर में एक होता है ऑपरेटिंग सिस्टम और दूसरा होता है एंटी -वायरस ; उसी तरह हम  भी जानते हैं कि हम  ऑपरेटिंग सिस्टम तो नहीं बन सकते , लेकिन एंटी वायरस का काम तो जरूर कर सकते हैं।

मैंने बात ख़त्म की - मयंक भाई , मैं आपके दल को वोट तो नहीं दे सकता लेकिन आपकी साफगोई के लिए आप को शुभकामना जरूर दे सकता हूँ ; ईश्वर आपका और देश का भला करे !


Sunday, March 2, 2014

बाजी नरेंद्र मोदी के हाथ !

देश में चुनाव का मौसम पूरे शबाब पर है। माहौल कुछ ऐसा चल रहा है , जैसे कि इस बार का चुनाव किसी भी पार्टी के लिए जीत कर सत्ता में आने के लिए नहीं है ; बल्कि नरेंद्र मोदी को देश का प्रधानमंत्री बनने  से रोकने के लिए है।  कितनी विचित्र बात है , जिसे देश की जनता अपना नेता मान चुकी है , उसे रोकने के हथकंडे बाकी सारे दल खुले आम कर रहें हैं।

कांग्रेस बिलावजह प्रचार में करोड़ों रूपया फूंक रही है। दस साल के असफल शासन के बाद किस मुंह से ये पार्टी वादे कर रही है। एक ऐसा प्रधानमंत्री जिसके मुंह में जुबान नहीं है वो नेतृत्व कहाँ कर रहा है ; वो तो ऐसा लगता है किसी की नौकरी बजा रहा है। कम से कम देश की  तो नहीं।

और उनका युवा नेता ! जिसने इन दस सालों में किसी भी योग्यता का एक भी परिचय नहीं दिया ; जिसका संसद में होना न होना एक सा था ; जो व्यक्तिगत इंटरव्यू में एक रटे  रटाये तोते की  तरह बात करता है ; जिसने अपने राजनैतिक जीवन में कोई भी मंत्रालय कभी नहीं सम्भाला - ऐसे व्यक्ति को देश की  जनता क्या प्रधानमंत्री पद के लिए चुनेगी ?

कांग्रेस के साथी ऐसे गायब हो गएँ हैं , जैसे डूबते जहाज के चूहे।  एक मात्र लालू यादव बचे हैं , जो अब कांग्रेस को सीटों के बंटवारे पर आँख  दिखा रहें हैं।

आम आदमी ! दिल्ली के चुनाव में जिस प्रकार के जन समर्थन के साथ ऊपर आयी ; जितने बड़े बड़े वादे  जनता से किये - वो तो उसी दिन आधी हो गयी थी, जिस दिन उसने उस कांग्रेस पार्टी का , जिसको निरंतर दिन रात गालियां देकर वो चुनाव जीत कर आये थे ; उसी का समर्थन स्वीकार कर के सर्कार बना बैठे। यहाँ से उनके पतन का ऐसा दौर शुरू हो गया ; जो उनकी सर्कार के इस्तीफे के साथ ख़त्म हुआ।  न तो सर्कार बनाने का कोई औचित्य था , और न ही इस्तीफे का। सारे वादे खोखले साबित हो गए। ऐसी पार्टी किस मुंह से लोकसभा के लिए समर्थन मांगेगी ? उनका एक ही तरीका है - दूसरों को गालियां देते रहो , अपने आप ही जीत जाओगे।  बेसिरपैर के आरोप लगा देना उनकी फितरत है। शीला दीक्षित उनके आरोपों से अब मुक्त हो गयी है , क्योंकि उसे तो हरा दिया है।  अरविन्द केजरीवाल एक अजीब दुविधा में हैं ; पार्टी के लोग जोर डाल  रहें हैं कि वो सीधे नरेंद्र मोदी से टक्कर लें।   अरविन्द जानते हैं कि होना क्या है ! मोदी कोई शीला दीक्षित नहीं है , बी जे  पी दिल्ली वाली कांग्रेस नहीं है ; और सबसे बड़ी बात खुद अरविन्द केजरीवाल वो दबंग पाक साफ़ छवि वाले नेता नहीं रहें हैं।  लोकसभा चुनाव के बाद आम आदमी का नया नाम होगा - नाकाम आदमी !

और फिर वो एक समूह दिवास्वप्न देखने वालों का ! तीसरा मोर्चा - एक ऐसा अद्भुत प्रयास जिसका न कोई नेता है , न कोई आधार। हर नेता सिर्फ प्रधानमंत्री है। इन सभी पैबंदों को सिलने के लिए जिस सुई का प्रयोग किया जा रहा है उसका नाम है - सेकुलरिज्म या धर्म निरपेक्षता ! नरेंद्र मोदी की  लोकप्रियता कि तलवार से लड़ने के लिए इसी सुई का प्रयोग करते हैं।  सभी हारे हुए जुआरी हैं ! मुलायम , नितीश , जयललिता - तीनों अपने मन में प्रधानमंत्री बने हुए हैं।  बचे कम्युनिस्ट - उनके अजेंडे में प्रधानमंत्री बनना तो कभी था ही नहीं , बल्कि ज्योति बासु जैसे नेता को जब मौका मिला था तो उसे बनने  से रोकना था। लेकिन नियति इन चारों में से तीन की  तो स्पष्ट है - मुलायम पिछले विधानसभा की  चुनावी सफलता के बाद निरंतर लुढ़कते जा रहे हैं ; नितीश अपना दांव गलत जगह खेल कर हार चुके हैं  और बंगाल में ममता बनर्जी के सामने कम्युनिस्ट कहीं टिकने वाले नहीं।  बची जयललिता - वो कब अपना पलड़ा बदल लें ये कोई नहीं जानता।  जबकि करूणानिधि एड़ी चोटी  का जोर लगा रहें हैं - नरेंद्र मोदी की विरुदावली  गा  कर ; नरेंद्र मोदी इंतजार कर रहे हैं अपनी पुरानी  मित्र जयललिता के लौटने का .

जयललिता की  तरह और तीन चार  दल समय का इन्तजार कररहे हैं - तृणमूल की  ममता , ओड़िसा की  बीजेडी के नवीन  पटनायक , यु पी में बीएसपी की  मायावती और असाम में असम गण परिषद। चुनाव इस बार नरेंद्र मोदी को करना है कि किसे साथ रखें किसे नहीं।

पूरा  देश आशा भरी नजरों से देख रहा है - नरेंद्र मोदी की  और।  नरेंद्र मोदी के सिवा कोई भी नजर नहीं आता जो देश को इसकी खोयी हुई अंतर्राष्ट्रीय शाख दिल सके . देश कि त्रस्त  जनता महंगाई के थपेडों  से दुखी हैं ; ऐसे में सेकुलर और कम्युनल का झुनझुना कानों को नहीं सुनायी देने वाला।  ये बाजी नरेंद्र मोदी के हाथ ! शुभकामनायें !

Wednesday, February 5, 2014

एस्केलेटर का प्रयोग

कल हैदराबाद के हवाई अड्डे पर एक बड़ा विचित्र अनुभव हुआ।  वहाँ के नए हवाई अड्डे  में यात्रियों को हवाई जहाज में प्रवेश करने के लिए एक एस्केल्टर से नीचे उतरना पड़ता है , वहाँ से आगे बढ़ कर एयरोब्रिज के गलियारें में प्रवेश करना होता है। हुआ ये कि जब मैं एस्केलेटर से नीचे उतरा तो मेरे सामने वाले सज्जन नीचे उतर कर मेरे सामने खड़े हो गए और पास ही अपना बैग रख दिया।  वो आराम से अपने मोबाईल फोन पर बात करते रहे।  उन्हें ये ध्यान  नहीं था कि उनके ठीक पीछे एक चलती हुई सीढ़ी है जिस पसर बहुत सारे लोग एक के पीछे एक खड़े हैं।  मेरे पास कोई रास्ता नहीं था , मैंने उनके बैग को ठोकर से दूर किया और आगे बढ़ा।  मैंने लगभग चिल्लाते हुए उनसे कहा कि एस्केलेटर की  लैंडिंग को आप रोक कर खड़े हैं।  उन्हें मेरा ये कदम मेरी बदतमीजी लगा।  वो साहब बोले मेरे सामने जब एक लाइन लगी है तो मैं कहाँ जाऊं।  मैंने कहा आप सामने वाले को धक्का मार कर आगे बढ़िए वर्ना पीछे के सारे लोग एक के ऊपर एक गिर कर घायल हो जायेंगे, जैसा की  तेज गति वाले हाइवे पर अचानक ब्रेक लगा लेने से होता है। उस साहब को मेरी बात पसंद नहीं आयी।  खैर साहब , पसंद आये या न आये , मैं तो गिरने की  बजाय ठोकर से उनके बैग को हटा कर बचना ही पसंद करूंगा। 

         इस घटना के बाद मेरे मन में आया ; क्या दुनिया में एस्केलेटर का प्रयोग करने के कोई नियम कायदे हैं         भी या नहीं। मेरा सुखद अनुभव था , जब मैंने गूगल पर देखा ही दुनिया के हर देश के अपने कुछ तरीके           हैं , यानि के एस्केलेटर एटिकेट।  मेरे अध्ययन  के आधार पर मैं कुछ सुझाव यहाँ लिख रहा हूँ , जो हमें भी हमारे देश में अपना लेने चाहिए -

१. एस्केलेटर पर खड़ा होना या चलना , अपने देश के सड़क के नियम के अनुसार होना चाहिए।  हमारे देश भारत में हैं सड़क के बायीं तरफ चलते हैं ; इसलिए एस्केलेटर पर भी हमें बायीं तरफ खड़ा होना चाहिए। 

२. यदि हमारे साथ कोई बैग है , तो उसे भी अपने पास यानि बायीं तरफ रखना चाहिए न की बीचों बीच।  कभी भी कोई ट्रॉली, या बच्चे की गाडी एस्केलेटर पर नहीं लेनी चाहिए। 

 ३. आपके साथ आपका कोई मित्र या परिवार जन  है , तो आप उनके साथ साथ न खड़े होकर आगे पीछे ही खड़े होवें। 

४. हमेशा अपने बायीं तरफ वाली रेलिंग पकड़ कर रखें।  इसका कारण  ये है , अगर कभी किसी  कारण से एस्केलेटर झटके से रुके तो आप का नियंत्रण न बिगड़े।  ध्यान रहे , एस्केलेटर पर एक व्यक्ति का गिरना एक डोमिनो इफेक्ट की  तरह है , यानि जैसे कि साईकिल स्टैंड पर  अगर एक साईकिल गिरती है तो अपने साथ पूरी साईकिल की  लाइन को गिरा डालती है। 

५. और अब आती है वो बात जिसने मुझे ये लेख  लिखने पर मजबूर किया।  कभी भी एस्केलेटर के उतरने के स्थान पर यानि की  लैंडिंग पर खड़े न रहे। वहाँ खड़े  होकर आप एक बहुत बड़ी समस्या को निमंत्रण दे रहे होते हैं।  आपके पीछे वाला आदमी अचानक घबरा जाएगा।  वो कुछ भी कर सकता है ; यहाँ तक कि आपको धक्का देकर गिरा भी सकता है। और फिर वही डोमिनो  इफेक्ट। 

६. अगर आप एस्केलेटर से उतरना चाहते हैं तो आप उतरने के लिए दाहिनी तरफ का प्रयोग करें, जैसे कि भारत की  सड़कों पर ओवरटेक करने के लिए आप दाहिनी लेन  में जाते हैं ।  भाग कर उतरने की  कोशिश न करें।  

७ . और अंतिम बात ! अगर आप मोबाईल पर बात कर रहें हैं , तो भी आप को बात में इतना खो नहीं जाना चाहिए , जिसके कारण  आप ऊपर लिखे हुए नियमों को भूल जाएँ।  

बाकी बची हुई हिदायतें आप को नीचे दिया हुआ चित्र समझा देगा।  आपकी प्रतिक्रिया का स्वागत है। 






Friday, January 3, 2014

मुख्य मंत्री अरविन्द केजरीवाल



वैसे मैं आम आदमी पार्टी और अरविन्द केजरीवाल का प्रशंसक हूँ। अरविन्द ने एक बहुत अलग रास्ता दिखाया है देश की जनता को। जब देश की  राजनैतिक पार्टियां अरविन्द को ताने मार रही थी- देश के लिए निर्णय सड़कों  पर बैठ कर नहीं होते , उसके लिए चुनाव जीत कर संसद में आना होता है, अरविन्द ने उस चुनौती को स्वीकार किया और आम आदमी पार्टी को जन्म दिया।  अन्ना बिना किसी वजह के अरविन्द से अलग हो गए।  निर्णय अन्ना  का गलत था , अरविन्द का नहीं।

चुनाव की  भारी  सफलता के लिए भी अरविन्द बधाई के पात्र हैं।  दिल्ली के लोगों ने उनमे विश्वास जताया।  अरविन्द ने बहुत खुले शब्दों में ऐलान किया कि वो किसी भी पार्टी को न तो समर्थन देंगे और न ही लेंगे। इससे उनकी छवि और भी सुधरी। ऐसी घोषणा करते वक़्त शायद अरविन्द ने सोचा होगा की उनकी १५-१६ सीटें आएँगी और शायद किसी भी एक पार्टी को उनके सहयोग की  जरूरत पड़ेगी। लेकिन परिस्थितियां  कुछ अलग रंग लेकर आयी।

जब बी जे पी ने सर्कार बनाने से इंकार कर दिया , इसके बाद अरविन्द कि परीक्षा कि घडी आयी।  यहाँ से मैं अरविन्द के निर्णयों से सहमत नहीं हूँ। उन्होंने जनता से पूछने का एक नाटक किया - क्या उन्हें सर्कार बनानी चाहिए।  अरविन्द भाई , जनता अपना निर्णय चुनाव के माध्यम से दे चुकी होती है।  जिन्होंने आपको वोट दिया वो सर्कार बनाने के लिए ही दिया था, लेकिन तब जब आप के पास पर्याप्त बहुमत होता ।  एक बार जब जनता आप को चुन लेती है तो फिर निर्णय लेने का अधिकार जनता आप के हाथ में सौंप देती है। आपको हर निर्णय के लिए फिर जनता के पास जाने की  जरूरत नहीं होती।

आप अपने दिल से ही पूछ लेते कि जिस  कांग्रेस के विरुद्ध आप  जहर उगल उगल कर जनता के चहेते बने थे , क्या उसी की  बैसाखियों पर आप खड़ा होना चाहते हैं। क्या जनता के एस एम् एस निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं।  एस एम् एस का कोई नाम नहीं होता।  कोई भी कहीं से कितने भी एस एम् एस भेज सकता है।  सर्कार बनाना कोई टेलीविजन का रियलिटी शो नहीं है जिसका फैसला जनता के एस एम् एस के आधार पर हो सके।  फिर आप को तो दिल्ली के लोगों से पूछना था , एस एम् एस तो पूरे देश से आते हैं।

कल आपने विधान सभा में एक बार फिर विश्वास प्राप्त करने का नाटक खेला।  क्या आपके पास कोई उत्तर था हर्षवर्धन के तीखे सवालों का ? आपका लिखा लिखाया भाषण अच्छा तो था लेकिन सच्चा नहीं था।  आप बात बात में ये कहते हैं कि आप को किसी का सहयोग नहीं चाहिए , दिल्ली की  जनता को चाहिए। ऐसा था तो फैसला दिल्ली की  जनता पर ही छोड़ते कि दोबारा चुनाव करवा के वो किस तरफ मुड़ेगी - इसका फैसला करती ।

अरविन्द आप मुख्य मंत्री तो जरूर बन गए लेकिन कहीं न कहीं आप लोगों के दिलों की  गद्दी से  नीचे उतर गए।  काउन्ट डाउन शुरू हो चूका है आपकी इस सर्कार के गिरने के लिए।  बचने की  एक ही सूरत है - या तो आप कांग्रेस  बन जाओ या  फिर कांग्रेस को अपने जैसा बना लो।  दूसरी बात तो होने से रही , पहली बात का डरहै , क्योंकि उस दिशा में पहला कदम आप ले चुकें हैं।

मेरी शुभकामनाएं अरविन्द !


Wednesday, January 1, 2014

वो एक अलग नए वर्ष की पूर्व संध्या

नए साल की पूर्व संध्या एक त्यौहार की  तरह मनायी जाती है। पुराने वर्ष को विदाई तथा नए आने वाले वर्ष का स्वागत लोग करते हैं - पार्टी से , नाच गा कर,  परिवार के साथ पर्यटन कर के और संगीत के साथ। मुझे याद आती है वो नव वर्ष की  पूर्व संध्या जब हमने - मैं , बहन सविता , जीजाजी अशोक जी , बेला , रेणु  और मेरे एक मित्र दंपत्ति पोद्दार - ने नव वर्ष का स्वागत किया ईश्वर की भक्ति के साथ।

उस वर्ष मेरे प्रिय अनुज  अनिल ( फुफेरा भाई ) के शरीर में कैंसर का रोग प्रवेश कर चुका  था। अनिल एक बहुत उत्साही युवक था जो जीना चाहता था। जनवरी से दिसंबर तक पूरे वर्ष उसने इस बीमारी से लड़ाई लड़ी। उस रात हम  सब ने मिलकर यज्ञ किया तथा ईश्वर से प्रार्थना की कि अनिल को इस भयंकर रोग से लड़ने कि शक्ति दे और इस रोग से मुक्त कराये। जब  रात के बारह बजे तो हमने उस उदास वर्ष को विदाई दी। एक  नए वर्ष में प्रवेश किया कुछ नयी आशाओं के साथ।

अगले वर्ष अनिल ने जीवन के बस नौ महीने पूरे किये और उसके बाद निकल गया अपनी अगली यात्रा पर।