मित्रों ने इन दिनों कई बार शिकायत की - क्या महेन्द्र भाई , देश में इतना सब कुछ चल रहा है और आप का ब्लॉग बिलकुल खामोश बैठा है। शिकायत दुरुस्त भी है ; मार्च २० से लेकर आज मई २५ के बीच मैंने कुछ नहीं लिखा। मेरा स्पष्टीकरण दूँ !
ऐसा नहीं है के इस बीच में मेरे पास लिखने को कुछ था नहीं ; बल्कि सच्चाई ये है कि गत दो महीने का काल इतना गतिशील और घटनाओं से पूर्ण था कि एक दिन में मैं चार चार बार भी लिखता तो घटनाक्रम को पकड़ नहीं पाता। हर दिन का अखबार जैसे इतिहास का एक एक पन्ना बनता जा रहा था।
चुनाव का माहौल तो देश में पिछले ६ महीने से ही रहा है ; लेकिन चुनाव किस तरफ जा रहा था ये कहना बड़ा मुश्किल था। ख़ास कर , पिछले दो लोक सभा के चुनावों के परिणाम देखते हुए , इस देश के मत दाताओं का मन पढ़ना बड़ा मुश्किल था। सभी दल अपने अपने प्रचार में लगे हुए थे। कभी सत्ताधारी कांग्रेस का पलड़ा भारी लगता , तो कभी सत्ता के अन्यायों से लड़ती भारतीय जनता पार्टी का ; कभी लगता की नवजात आम आदमी पार्टी देश के चुनाव का गणित बदल कर रख देगी , तो कभी ऐसा लगता कि मजबूत क्षेत्रीय दल शायद कोई तीसरा मोर्चा बना कर बना कर सत्ता हथिया लेंगे। ऐसे में दिल अपने अंदर की बात कहने या लिखने में भी डर लगता था। ये कहना कितना हास्यास्पद होता कि देश में भारतीय जनता पार्टी श्री नरेंद्र मोदी नेतृत्व में पूर्ण बहुमत प्राप्त करेगी।
चुनाव की बिसात पर हर राजनैतिक दल मोहरों की तरह होता है ; जनता सांस थामे हर मोहरे की चाल को पहचानने की कोशिश करती है। राहुल गांधी इस बिसात पर उस दिन पिट गए जिस दिन उन्होंने अर्णव गोस्वामी को टाइम्स नाऊ चैनेल को इंटरव्यू दिया। प्रबुद्ध जनता , तमाम मिडिया और सभी प्रतिद्वंद्वी दलों ने राहुल के नेतृत्व को शुन्य समझ लिया ; दुर्भाग्य कांग्रेस का था कि दिग्विजय सिंह जैसे लोगों ने सोनिया गांधी की आँखों से अंधी ममता की पट्टी हटाने की जगह सच्चाई से दूर रखने वाला काला चश्मा और लगा दिया।
आम आदमी एक बहुत बड़े परिवर्तन के रूप में देश में आई थी। अन्ना हजारे के आंदोलन की रेल पर सवार होकर अरविन्द केजरीवाल दिल्ली के चीफ मिनिस्टर की सीट तक पहुँच गए ; एक ऐसी पार्टी की मदद से जिसके भ्रष्टाचार की दुहाई वो पिछले २-३ सालों से दे रहे थे। ४९ दिनों तक सस्ती लोकप्रियता हासिल करने की कोशिश के बाद अरविन्द ने बिलावजह दिल्ली की विधान सभा से हाथ झाड़ लिया। अरविन्द को लोकसभा की सीटों का आकर्षण खींच कर ले गया। सीधे छलांग लगा दी प्रधानमंत्री की कुर्सी के लिए। नरेंद्र मोदी से लड़ने का निर्णय ले लिए। कोई अपनी बहादुरी जताने के लिए सीधा पहाड़ से टकरा जाए , तो उसे बहादुरी नहीं मूर्खता ही कहेंगे। इस चुनाव के साथ आम आदमी पार्टी और अरविन्द केजरीवाल दोनों का महत्व इस देश की राजनीति में शुन्य हो गया है।
जैसा चुनाव प्रचार नरेंद्र मोदी ने किया , ऐसा लगा की देश के प्रत्येक व्यक्ति से उन्होंने उसके दिल की बात की। चुनाव के नतीजे इस देश का सारा इतिहास भुला कर ऐसी दिशा में मुड़ गए हैं - जिसके आगे बस अच्छे दिन ही आ सकते हैं।
जय नरेंद्र मोदी ! जय जनता ! जय भारत !
ऐसा नहीं है के इस बीच में मेरे पास लिखने को कुछ था नहीं ; बल्कि सच्चाई ये है कि गत दो महीने का काल इतना गतिशील और घटनाओं से पूर्ण था कि एक दिन में मैं चार चार बार भी लिखता तो घटनाक्रम को पकड़ नहीं पाता। हर दिन का अखबार जैसे इतिहास का एक एक पन्ना बनता जा रहा था।
चुनाव का माहौल तो देश में पिछले ६ महीने से ही रहा है ; लेकिन चुनाव किस तरफ जा रहा था ये कहना बड़ा मुश्किल था। ख़ास कर , पिछले दो लोक सभा के चुनावों के परिणाम देखते हुए , इस देश के मत दाताओं का मन पढ़ना बड़ा मुश्किल था। सभी दल अपने अपने प्रचार में लगे हुए थे। कभी सत्ताधारी कांग्रेस का पलड़ा भारी लगता , तो कभी सत्ता के अन्यायों से लड़ती भारतीय जनता पार्टी का ; कभी लगता की नवजात आम आदमी पार्टी देश के चुनाव का गणित बदल कर रख देगी , तो कभी ऐसा लगता कि मजबूत क्षेत्रीय दल शायद कोई तीसरा मोर्चा बना कर बना कर सत्ता हथिया लेंगे। ऐसे में दिल अपने अंदर की बात कहने या लिखने में भी डर लगता था। ये कहना कितना हास्यास्पद होता कि देश में भारतीय जनता पार्टी श्री नरेंद्र मोदी नेतृत्व में पूर्ण बहुमत प्राप्त करेगी।
चुनाव की बिसात पर हर राजनैतिक दल मोहरों की तरह होता है ; जनता सांस थामे हर मोहरे की चाल को पहचानने की कोशिश करती है। राहुल गांधी इस बिसात पर उस दिन पिट गए जिस दिन उन्होंने अर्णव गोस्वामी को टाइम्स नाऊ चैनेल को इंटरव्यू दिया। प्रबुद्ध जनता , तमाम मिडिया और सभी प्रतिद्वंद्वी दलों ने राहुल के नेतृत्व को शुन्य समझ लिया ; दुर्भाग्य कांग्रेस का था कि दिग्विजय सिंह जैसे लोगों ने सोनिया गांधी की आँखों से अंधी ममता की पट्टी हटाने की जगह सच्चाई से दूर रखने वाला काला चश्मा और लगा दिया।
आम आदमी एक बहुत बड़े परिवर्तन के रूप में देश में आई थी। अन्ना हजारे के आंदोलन की रेल पर सवार होकर अरविन्द केजरीवाल दिल्ली के चीफ मिनिस्टर की सीट तक पहुँच गए ; एक ऐसी पार्टी की मदद से जिसके भ्रष्टाचार की दुहाई वो पिछले २-३ सालों से दे रहे थे। ४९ दिनों तक सस्ती लोकप्रियता हासिल करने की कोशिश के बाद अरविन्द ने बिलावजह दिल्ली की विधान सभा से हाथ झाड़ लिया। अरविन्द को लोकसभा की सीटों का आकर्षण खींच कर ले गया। सीधे छलांग लगा दी प्रधानमंत्री की कुर्सी के लिए। नरेंद्र मोदी से लड़ने का निर्णय ले लिए। कोई अपनी बहादुरी जताने के लिए सीधा पहाड़ से टकरा जाए , तो उसे बहादुरी नहीं मूर्खता ही कहेंगे। इस चुनाव के साथ आम आदमी पार्टी और अरविन्द केजरीवाल दोनों का महत्व इस देश की राजनीति में शुन्य हो गया है।
जैसा चुनाव प्रचार नरेंद्र मोदी ने किया , ऐसा लगा की देश के प्रत्येक व्यक्ति से उन्होंने उसके दिल की बात की। चुनाव के नतीजे इस देश का सारा इतिहास भुला कर ऐसी दिशा में मुड़ गए हैं - जिसके आगे बस अच्छे दिन ही आ सकते हैं।
जय नरेंद्र मोदी ! जय जनता ! जय भारत !
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