एक दिन पोते ने जिद पकड़ ली कि दादाजी उसको पार्क में ले जाएं. दादाजी शहर के गिने चुने खानदानी बड़े सेठों में शुमार होते थे। पोते के सामने झुकना पड़ा। अपनी बड़ी सी महँगी गाडी में वो पोते को लेकर गए। पार्क में काफी लोग थे। एक तरफ बच्चों के झूले लगे थे। पोता उस तरफ दौड़ा। वो एक के बाद एक झूले पर बैठने और झूलने लगा। आज दादाजी उसके साथ थे इसलिए वो अपने आप को को अन्य बच्चों से ज्यादा शक्तिशाली समझ रहा था।
एक झूले पर अपनी पारी समाप्त हो जाने के बाद वो तुरंत दूसरी पारी की जिद करने लगा। अन्य बच्चों ने समझाया बच्चे बारी बारी से झूले पर बैठ रहें हैं , इसलिए उसे फिर से लाइन में लग जाना चाहिए। जब वो नहीं माना तो सभी बच्चों ने उसे जबरन उसे वहां से हटा दिया। दादाजी को ये बात बहुत नागँवार गुजरी।
उन्होंने घर आकर अपना फरमान जारी कर दिया। पोता उस सड़े हुए सरकारी पार्क में नहीं जाएगा। उन्होंने उसी समय एक झूले बनाने वाली कंपनी को बुला कर सभी झूलों का आर्डर दे दिया। उनके बंगले के पीछे बहुत सारी जगह पड़ी थी। वहां एक फुलवारी बनाकर सभी झूले लगवा दिए गए। पोते के जन्मदिन पर वो पर्सनल पार्क पोते को भेंट कर दिया।
दिन भर दफ्तर का काम निपटा कर दादाजी घर पहुंचे तो उन्हें पोता उदास सा दरवाजे पर बैठा पाया। दादाजी ने पूछा - ' क्यों भाई , आज जी भर के झूला झूले या नहीं ?'
पोते ने कहा -' किसके साथ खेलूं ? मेरे सभी दोस्त तो वहां पार्क में हैं। '
दादाजी अपने सारे अनुभवों के उपरांत भी बचपन की चाहत को समझ नहीं पाये।
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