लगता है शंकराचार्य स्वरूपानंद को मिडिया में बने रहने का नया चस्का लग गया है। उनका साईबाबा वाला वक्तव्य अभी तक गरम था। इसी बीच उन्होंने एक धर्म संसद नाम की बैठक में एक नया सगूफा छोड़ दिया। उन्होंने कहा की हिन्दू मैरेज एक्ट में एक बदलाव किया जाना चाहिए। हिन्दू पुरुष को दूसरे विवाह की अनुमति दी जानी चाहिए। इसके पीछे उन्होंने एक तर्क दिया की यदि स्त्री सन्तान पैदा करने में सक्षम न हो तो उसके पति को सन्तान प्राप्ति के लिए दूसरी शादी करने की छूट मिलनी चाहिए।
उनके इस बयान पर एक हड़कम्प सा मचा तो उन्होंने टेलीविजन के सामने दूसरा तर्क रखा - ' प्रधानमंत्री मोदी जी देश में यूनिफार्म सिविल कोड लाने की बात करते हैं तो जब एक मुसलमान को चार पत्नियाँ रखने का अधिकार है तो फिर हिन्दू को दो पत्नियाँ रखने का अधिकार क्यों नहीं ?'
ये सोच है देश के सबसे बड़े धर्मगुरु होने का दावा करने वाले शंकराचार्य की ! बात बात में वेदों की दुहाई देने वाले ये महापुरुष भूल गए की विवाह संस्कार की प्रतिज्ञाओं में से एक प्रतिज्ञा वर ये भी करता है कि मैं तुमसे विवाह के पश्चात किसी और स्त्री की तरफ नजर उठा कर देखूँगा भी नहीं। क्या प्रतिज्ञा में ऐसा कोई मन्त्र वेदों में लिखा है कि अगर तुम मेरे लिए संतान उत्पन्न करने में अक्षम रही तो फिर ये प्रतिज्ञा लागू नहीं होगी ?
आदरणीय शंकराचार्यजी ! जहाँ तक आपके तर्कों का सवाल है तो मेरे भी कुछ सवाल हैं , उत्तर देवें -
१. क्या आप वही अधिकार स्त्रियों को भी देंगे ? यदि कोई पुरुष सन्तान उत्पत्ति में सक्षम नहीं हो तो क्या एक स्त्री अपनी मातृत्व की इच्छा पूर्ति के लिए अपने पति के रहते हुए कोई दूसरा विवाह कर सकती है ?
२. यदि दूसरी पत्नी भी सन्तान देने के लिए अयोग्य हुई तो क्या तीसरी , चौथी , पांचवी शादी का भी प्रावधान चाहिए ?
३ . यूनिफार्म सिविल कोड में मुसलमानों की बराबरी करने के लिए तो चार पत्नियां रखने का प्रावधान चाहिए , क्या हम मांगों को अलग अलग काल-खंड (फेज) में रखेंगे ?
४. क्या हम हिन्दू मुसलमान बनने की प्रक्रिया में चल रहें हैं ?
आदरणीय धर्मगुरुजी ! विश्व जब विकट असांस्कारिक दौर से गुजर रहा है , उस वक़्त क्या हमारी धर्म संसद के पास कोई और विषय नहीं था। हर रोज का अखबार भरा रहता है बलात्कार की ख़बरों से - क्या आपको ये जरूरी नहीं लगा पीढ़ी में इस अपराध भावना को दूर करने के लिए कोई बदलाव किये जाने चाहिए।
विवाह नाम की संस्था क्षीण होती जा रही है। शादियां होने के साथ साथ टूट रही हैं , इस प्रवृति को ठीक करने के लिए क्या कोई प्रस्ताव नहीं बन सकता था आपकी संसद में ?
संतान विहीन लोगों को क्या अनाथ बच्चों को गोद लेकर अपने कुल का नाम नहीं बढ़ाना चाहिए ?
अगर कोई ढंग का प्रस्ताव नहीं था तो न सही , लेकिन ऐसे बेसिर पैर के विचारों को वाद विवाद में लाकर आपने कहीं अपनी प्रतिष्ठा को ही दांव पर लगाया है।
आज का पढ़ा लिखा हिन्दू समाज आपके इस चिंतन को पूरी तरह नकारता है !
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