देश में चुनाव का मौसम पूरे शबाब पर है। माहौल कुछ ऐसा चल रहा है , जैसे कि इस बार का चुनाव किसी भी पार्टी के लिए जीत कर सत्ता में आने के लिए नहीं है ; बल्कि नरेंद्र मोदी को देश का प्रधानमंत्री बनने से रोकने के लिए है। कितनी विचित्र बात है , जिसे देश की जनता अपना नेता मान चुकी है , उसे रोकने के हथकंडे बाकी सारे दल खुले आम कर रहें हैं।
कांग्रेस बिलावजह प्रचार में करोड़ों रूपया फूंक रही है। दस साल के असफल शासन के बाद किस मुंह से ये पार्टी वादे कर रही है। एक ऐसा प्रधानमंत्री जिसके मुंह में जुबान नहीं है वो नेतृत्व कहाँ कर रहा है ; वो तो ऐसा लगता है किसी की नौकरी बजा रहा है। कम से कम देश की तो नहीं।
और उनका युवा नेता ! जिसने इन दस सालों में किसी भी योग्यता का एक भी परिचय नहीं दिया ; जिसका संसद में होना न होना एक सा था ; जो व्यक्तिगत इंटरव्यू में एक रटे रटाये तोते की तरह बात करता है ; जिसने अपने राजनैतिक जीवन में कोई भी मंत्रालय कभी नहीं सम्भाला - ऐसे व्यक्ति को देश की जनता क्या प्रधानमंत्री पद के लिए चुनेगी ?
कांग्रेस के साथी ऐसे गायब हो गएँ हैं , जैसे डूबते जहाज के चूहे। एक मात्र लालू यादव बचे हैं , जो अब कांग्रेस को सीटों के बंटवारे पर आँख दिखा रहें हैं।
आम आदमी ! दिल्ली के चुनाव में जिस प्रकार के जन समर्थन के साथ ऊपर आयी ; जितने बड़े बड़े वादे जनता से किये - वो तो उसी दिन आधी हो गयी थी, जिस दिन उसने उस कांग्रेस पार्टी का , जिसको निरंतर दिन रात गालियां देकर वो चुनाव जीत कर आये थे ; उसी का समर्थन स्वीकार कर के सर्कार बना बैठे। यहाँ से उनके पतन का ऐसा दौर शुरू हो गया ; जो उनकी सर्कार के इस्तीफे के साथ ख़त्म हुआ। न तो सर्कार बनाने का कोई औचित्य था , और न ही इस्तीफे का। सारे वादे खोखले साबित हो गए। ऐसी पार्टी किस मुंह से लोकसभा के लिए समर्थन मांगेगी ? उनका एक ही तरीका है - दूसरों को गालियां देते रहो , अपने आप ही जीत जाओगे। बेसिरपैर के आरोप लगा देना उनकी फितरत है। शीला दीक्षित उनके आरोपों से अब मुक्त हो गयी है , क्योंकि उसे तो हरा दिया है। अरविन्द केजरीवाल एक अजीब दुविधा में हैं ; पार्टी के लोग जोर डाल रहें हैं कि वो सीधे नरेंद्र मोदी से टक्कर लें। अरविन्द जानते हैं कि होना क्या है ! मोदी कोई शीला दीक्षित नहीं है , बी जे पी दिल्ली वाली कांग्रेस नहीं है ; और सबसे बड़ी बात खुद अरविन्द केजरीवाल वो दबंग पाक साफ़ छवि वाले नेता नहीं रहें हैं। लोकसभा चुनाव के बाद आम आदमी का नया नाम होगा - नाकाम आदमी !
और फिर वो एक समूह दिवास्वप्न देखने वालों का ! तीसरा मोर्चा - एक ऐसा अद्भुत प्रयास जिसका न कोई नेता है , न कोई आधार। हर नेता सिर्फ प्रधानमंत्री है। इन सभी पैबंदों को सिलने के लिए जिस सुई का प्रयोग किया जा रहा है उसका नाम है - सेकुलरिज्म या धर्म निरपेक्षता ! नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता कि तलवार से लड़ने के लिए इसी सुई का प्रयोग करते हैं। सभी हारे हुए जुआरी हैं ! मुलायम , नितीश , जयललिता - तीनों अपने मन में प्रधानमंत्री बने हुए हैं। बचे कम्युनिस्ट - उनके अजेंडे में प्रधानमंत्री बनना तो कभी था ही नहीं , बल्कि ज्योति बासु जैसे नेता को जब मौका मिला था तो उसे बनने से रोकना था। लेकिन नियति इन चारों में से तीन की तो स्पष्ट है - मुलायम पिछले विधानसभा की चुनावी सफलता के बाद निरंतर लुढ़कते जा रहे हैं ; नितीश अपना दांव गलत जगह खेल कर हार चुके हैं और बंगाल में ममता बनर्जी के सामने कम्युनिस्ट कहीं टिकने वाले नहीं। बची जयललिता - वो कब अपना पलड़ा बदल लें ये कोई नहीं जानता। जबकि करूणानिधि एड़ी चोटी का जोर लगा रहें हैं - नरेंद्र मोदी की विरुदावली गा कर ; नरेंद्र मोदी इंतजार कर रहे हैं अपनी पुरानी मित्र जयललिता के लौटने का .
जयललिता की तरह और तीन चार दल समय का इन्तजार कररहे हैं - तृणमूल की ममता , ओड़िसा की बीजेडी के नवीन पटनायक , यु पी में बीएसपी की मायावती और असाम में असम गण परिषद। चुनाव इस बार नरेंद्र मोदी को करना है कि किसे साथ रखें किसे नहीं।
पूरा देश आशा भरी नजरों से देख रहा है - नरेंद्र मोदी की और। नरेंद्र मोदी के सिवा कोई भी नजर नहीं आता जो देश को इसकी खोयी हुई अंतर्राष्ट्रीय शाख दिल सके . देश कि त्रस्त जनता महंगाई के थपेडों से दुखी हैं ; ऐसे में सेकुलर और कम्युनल का झुनझुना कानों को नहीं सुनायी देने वाला। ये बाजी नरेंद्र मोदी के हाथ ! शुभकामनायें !
कांग्रेस बिलावजह प्रचार में करोड़ों रूपया फूंक रही है। दस साल के असफल शासन के बाद किस मुंह से ये पार्टी वादे कर रही है। एक ऐसा प्रधानमंत्री जिसके मुंह में जुबान नहीं है वो नेतृत्व कहाँ कर रहा है ; वो तो ऐसा लगता है किसी की नौकरी बजा रहा है। कम से कम देश की तो नहीं।
और उनका युवा नेता ! जिसने इन दस सालों में किसी भी योग्यता का एक भी परिचय नहीं दिया ; जिसका संसद में होना न होना एक सा था ; जो व्यक्तिगत इंटरव्यू में एक रटे रटाये तोते की तरह बात करता है ; जिसने अपने राजनैतिक जीवन में कोई भी मंत्रालय कभी नहीं सम्भाला - ऐसे व्यक्ति को देश की जनता क्या प्रधानमंत्री पद के लिए चुनेगी ?
कांग्रेस के साथी ऐसे गायब हो गएँ हैं , जैसे डूबते जहाज के चूहे। एक मात्र लालू यादव बचे हैं , जो अब कांग्रेस को सीटों के बंटवारे पर आँख दिखा रहें हैं।
आम आदमी ! दिल्ली के चुनाव में जिस प्रकार के जन समर्थन के साथ ऊपर आयी ; जितने बड़े बड़े वादे जनता से किये - वो तो उसी दिन आधी हो गयी थी, जिस दिन उसने उस कांग्रेस पार्टी का , जिसको निरंतर दिन रात गालियां देकर वो चुनाव जीत कर आये थे ; उसी का समर्थन स्वीकार कर के सर्कार बना बैठे। यहाँ से उनके पतन का ऐसा दौर शुरू हो गया ; जो उनकी सर्कार के इस्तीफे के साथ ख़त्म हुआ। न तो सर्कार बनाने का कोई औचित्य था , और न ही इस्तीफे का। सारे वादे खोखले साबित हो गए। ऐसी पार्टी किस मुंह से लोकसभा के लिए समर्थन मांगेगी ? उनका एक ही तरीका है - दूसरों को गालियां देते रहो , अपने आप ही जीत जाओगे। बेसिरपैर के आरोप लगा देना उनकी फितरत है। शीला दीक्षित उनके आरोपों से अब मुक्त हो गयी है , क्योंकि उसे तो हरा दिया है। अरविन्द केजरीवाल एक अजीब दुविधा में हैं ; पार्टी के लोग जोर डाल रहें हैं कि वो सीधे नरेंद्र मोदी से टक्कर लें। अरविन्द जानते हैं कि होना क्या है ! मोदी कोई शीला दीक्षित नहीं है , बी जे पी दिल्ली वाली कांग्रेस नहीं है ; और सबसे बड़ी बात खुद अरविन्द केजरीवाल वो दबंग पाक साफ़ छवि वाले नेता नहीं रहें हैं। लोकसभा चुनाव के बाद आम आदमी का नया नाम होगा - नाकाम आदमी !
और फिर वो एक समूह दिवास्वप्न देखने वालों का ! तीसरा मोर्चा - एक ऐसा अद्भुत प्रयास जिसका न कोई नेता है , न कोई आधार। हर नेता सिर्फ प्रधानमंत्री है। इन सभी पैबंदों को सिलने के लिए जिस सुई का प्रयोग किया जा रहा है उसका नाम है - सेकुलरिज्म या धर्म निरपेक्षता ! नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता कि तलवार से लड़ने के लिए इसी सुई का प्रयोग करते हैं। सभी हारे हुए जुआरी हैं ! मुलायम , नितीश , जयललिता - तीनों अपने मन में प्रधानमंत्री बने हुए हैं। बचे कम्युनिस्ट - उनके अजेंडे में प्रधानमंत्री बनना तो कभी था ही नहीं , बल्कि ज्योति बासु जैसे नेता को जब मौका मिला था तो उसे बनने से रोकना था। लेकिन नियति इन चारों में से तीन की तो स्पष्ट है - मुलायम पिछले विधानसभा की चुनावी सफलता के बाद निरंतर लुढ़कते जा रहे हैं ; नितीश अपना दांव गलत जगह खेल कर हार चुके हैं और बंगाल में ममता बनर्जी के सामने कम्युनिस्ट कहीं टिकने वाले नहीं। बची जयललिता - वो कब अपना पलड़ा बदल लें ये कोई नहीं जानता। जबकि करूणानिधि एड़ी चोटी का जोर लगा रहें हैं - नरेंद्र मोदी की विरुदावली गा कर ; नरेंद्र मोदी इंतजार कर रहे हैं अपनी पुरानी मित्र जयललिता के लौटने का .
जयललिता की तरह और तीन चार दल समय का इन्तजार कररहे हैं - तृणमूल की ममता , ओड़िसा की बीजेडी के नवीन पटनायक , यु पी में बीएसपी की मायावती और असाम में असम गण परिषद। चुनाव इस बार नरेंद्र मोदी को करना है कि किसे साथ रखें किसे नहीं।
पूरा देश आशा भरी नजरों से देख रहा है - नरेंद्र मोदी की और। नरेंद्र मोदी के सिवा कोई भी नजर नहीं आता जो देश को इसकी खोयी हुई अंतर्राष्ट्रीय शाख दिल सके . देश कि त्रस्त जनता महंगाई के थपेडों से दुखी हैं ; ऐसे में सेकुलर और कम्युनल का झुनझुना कानों को नहीं सुनायी देने वाला। ये बाजी नरेंद्र मोदी के हाथ ! शुभकामनायें !
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