नील स्वर्ग

नील स्वर्ग
प्रकृति हर रंग में खूबसूरत होती है , हरी, पीली , लाल या फिर नीली

Thursday, August 26, 2010

लघुकथा - गन्ने का रस

तेज गर्मी झुलसा रही थी . सड़क पर इक्का दुक्का ही व्यक्ति नजर आ रहे थे . गर्मी के कारण लोग दोपहर में अपनी दुकाने बंद किये बैठे थे . मुझे नजर आया एक गन्ने का  रस निकालने वाला. उसके पास एक मशीन थी जिसमे वो एक तरफ से गन्ने को ठूंसता  था, जोर लगा कर उसके बड़े से चक्के को घुमाता था और दूसरी तरफ रस की धार नीचे बर्तन में गिरती थी . गन्ने का निचुड़ा हुआ भूसा सामने की तरफ सीधा निकाल आता था . भूसे  को फिर ठूंस दिया जाता मशीन में ,और इस बार कुछ ज्यादा जोर लगा कर उस चक्के को घुमाना पड़ता और रस पहले से कम निकलता . जब तक भूसा  सूख कर रसहीन ना बन जाए तब तक यह प्रक्रिया जारी रहती .

मैंने कहा - " ओ भैया , जरा एक गिलास रस ताजा निकाल कर देना " और वो लग गया फिर एक नए गन्ने के साथ .

सड़क के दूसरी तरफ सड़क बनाने का काम चल रहा था . गरम गरम तार कोल ड्रम  में खौल रहा था . दो मजदूर उस खौलते हुए काले चमकते हुए द्रव को सड़क पर छिडकाव कर रहे थे . दो बच्चे जो दूर से पत्थर की छोटी छोटी काँकरियों    को तसली में भर कर काफी देर से ला रहे थे , थक कर बैठ गए . उनका सारा शरीर पसीने से लथपथ था .एक मैले से लाल तौलिये से अपना सर ढक लिया . अभी शायद आधी मिनट भी वो सुस्ता नहीं पाए थे , कि एक लम्बा चौड़ा काली काली मूछों वाला आदमी कहीं से गरजता हुआ आया . दोनों बच्चों को कान पकड़ कर उठाया . पान चबाते हुए बोला - " हराम के पिल्लो, तुम्हारा बाप सवेरे पहले आकर तुम्हारी पूरे दिन की मजदूरी पूरे पंद्रह रुपैये अडवांस में ले जाता है , और तुम यहाँ बैठ कर मजे कर रहे हो . ये ठेका शाम तक पूरा करना है , कौन करेगा ? तुम्हारा बाप ?"......... दोनों के एक एक करारा झापड़ लगता है . रुआंसे  से बच्चे अपनी अपनी तसली उठा कर चल पड़ते हैं पत्थरों के ढेर की तरफ .

मेरा दिल काँप गया . मुझे लगा की ये बच्चे इस गन्ने की तरह है जिनके अन्दर का बचपन उस मिठास की तरह है , जो गरीबी की मशीन पूरे जोर से निचोड़ रही है . और इस जघन्य काम को करवा रहा है वो स्वार्थ जो इस मूछों वाले ठेकेदार के रूप में खड़ा है . अगले ही पल मुझे लगा जैसे इस गन्ने के रस का ग्राहक यानि मैं उस ठेकेदार की तरह हूँ. मेरे मन से गन्ने के रस को पीने की सारी चाह ख़तम हो गयी .मैं मेरी ही धुन में आगे बढ़ गया . पीछे से गन्ने वाले ने आवाज लगाई - : ओ भैया , आपका रस तैयार है ." मैंने सकपका के कहा - " भई , मन नहीं है "

गन्ने वाले की आवाज सख्त हो गयी - " मन नहीं है तो आर्डर क्यों दिया ? पीना हो तो पियो नहीं तो फेंक दो , लेकिन मेरे पंद्रह रुपैये निकालो."

मैंने उसे एक नजर देखा , फिर जेब से निकाल कर पंद्रह रुपैये दे दिए . मेरे होठों पर एक मुस्कराहट आ गयी . मुझे लगा कि अब वो ठेकेदार मैं नहीं बल्कि ये गन्नेवाला है जो हर हालात में अपने पंद्रह रुपैये वसूल करने पर तुला है . मेरा मन थोडा हल्का हुआ .

    

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