नील स्वर्ग

नील स्वर्ग
प्रकृति हर रंग में खूबसूरत होती है , हरी, पीली , लाल या फिर नीली

Tuesday, August 31, 2010

फ्रिज की सफाई

मेम साब रामू से फ्रिज की सफाई करवा रही थी . रामू एक बाद एक भगोने फ्रिज से निकल कर रख रहा था . कुछ ऐसा था वार्तालाप -


अरे रामू, ये सुबह वाली सब्जी ठीक से ढक्कन लगा कर रख देना, शाम को काम आ जाएगी .

कल रात की काली दाल भी बच्चे खा लेंगे , ठीक से रख देना .

ये क्या है ?

मेम साब परसों वाली गोभी की सब्जी , आपने रखवाई थी .

ये तुम ले लेना , अब कौन खायेगा .

मेम साब ये पिछले हफ्ते का रायता भी पड़ा है, फेंक दूं क्या ?

खाने की चीजें क्या फेंकने के लिए होती है , ये महरी को दे देना .

मेम साब , और ये मिठाइयाँ ?

मिठाई का क्या करूं. इनको तो डायबिटीज है. पप्पू और मुन्नी को देनी नहीं है - उनका वजन ऐसे ही बढ़ता जा रहा है. एक काम करो, बादाम की बर्फी अभी रहने दो, बंगाली मिठाई तीन चार दिनों की हो गयी है , ये तुम लोग खा लेना .

और इस तरह फ्रिज काम आता है ताजा को बासी बना कर नौकर चाकरों में बाँटने के .

Thursday, August 26, 2010

लघुकथा - गन्ने का रस

तेज गर्मी झुलसा रही थी . सड़क पर इक्का दुक्का ही व्यक्ति नजर आ रहे थे . गर्मी के कारण लोग दोपहर में अपनी दुकाने बंद किये बैठे थे . मुझे नजर आया एक गन्ने का  रस निकालने वाला. उसके पास एक मशीन थी जिसमे वो एक तरफ से गन्ने को ठूंसता  था, जोर लगा कर उसके बड़े से चक्के को घुमाता था और दूसरी तरफ रस की धार नीचे बर्तन में गिरती थी . गन्ने का निचुड़ा हुआ भूसा सामने की तरफ सीधा निकाल आता था . भूसे  को फिर ठूंस दिया जाता मशीन में ,और इस बार कुछ ज्यादा जोर लगा कर उस चक्के को घुमाना पड़ता और रस पहले से कम निकलता . जब तक भूसा  सूख कर रसहीन ना बन जाए तब तक यह प्रक्रिया जारी रहती .

मैंने कहा - " ओ भैया , जरा एक गिलास रस ताजा निकाल कर देना " और वो लग गया फिर एक नए गन्ने के साथ .

सड़क के दूसरी तरफ सड़क बनाने का काम चल रहा था . गरम गरम तार कोल ड्रम  में खौल रहा था . दो मजदूर उस खौलते हुए काले चमकते हुए द्रव को सड़क पर छिडकाव कर रहे थे . दो बच्चे जो दूर से पत्थर की छोटी छोटी काँकरियों    को तसली में भर कर काफी देर से ला रहे थे , थक कर बैठ गए . उनका सारा शरीर पसीने से लथपथ था .एक मैले से लाल तौलिये से अपना सर ढक लिया . अभी शायद आधी मिनट भी वो सुस्ता नहीं पाए थे , कि एक लम्बा चौड़ा काली काली मूछों वाला आदमी कहीं से गरजता हुआ आया . दोनों बच्चों को कान पकड़ कर उठाया . पान चबाते हुए बोला - " हराम के पिल्लो, तुम्हारा बाप सवेरे पहले आकर तुम्हारी पूरे दिन की मजदूरी पूरे पंद्रह रुपैये अडवांस में ले जाता है , और तुम यहाँ बैठ कर मजे कर रहे हो . ये ठेका शाम तक पूरा करना है , कौन करेगा ? तुम्हारा बाप ?"......... दोनों के एक एक करारा झापड़ लगता है . रुआंसे  से बच्चे अपनी अपनी तसली उठा कर चल पड़ते हैं पत्थरों के ढेर की तरफ .

मेरा दिल काँप गया . मुझे लगा की ये बच्चे इस गन्ने की तरह है जिनके अन्दर का बचपन उस मिठास की तरह है , जो गरीबी की मशीन पूरे जोर से निचोड़ रही है . और इस जघन्य काम को करवा रहा है वो स्वार्थ जो इस मूछों वाले ठेकेदार के रूप में खड़ा है . अगले ही पल मुझे लगा जैसे इस गन्ने के रस का ग्राहक यानि मैं उस ठेकेदार की तरह हूँ. मेरे मन से गन्ने के रस को पीने की सारी चाह ख़तम हो गयी .मैं मेरी ही धुन में आगे बढ़ गया . पीछे से गन्ने वाले ने आवाज लगाई - : ओ भैया , आपका रस तैयार है ." मैंने सकपका के कहा - " भई , मन नहीं है "

गन्ने वाले की आवाज सख्त हो गयी - " मन नहीं है तो आर्डर क्यों दिया ? पीना हो तो पियो नहीं तो फेंक दो , लेकिन मेरे पंद्रह रुपैये निकालो."

मैंने उसे एक नजर देखा , फिर जेब से निकाल कर पंद्रह रुपैये दे दिए . मेरे होठों पर एक मुस्कराहट आ गयी . मुझे लगा कि अब वो ठेकेदार मैं नहीं बल्कि ये गन्नेवाला है जो हर हालात में अपने पंद्रह रुपैये वसूल करने पर तुला है . मेरा मन थोडा हल्का हुआ .

    

Friday, August 20, 2010

जीना इसी का नाम है !

जीना इसी का नाम है !


रांची शहर के बरिआतु  रोड पर राजेंद्र मेडिकल कोलेज से आगे जाकर एक बहुत बड़ा परिसर पड़ता है , जो किसी ज़माने में आरोग्य भवन - ४ के नाम से जाना जाता था .आज उसके अन्दर बहुत सी गतिविधियाँ चल रही है , मसलन एक स्कूल, एक छोटा सा बालगृह और एक बहुत ही सुन्दर भवन में एक वृद्ध आश्रम .इस वृद्ध आश्रम में करीब २०-२२ वृद्ध महिला और पुरुष निवास करते हैं . मैं अभी दो दिन पहले ही वहां से होकर लौटा हूँ . आप उन लोगों से बात करें तो आपको जिंदगी की सच्चाई जानने को मिलेगी.

एक  मिले पढ़े लिखे प्रोफेस्सेर साहब , बहू के हाथों अपमानित होने के बाद घर त्याग के यहाँ आकर रहने लगे. एक बुढिया मां , जिसे उसके बेटों ने घर से निकाल कर एक मंदिर में छोड़ दिया , लोगों ने सहारा देकर इस आश्रम में पहुँचाया  ; एक वृद्ध पिता जिन्होंने अपनी जीवन भर  की कमाई अपना घर बेटों के नाम कर दिया , बदले में बेटों ने उन्हें घर से बेदखल कर दिया . हाँ एक मां ऐसी भी मिली जिन्हें उनके बेटे कुछ दिनों के लिए वहां छोड़ गए थे , क्योंकि उनके घर में कोई विवाह था , लेकिन बाद में खुद मां ने ही वापस जाने से इनकार कर दिया .  यानी की प्रत्येक झुर्रिओं वाले चेहरे के पीछे छुपी थी एक दुखद कहानी . अच्छी बात ये थी की उनका अतीत जितना दर्दनाक था उनका वर्तमान उतना ही खुशहाल. कारण थे वो गुप्ता  दम्पति जो इन तमाम वृद्धों के सेवा करते थे . उन सब का भोजन, चिकित्सा, मनोरंजन - हर चीज पर उनका हमेशा ध्यान रहता . आप उनमे से किसी से भी बात कीजिये , उनका एक ही कहना था - हमारे अपने अब ये ही दोनों पति और पत्नी हैं - शत्रुघ्न और सुशीला . हमारे बेटे बेटी और परिवार , बस ये ही दोनों है .

एक और दिलचस्प बात सामने आयी. रांची शहर के पास है बहुत बड़ा इंजीनियरिंग कोलेज - बिरला इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेकनोलोजी (बी आई टी )   . इस बार सुना की वहां होटल मैनेजमेंट और केटरिंग का भी कोर्स शुरू हो गया है . अब आता हूँ असली बात पर . मैं रांची गया था १९ अगस्त को; ४ दिन पहले  यानी १५ अगस्त को बी आई टी के उस नए विभाग के छात्रों और छात्राओं ने अपना स्वतंत्रता दिवस मनाया एक अनोखे अंदाज में - उसी वृद्धाश्रम में . होटल और केटरिंग की शिक्षा ले रहे ये बच्चे अच्छे होटल के मनेजरों  और चेफ की तरह साझ धज कर आये, उन्होंने वहां की टेबलों  को फाइव स्टार होटलों की तरह सजाया . वृद्ध दादा दादियों को बैठा कर साफ़ सुथरा नैपकिन  दिया और उन्हें खिलाया स्वादिष्ट भोजन कई कोर्सेस में .  कितनी आत्माएं तृप्त हुई उस दिन !  ना सिर्फ स्वादिष्ट भोजन से बल्कि बच्चों की उस प्यार भरी सेवा से ! एक दिन के लिए ही सही उन्हें अपने पोते और पोतियाँ जो मिल गए थे .

ये सब कुछ मुझे पता चला जब मैंने वहां पड़ा हुआ दैनिक अखबार टेलेग्राफ़ देखा जिसमे उस खूबसूरत दृश्य की एक तस्वीर छपी थी. आप भी देखिये . मुझे भी गर्व है की ये बच्चे उसी कोलेज के हैं जहाँ कभी मैंने भी अपनी इंजीनियरिंग पूरी की थी . मुझे और भी अधिक गर्व है कि मैं उस महान दम्पति शत्रुघ्न और सुशीला गुप्ता का भतीजा   हूँ .

Wednesday, August 18, 2010

लघु कथा - प्रायश्चित

विमान ने उड़ान भरी. सारे यात्री सामान्य स्थिति आने कि प्रतीक्षा कर रहे थे . जब परिचारिका ने सीट बेल्ट खोलने के निर्देश दे दिए , उसके बाद विमान के अन्दर थोड़ी हलचल शुरू हुयी .कुछ यात्री अपने साथ लायी हुई पठन सामग्री में तल्लीन  हो गए. कुछ लोग सोने की प्रतीक्षा करते रहते हैं, ऐसे लोग अपनी सीट पीछे कर के सो गए . कुछ लोग सहयात्रियों से परिचय करने में लग गए .

एक यात्री बहुत डरा हुआ सा था . जब परिचारिका सुरक्षा सम्बन्धी निर्देश दे रही थी , तो उसे और भी अधिक  डर लग रहा था . उसने अपनी पास की सीट पर बैठे पादरी से कहा - "फादर, मैं पहली बार किसी विमान में बैठा हूँ, मुझे बड़ा डर लग  रहा है, मैं क्या करूं ?" 

पादरी ने कहा - " बेटे, मन ही मन यीशु को याद करो. इस वक़्त कोई खतरे की स्थिति  नहीं है , मात्र तुम्हारे मन का डर है, इसलिए प्रभु को याद करने से मन में शक्ति आती है . और कभी ज्यादा डर लगे तो मेरा हाथ पकड़ लेना."

यात्री थोडा आश्वस्त हुआ . आँख बंद करके ईश्वर को याद करने लगा . बीच रास्ते में एक जगह मौसम ख़राब मिला . विमान के कप्तान ने घोषणा की, की मौसम ख़राब है इसलिए विमान के काफी हिलने डुलने  की संभावना है , इसलिए यात्री अपनी सीट बेल्ट बांध कर ही बैठें. डरा हुआ यात्री और डर गया .

तभी एक जोरदार झटके के साथ विमान तेजी से नीचे  की तरफ आया. लोगों की चीख निकाल गयी. डरे हुए यात्री ने कस कर के पादरी के दोनों हाथ जोर से पकड़ लिए . एक और झटका लगा. वो पादरी के कंधे पर अपना सर रख के बोला - "फादर, मैं बहुत बुरा आदमी हूँ, मैंने पाप किया है . क्या मैं आपके सामने अपने पाप का कंफेसन (पाप स्वीकार करने की ईसाई पद्धति ) , ताकि यह मेरा अंतिम समय शांति से बीत जाये ."

पादरी ने  अपनी मनोदशा सँभालते हुए कहा -" बोलो बेटा, स्वीकार करने से तुम्हारे पापों का प्रभाव कम जरूर हो जाएगा."
यात्री ने कहा - " फादर, पिछले हफ्ते अपने शहर में एक बड़ी डकैती हुई थी ना , जिसमे बुजुर्ग दम्पति की हत्या कर के किसी ने उनके बीस लाख रुपैये और गहने आदि चुरा लिए थे - वो अपराध मैंने  ही किया था .मैं उनका पडोसी हूँ. पुलिस को मुझ पर शक नहीं हुआ . मैं अपने पापों के लिए प्रायश्चित करना चाहता हूँ. "

तब तक मौसम ठीक हो गया था . पादरी ने कहा - " बेटा पाप तो तुमने बहुत बड़ा किया है . ईश्वर के दरबार में एक बार आकर प्रायश्चित कर लेना. इस रविवार को समयपुर  चर्च  में आ जाना. प्रायश्चित के बाद अगर तुम्हारी आत्मा कहे तो तुम पुलिस में जाकर आत्म-समर्पण  कर देना . ये फैसला सिर्फ तुम्हारा होगा, मेरा काम तुम्हारे लिए विशेष प्रार्थना करना ही होगा ."

यात्री ने धन्यवाद किया. विमान उतर गया.सभी यात्री विदा हो गए.

अगले दिन के अखबार की हेड लाइन थी, -
"समयपुर चर्च के मुख्य पादरी की निर्मम हत्या ."   

Saturday, August 14, 2010

अति लघु कथा - कारतूस की बात

एक कारतूस के डिब्बे में कई कारतूस आपस में बात कर रहे थे .

एक गोली ने कहा - जानती हो मेरा काम है देश की सीमा की रक्षा करना

दूसरी ने कहा - रहने दे , दुश्मन के हाथ लग गयी तो फिर अपनों को ही मारेगी

तीसरी ने कहा - मैं तो देश के अन्दर के अपराधियों को मारूंगी.

चौथी ने कहा - या फिर अपराधियों की बन्दूक से निकली तो फिर ....

एक बुजुर्ग बड़ी बोर वाली गोली ने कहा - फालतू बातें मत करो .हमारा काम है मारना . हमारे अन्दर कूट कूट कर बारूद ही तो भरा है. हमारा धर्म है मारना .किसे मारना किसे नहीं मारना यह सब सोचना काम है इंसानों का .अगर वो ही नहीं समझते तो हम समझ के क्या करेंगे .

Friday, August 13, 2010

अति लघु कथा - पतझड़

घने पेड़ की छाँव में बैठे बैठे उसने मुझसे पूछा -" तुम मुझसे कितना प्यार करते हो ?"

मैंने शायराना अंदाज में उत्तर दिया - "इस पेड़ की घनी छाँव जितना "

उसने दो क्षण मुझे देखा और फिर खड़ी हो गयी - " सॉरी , मुझे पतझड़ से डर लगता है "

........................और वो चली गयी .

Thursday, August 12, 2010

लघुकथा - जय हिंद टी स्टाल

फोन  की घंटी बजी .बनवारीलाल अपने कमरे में बैठ कर दो दिन पुराना अखबार बांच रहे थे .तीन चार घंटी बज गयी. तभी दूसरे कमरे से बहू की आवाज आयी -  " बाबूजी , फोन क्यों नहीं उठाते , क्या आपको घंटी नहीं सुनती ?"

बनवारीलाल जल्दी जल्दी उठते हुए बोले- "अभी उठाता हूँ बहू ,मैंने सोचा शायद तुम्हारा फोन ........."

"बैठे बैठे ही सब सोच लेते हैं . आपको पता है ना कि मेरे सारे कॉल मेरे सेल पर आते हैं. लैंड लाइन पर बस फालतू फोन ...." बहू की कड़क आवाज आयी.

तब तक बनवारीलाल फोन तक पहुँच चुके थे - " हेलो , कौन बोल रहें हैं आप ? "

उधर से आवाज आयी -" क्या ये बनवारी लालजी  का घर है ?"

" हाँ भई, मैं बनवारी लाल ही बोल रहा हूँ . आप कौन हैं ?

" हम्म....., मियां तुम्ही बताओ हम कौन हैं ? देखें पहचानते हो क्या ?"

" अरे भई ऐसे कैसे पहचानूँगा आपको ! कुछ नाम पता तो बताइए ."

" चलो कुछ हिंट देता हूँ - जय हिंद टी स्टाल का समोसा. कुछ याद आया, मियां ?"

" जय हिंद टी ..........., कौन रहमत ?"

" वाह बनवारी, दोस्त को भूल गए , समोसा अब तक याद है . हाँ मियां पैंतालिस  साल बाद वतन लौटा हूँ . तुम्हारे शहर में आज ही आया ."

" कमाल है , पूरी जिंदगी निकल गयी , और अब आये  हो रहमत !"

" हाँ बनवारी , पुराने दिन कॉलेज के आज तमाम याद आ रहे हैं . बताओ कैसे मिलें ?"

" कैसे क्या सीधे घर चले आओ . शाम का खाना साथ में खायेंगे"

" मियां तुम्हारा पता ठिकाना ............"

तभी कमरे के अन्दर से आवाज आयी - " किसे बुला रहे हो खाने पर ..........हम लोग तो  बाहर जा रहें हैं , शाम को .नौकरों ने भी छुट्टी मांग  रखी है. किसी को बुला मत लेना ......"

बनवारीलाल ने फोन के बोलने वाले हिस्से को जरा बंद करते हुए  कहा - " बहू , मेरा बहुत पुराना दोस्त रहमत आज आया है , पैंतालिस साल बाद; उसे ही........ "

" रहमत ? मुस्लमान ? बाबूजी भूल कर के भी उसे घर मत बुला लेना . घर के अन्दर किसी बर्तन में उसे हम नहीं खिला सकते ."

" बहू, जरा धीरे बोलो.........."

" क्या धीरे बोलो , आपके अन्दर भी इतनी समझ तो होनी चाहिए ना?"

बनवारी लाल कुछ समय वैसे ही खड़े रहे . समझ नहीं पा रहे थे कि चोंगे से हाथ उठा कर क्या कहें . खैर किसी तरह हिम्मत कर के चोंगा मुह  के  पास ले गए - " रहमत , भई बात ये है .........."

"अरे भई बनवारी , सॉरी यार , आज तो नहीं आ सकूंगा . भूल गया था कि आज शाम तो मेरी कांफरेन्स   के बाद वहीँ डिन्नर है, निकलना मुश्किल होगा ."

बनवारी लाल भांपने की कोशिश कर रहे थे कि रहमत ने बहू की बात सुनी या नहीं.

" बनवारी , ऐसा करते हैं , कल सुबह मोर्निंग वाक साथ में लेते हैं , अपने कोलेज के पास नेहरु पार्क में . और वहीँ से चलेंगे अपने पुराने अड्डे जयहिंद टी स्टाल पर चाय और समोसे खाने के लिए . क्यों मजा आएगा ना ?"

बनवारी लाल का उत्साह ठंडा पड़ चूका था - " हाँ, रहमत , बड़ा मजा आएगा "

" चलो तो फिर सात बजे सवेरे नेहरु पार्क . "

बनवारी ने कांपते हाथों से फ़ोन रख दिया . दोनों आँखों में दो मोती चमकने लगे. उधर रहमत ने भी फ़ोन रख कर के जेब से रुमाल निकाल ली. दोनों दोस्तों का मिलाप दिल ही दिल में हो ही गया पैंतालिस सालों बाद.

     

Wednesday, August 11, 2010

लघु कथा - छुट्टे नहीं है

मुंबई में बाहर से आने वाली आबादी निरंतर बढती जाती है.इस के साथ ही बढती जाती है यहाँ की व्यवस्था सम्बन्धी मुश्किलें. एक समस्या है भिखारी . भिखारी बढ़ते जा रहें हैं. माना कि भीख मांगना कोई शौक नहीं , मजबूरी है ; लेकिन कुछ लोग इस मजबूरी को भी पेशा बना लेते हैं .

मैं जब घर से दफ्तर जाने के लिए निकलता हूँ , तो थोड़ी ही दूर पर पड़ता है एक ट्राफ्फिक का सिग्नल , जहाँ लाल बत्ती ही मिलती है क्योंकि हरी बत्ती बहुत थोड़ी देर के लिए खुलती है और लाल बत्ती बहुत लम्बे समय के लिए .दो तीन हरी बत्तियां हो चुकने के बाद ही कहीं मेरी गाडी आगे पहुँच पाती है .इस सिग्नल पर हमेशा मिलता था वो दाढ़ी वाला एक भिखारी .उसके हाथ में एक कपडा होता था , गाड़ी के पीछे जाकर वो सीधे गाडी को पोंछना शुरू कर देता था , तेजी से पोंछते पोंछते वो एक तरफ का काम ख़तम करके सामने की तरफ जाता , वहां से मुझसे नजर मिला कर सलाम करता और फिर उसी तेजी से मेरी वाली खिड़की के पास आकर अपना सफाई अभियान समाप्त करता . शुरू में मैं उसे १-२ रुपैये दे देता था . लेकिन जब लगा कि ये तो उसका रोज का काम है , मैंने उसे मना करने कि कोशिश की .वो था की मेरी तरफ तब तक देखने को भी तैयार नहीं होता था, जब तक वो अपना नित्य का सफाई चक्र पूरा न कर ले .

मैंने भी एक रास्ता निकाला. मैं भी उसे अनदेखा कर के अपना काम करता रहता ; वो जब अपना चक्र पूरा कर के पैसे मांगने के लिए मेरी खिड़की पर आता तो मैं उसे कह देता - "छुट्टे नहीं है ." मैंने सोचा की दो चार दिनों में ये समझ जाएगा की मैं कुछ देने वाला नहीं हूँ .लेकिन वो जिद्दी भिखारी अपना सफाई अभियान बंद करने वाला नहीं था . एक दिन जब मैंने उसे अपना रटा रटाया वाक्य बोलने के लिए उसकी और देखा तो मुझसे पहले उसने ही कह दिया - " छुट्टे तो नहीं होंगे ?" यह कह कर वो चला गया पिछली गाडी के सफाई अभियान पर . बड़ा गुस्सा आया जनाब . अजीब भिखारी है , भीख नहीं मिलती तो भी जान नहीं छोडता. उस पर ऐसा ताना सा मार कर चला गया .

अगले दिन भी उस का कार्यक्रम जारी रहा . लेकिन मैंने उस से बात तक नहीं की . खैर उसके ३-४ दिन बाद की बात है .वो अपनी दिनचर्या पूरी करके मेरी खिड़की के पास आया .जब मैंने नजर उठा कर उसे नहीं देखा तो बोला - " साहब , आप के पास कभी छुट्टे नहीं होते है न इस लिए आप से रोज माँगना बंद कर दिता है .अब मैं आपसे महीने दर महीने मांग लूँगा . ये रहा मेरा पिछले महीने का बिल तीस रुपैये का . चलेगा न साब ?" और उसके साथ एक छोटा सा बिल नुमा कागज आगे बढ़ा दिया .

Saturday, August 7, 2010

एक लघु कथा : झुग्गी और बंगला




सड़क के किनारे बनी हुई झुग्गियों में से एक उसके माता पिता की थी .आठ साल के नन्हे जगन का सारा ज्ञान उस झुग्गी के इर्द गिर्द होने वाली चीजों तक सीमित था . जब से पैदा हुआ - जन्म से लेकर नहाना धोना , शौच ,खेल कूद, लड़ाई झगडा , सोना जागना - सब कुछ इसी फूटपाथ पर हुआ . उसके लिए दुनिया की परिभाषा इतनी ही थी . माँ बाप दोनों मजदूर थे , दिन भर मजदूरी कर के लौटते . थकी हारी मां परिवार के लिए जो भी रूखा सूखा होता पका देती. बाप देसी दारू के कुछ घूँट बाहर से ही चढ़ा कर आता और आकर कटे हुए पेड़ की तरह नायलोन के फीतों से बनी हुई टूटी चारपाई पर पड़ जाता.



जगन के खेल खिलोनो में वो सामान था जो वो दिन भर कचरे के ढेर से चुन कर लाता था , मसलन बिसलेरी पानी की बोतल, टूटी हुई कंघी , बिना हाथ वाली गुडिया ,इन सब को सहेज कर रखने के लिए किसी का फेंका हुआ स्कूल का फटा हुआ बस्ता , जिस पर पीठ पर लटकाने के लिए जुड़े हुए थे दो फीते और साथ में जंग खाए हुए स्टील के बकल . जीवन में किसी चीज की कमी नहीं थी , तब तक, जब तक की सामने वाले फूटपाथ पर बने हुए एक बंगले में वो बच्चा रहने को नहीं आया था . समस्या शुरू हो गयी जब वो करीब करीब जगन की उम्र का बच्चा उस बंगले में रहने को आ गया . जगन रोज उसके ठाठ बाट देखता . सुबह सुबह वह अपनी बड़ी सी गाडी में बैठ कर , युनिफोर्म पहन कर अंग्रेजी स्कूल जाता . दोपहर में शोर करता हुआ घर में घुसता . थोड़ी देर में अपना खेलने का सामान लेकर बंगले के गार्डन में खेलने लगता .उसके पास बहुत सारी चीजें थी . क्रिकेट का बल्ला और विकेट , रंग बिरंगी फुटबाल, और कुछ बैटरी से चलने वाले खिलोने . जगन दरवाजे से थोड़ी दूर खड़ा खड़ा सब कुछ देखता. जगन को सबसे अधिक तकलीफ तब होती जब वो लड़का अपनी तीन पहिये वाली साईकिल लेकर घुमाता था .



एक दिन जब शाम को उसका बाप लौटा तो उसने जिद ठान ली - " बापू, तुम मुझे कुछ नहीं ला कर देते .सामने वाले मकान में वो बच्चा रोज नयी नयी चीजें लाता है. थोड़ी देर तो अम्मा ने बहलाने फुसलाने की कोशिश की , लेकिन जब किसी तरह भी जगन चुप होने को तैयार नहीं हुआ , तो उसके बाप को आया गुस्सा . खटिया से खड़ा हो गया और शुरू कर दी पिटाई जगन की . साथ में भद्दी भद्दी गालियाँ- "साला हरामजादा ! बड़े बड़े शौक पाल रहा है . पेट में डालने को पूरा निवाला नहीं है और लाट साहब को चाहिए सइकिल. ले और ले सइकिल......... गली के गटर में पैदा हुआ ....और साले को चाहिए .......... और ले ........" बड़ी मुस्किल से अम्मा ने उसे छुड़ाया , आँचल से आंसू पोंछते हुए ले गयी दूसरी तरफ . न जाने उस रात कितने घंटे रोते रोते सो गया जगन . अगले दिन सारी बात भूल चुका था जगन .



मुंबई की बरसात जब आती है तो बहुत जबरदस्त . इस बार मानसून की वो पहली जोरदार बरसात थी . जगन को बड़ा मजा आया . मूसलाधार बारिस में नाच कर घंटो भीगता रहा जगन .और फिर जब सड़क पर पानी भरने लगा तो जगन के आनंद की कोई सीमा न थी .बाहर से आवाज देकर बोल दिया -" बापू , बहुत मजा आ रहा है . मैं बाहर पानी में तैर रहा हूँ ." बापू को भी ये सब देख कर बहुत मजा आ रहा था . बोला - मौज कर बेटा . भगवान् ये ही मस्ती तो बिना पैसों के देता है ."



जगन के माँ बापू ही नहीं , कोई और भी जगन की ये मस्ती देख रहा था - वो सामने वाले बंगले का बच्चा खिड़की से . जब उस से रहा नहीं गया तो वो भी बाहर आ गया सड़क पर . सड़क के पानी में गोते लगाने लगा , बारिस में भीगने का मजा लेने लगा ; लेकिन ज्यादा देर नहीं ले पाया . खिड़की पर उसकी माँ आयी और आवाज लगाई - "टिंकू , कम इन साइड. बीमार पड़ना है क्या ? दिस इज डर्टी वाटर . इन्फेकसन हो जायेगा" ; लेकिन टिंकू कुछ भी सुनने के मूड में नहीं था . इतना मजा उसको आज तक किसी खिलोने में नहीं आया था . जब मम्मी ने देखा की टिंकू आने को तैयार नहीं है तो उसने टिंकू के पापा से शिकायत की . पापा अपने दोस्तों के साथ बरसात का लुत्फ़ उठा रहे थे - व्हिस्की के साथ गरम गरम पकोड़े खा कर . जब उनकी बीवी तीसरी बार शिकायत लेकर आयी तो उनका पारा चढ़ गया . गुस्से में बाहर निकले अपना छाता लेकर . कड़क आवाज में टिंकू को डांटा- "यु कम इन साइड एट वंस . ......सड़क छाप बच्चों की तरह बी - हैव मत करो ".



जगन सब कुछ देख रहा रहा था. धीरे धीरे उसे सारी घटना में बहुत मजा आने लगा था . टिंकू इतनी मस्ती में था की उसने अपने पापा की बात मानने से भी इंकार कर दिया . चिल्ला कर बोला - "सॉरी पापा . यु एन्जॉय रेन्स इनसाइड , आइ एन्जॉय इट हियर". पापाजी का गुस्सा पूरे जोर में आ गया . उन्होंने आव देखा न ताव , छत्री को अन्दर फेंका और आकर एक हाथ से टिंकू का कान मरोड़ा , और दूसरे हाथ से शुरू की पिटाई - ..." जुबान लडाता है, यही सीखा है स्कूल में .........इस गंदे पानी में खेल कर बीमार पड़ने का शौक चढ़ा है ...........और ले .................." पापाजी पर भूत सवार था ; उनके आनंद में इतना बड़ा विघ्न जो पड़ा था . वो तो भला हो मम्मी का जिसने बीच बचाव कर के छुड़ा लिया . टिंकू सुबकते सुबकते घर के अन्दर चला गया .



नन्हा जगन सब कुछ देख रहा था . उसके नन्हे मन के अन्दर कहीं बहुत बड़ा सुकून था . उसे अपनी जिंदगी से अब कोई शिकायत नहीं रह गयी थी . उसे लगा की हर बच्चा जीवन में कभी न कभी गरीब ही होता है , और हर बाप कभी न कभी इतना जालिम . हाँ , मां ही असली प्यार करती है बच्चों से .आज उसके मन में सामने के बंगले और उसकी झुग्गी का अंतर मिट गया था . ख़ुशी से उसने एक जोरदार किलकारी मारी और फिर कूद गया पानी में .

Wednesday, August 4, 2010

खेल खेल में

खेलों के क्षेत्र में बहुत क्रांति है हमारे देश में. हमारा स्तर अंतर्राष्ट्रीय हो चला है. आई पी एल में हमने बहुत नाम कमाया . सारी दुनिया को बता दिया की क्रिकेट कैसे खेला जाता है . सारे मशहूर खिलाडी यहाँ हाथ बाँध कर के खड़े थे , अपनी बोली लगवाने को .इस भाव में अपनी तो क्या लोग अपने पूरे खान दान की भी लगवा लें. अब जब इतने पैसे का लेन देन होगा तो कुछ न कुछ कहीं न कहीं तो होगा न ? कौन खाली पीली नौकरी बजाएगा ? यूँ ही बेचारे ललित मोदी को बकरा बना दिया. लेकिन थोड़ी गलती तो उसकी थी न ? अरे भाई मिल बाँट के खाते तो कौन तुम्हारी तलपट में घुसता ?


आई पी एल तो अब बासी खबर बन गया है . वैसे हमारा देश मशहूर रहा है होकी के लिए सदा. और पिछले दिनों तो और भी अधिक मशहूर हो गया . इस बार महिला होकी में . टीम के कोच श्री एम्. के. कौशिक ने अपनी कमाल की कोचिंग का परिचय दिया महिला होकी टीम के चीन, जापान , कनाडा और जर्मनी के दौरे पे. दुनिया की खबर बन गए कौशिक साहब .तकदीर ख़राब थी की एक खिलाड़न फूट पड़ी .

हिंदुस्तान की खेल कूद में तरक्की पूरे शबाब में हैं - दुनिया भर में . हमारा देश आयोजित कर रहा है - कॉमन वेल्थ गेम . दिल्ली को दुल्हन की तरह तैयार किया जा रहा है . अब इतने बड़े आयोजन में पैसे तो खर्च होंगे ही न? मीडिया वालों को क्या लेना था की , दौड़ने वाली मशीन का क्या किराया तय हुआ ? अच्छे खिलाडी अच्छी मशीनों पर ही दोड़ते हैं. यही नहीं टोइलेट पेपर रोल जैसी मामूली चीजों की भी कीमत खोल डाली. आखिर इतनी बड़ी खेल प्रतियोगिता का खिलाडी क्या अखबार से............!!!! बुरा हुआ .सुरेश कलमाड़ी बेचारे जो भी सफाई दे रहे हैं , वो उनके महंगे टोइलेट पेपर रोल से भी नहीं साफ़ नहीं हो पा रही.

कोमन वेल्थ का मतलब ही कोमन आदमी की वेल्थ है ; उसके लिए रोना पीटना क्या ? जब तक हमारे देश में ललित मोदी , कौशिक और कलमाड़ी जैसे महान खेल धुरंधर है , भारत को कांस्य पदक से ऊपर एक भी पदक का ख्वाब नहीं देखना चाहिए. हाँ कोई महानुभाव ये भी मनेज कर लें तो अलग बात है .मेरा भारत महान .