औम तच्चक्षुर्देव्हितं पुरस्ता च्छुक्रमुच्चरत I पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं श्र्णुयाम शरदः शतं प्रब्रवां शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतं भूयश्च शरदः शतात I I
यजु ३६/२४
यजुर्वेद के इस मन्त्र मे पहले चरण में ईश्वर की स्तुति है और दूसरे चरण में प्रार्थना है, अच्छे स्वास्थ्य की . इस मंत्र के पहले चरण में उस ईश्वर का वर्णन है जो की हर समय देखता है ; जो देवों के लिए हितकर है ; जो दिव्य गुणवाले लोगों के लिए , विद्वानों के लिए तथा अपने सेवकों के लिए हमेशा हितकारी है ; जो श्रष्टि के उत्पन्न होने के पहले जैसा था वैसा ही अब भी है ; जो नित्य है ; हर समय अपनी पूरी श्रेष्टता के साथ विद्यमान है ; जो प्रलय के बाद भी इसी प्रकार अपने पूरे सामर्थ्य के साथ विद्यमान होगा - (यहाँ से शुरू होता है इस मंत्र का प्रार्थना भाग)
ऐसे ब्रह्म के कृपा स्वरुप को हमारी ये आँखें सौ बरसों तक देखे , सौ बरसों तक ये प्राण हम धारण करें , सौ बरसों तक हम उस प्रभु की महिमा प्रेम से सुने , उसकी महिमा का गुणगान सौ बरसों तक करें , और इसी प्रकार हम सौ बरसों तक बिना किसी दीनता के जियें . ईश्वर की कृपा से हम सर्वदा स्वतंत्र होकर जियें , उसकी कृपा से पुनः सौ बरसों से भी अधिक देखें , जियें , सुने और बोलें.
मंत्र का अर्थ अपने आप में सम्पूर्ण है . ईश्वर की स्तुति में वेदों में बहुत कुछ लिखा गया है , यहाँ भी ईश्वर के नित्य होने के भाव का विशेष वर्णन है , इसका कारण है की हम मनुष्य अपनी पूर्ण आयु को सौ बरस का मानते हैं , इसलिए ईश्वर की नित्यता और हमारी अनित्यता के कारण ही हम ईश्वर से अपने जीवन के सौ वर्षों को पूरे स्वास्थ्य के साथ जीने का वरदान मांगते हैं . सौ बरसों तक जीना हमारे प्राणों के होने से तथा देखना , सुनना और बोलना - ये प्रार्थनाएं मनुष्य की इन्द्रियों से सम्बंधित हैं . लेकिन इन सब में बीच एक शब्द आता है - अदीन . शाब्दिक रूप से अदीन का अर्थ बनता है - जो दीन न हो. सामान्य भाषा में दीन का अर्थ है - गरीब या लाचार . गरीबी या अमीरी हमारे अपने सांसारिक कर्मों का फल है . लाचारी या परतंत्रता हमारी परिस्थितियों से जुडी होती हैं . फिर ईश्वर से इस मंत्र में अदीनता शब्द के अंतर्गत क्या माँगा गया है ?
ऐसा नहीं हो सकता की मन्त्रकार इस मंत्र में सब कुछ मांग ले और सबसे जरुरी वस्तु - बुद्धि को भूल जाए . इस मंत्र में अदीनता शब्द जुड़ा है बुद्धि से . जिस व्यक्ति का मष्तिष्क बिगड़ जाए , उससे बड़ा दीन हीन कौन है ? हम अपने समाज में ही देखते हैं , दिमागी संतुलन बिगड़ जाने के बाद व्यक्ति कैसा विक्षिप्त हो जाता है ? उसके आँख, कान , मुंह सब ठीक होते हुए भी उसके जीवन का सुख लुप्त हो जाता है , वो व्यक्ति समाज में हास्य का विषय बन जाता है ; और अति विषम स्थिति में उसे समाज से अलग किसी पागलखाने में भेज दिया जाता है . क्या इस अवस्था में कोई व्यक्ति सौ बरस जीने की कामना कर सकता है ?
एक और स्थिति समझें . किसी व्यक्ति के मष्तिस्क के किसी हिस्से में चोट लगने से ऐसा हो जाता है , कि उसके शरीर का नियंत्रण समाप्त हो जाता है . ऐसे में वो व्यक्ति अपनी इच्छा से न उठ पाता है, न बैठ पाता है ; उसे ये पता नहीं चलता कि कब उसे शौचादि के लिए जाना है , सब कुछ बिना नियंत्रण के अपने आप होता है . उसकी आँखें देखती हैं , लेकिन कुछ समझती नहीं , उसके कान सुनते हैं लेकिन कुछ ग्रहण नहीं करते , उसके मुंह से ध्वनि निकलती है , लेकिन अर्थहीन ! इस स्थिति का रूप समाज में देखने को मिलता है - किसी ऐसे व्यक्ति के रूप में जिसे पक्षाघात या लकवा हो गया है . इस से भी गंभीर दूसरी स्थिति है जिसे मेडिकल भाषा में कोमा कि स्थिति कहतें हैं . ये दोनों स्थितियां कितनी लम्बी चलेंगी ये समझ पाना मुश्किल होता है . अगर परिवार के लोग इस स्थिति में भी अगर पूरी सेवा करते रहें तो ये स्थिति यथावत बनी रहती है ; कोई आश्चर्य नहीं कि कोई व्यक्ति इस अवस्था में भी सौ वर्ष पूरे कर ले . लेकिन क्या इस स्थिति में सौ वर्ष जीने की प्रार्थना कोई करेगा ?
दुर्बुद्धि लेकर भी सौ साल तक जीने का क्या अर्थ है ? एक हत्यारा जिसका काम है समाज के लोगों को लूटना , हत्याएं करना - ऐसा व्यक्ति अपने अगले दिन की ही प्रार्थना कर सकता है, क्योंकि उसे समाज इस तरह के जीवन के साथ जीने का अधिकार नहीं देता .
इस मंत्र की प्रार्थनाओं में सबसे महत्वपूर्ण अंग है - "अदीनाः स्याम शरदः शतं " . बिना आँखों के , बिना कानों के , बिना वाणी के व्यक्ति सौ वर्ष पूरे कर सकता है , और फिर भी अपने लिए एक आनंद का जीवन बना सकता है , लेकिन बिना सुबुद्धि के ये जीवन असंभव है .
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