नील स्वर्ग

नील स्वर्ग
प्रकृति हर रंग में खूबसूरत होती है , हरी, पीली , लाल या फिर नीली

Friday, September 23, 2011

गरीबी : सरकारी परिभाषा

अंधेर नगरी के राजा महाराज चौपट सिंह अपने महल में शतरंज खेल रहे थे . महामंत्री ने आकर कहा - "महाराज हमारे देश से होकर बहने  वाली नदी में  जल  स्तर  बढ़ रहा हैक्या करें ?"
महाराज का ध्यान शतरंज की  मोहरों पर था , उन्होंने रानी जी से कहा - "बचाओ  अपने हाथी को !"  मुख्य मंत्री ने कहा - "जी महाराज !"
दो घंटे बाद फिर मुख्यमंत्री ने आकर कहा - "महाराज , नदी के पानी में तो उफान बढ़ रहा है . हमारे तकनीकी विभाग का कहना है कि जल स्तर खतरे के निशान तक चूका है , इस गति से थोड़ी देर में उसे पार कर जाएगा ."

महाराज ने हंस कर कहा - "इसमें क्या ख़ास बात है - तकनीकी विभाग से कहो कि खतरे के निशान को और ऊपर बना दो . सिंपल !"

मेरे प्रिय पाठकों , आज हमारे देश का राजकीय कारोबार कुछ इसी तरह चल रहा है . पिछले दिनों देश की योजना समिति (प्लानिंग कमीसन ) ने सुप्रीम कोर्ट में एक एफिडेविट दिया जिसके अनुसार देश में ४०.७४ करोड़ लोग गरीबी की रेखा के नीचे हैमुझे पता नहीं कि  ये कोई अच्छी खबर  थी या बुरी कि देश की १२१ करोड़ की आबादी में करीब ४१ करोड़ लोग गरीबी की रेखा के नीचे हैयानि की देश में गरीबों की संख्या एक तिहाई  आबादी हुई . इसका ये भी मतलब है की देश की दो तिहाई जनता गरीब नहीं है .

इस मतलब का मतलब निकलने के लिए मैंने थोडा और माथा पच्ची कीसमझ में ये आया की गरीबी इस बात पर निर्भर नहीं करती की व्यक्ति या उसका परिवार आर्थिक रूप से सुखी है या नहींबल्कि इस बात पर निर्भर करता है की उसकी कमाई गरीबी की सरकारी परिभाषा में सही बैठती है या नहीं१९७२ में सरकारी परिभाषा के अनुसार अगर एक व्यक्ति रोजाना डेढ़ रुपैये से अधिक कमाता था तो वो गरीब नहीं थाकमाल का राम राज्य रहा होगा १९७२ में , डेढ़ रुपैया रोज कमा कर आदमी चैन की बंशी बजा लेता थाआज तो १९७२ की तुलना में कीमतें बहुत बढ़ गयी हैं . इस लिए सरकार ने गरीबी की रेखा को बदल कर ३२ रुपैया प्रतिदिन कर दियालेकिन वो सिर्फ शहरों के लिएगाँव में कीमतें उतनी कहाँ बढ़ी हैंइसलिए गाँव की रेखा २६ रुपैये पर रोक दी गयी .

जीवन की सारी जरूरतों को भूल कर सिर्फ पेट भरने को ही जरूरत मान लिया जाए तो भी ३२ या २६ रुपैये में वो करना भी संभव नहींसब्जी भाजी दूध  वैगरह  की बात   नहीं हो रही , एक व्यक्ति सिर्फ चावल और दाल से ही दोनों समय पेट भरने की सोचे तो भी संभव नहीं . जीवन की अन्य बुनियादी जरूरतों जैसे कीदवा पानी , शिक्षा , कपडे, घर , बस का भाडा ,बिजली आदि का कोई क्या हिसाब बनाये ?

ये सारी मशक्कत सरकार को इसलिए करनी पड़ती हैक्योंकि सरकार का एक बजट है , जिसमे उसने गरीबी की रेखा के नीचे वालों के लिए कुछ प्रावधान किया हैउस प्रावधान में कितने लोग फिट होतें हैं , ये विभाग का अधिकारी कैलकुलेटर  पर निकलता हैवास्तविकता का इस गणना से कोई लेना देना नहीं . और आंकडें नीचे रखने में सरकार के लिए और भी फायदा हैजिससे की सरकार चुनाव के समय ये दावा कर सकेगी , की हमने गरीबी की रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या में कटौती कर दी .

राहुल गाँधी गरीबों के यहाँ कई बार दौरा कर चुकें हैं . एक बार उन्हें ये प्रयोग भी कर के अनुभव करना चाहिए की एक महीना किसी गरीब के यहाँ रहकर ३२ रुपैये दिहाड़ी में जीवन बिताना चाहिए

गरीबी हटाना तो शायद सरकार के वश में नहीं , लेकिन गरीबी का इस तरह मजाक उड़ना तो ठीक नहीं !   

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