दो दिन पहले अमरीका में एक जोरदार चुनावी बहस हुई - वर्तमान राष्ट्रपति बराक ओबामा और उनके सीधे प्रतिद्वंद्वी रिपब्लिकन पार्टी के मिट्ट रोमनी के बीच . बहस का सञ्चालन कर रहे थे अमरीका के एक लोकप्रिय न्यूज़ एडिटर जिम लेहरर . अमरीका में ये चुनावी प्रचार का तरीका बहुत लम्बे समय से चल रहा है , जिसमें वहां के दोनों मुख्य दलों के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार एक सीधी बहस में हिस्सा लेते हैं , जिसका सञ्चालन कोई चुना हुआ होशियार पत्रकार करता है . संचालक एक बाद एक मुद्दा उठता है जिस पर दोनों उम्मीदवार अपनी राय देते हैं . दोनों अपनी भावी योजनाओं का प्रारूप भी देतेहैं . वहां उपस्थित जनता भी सवाल करती है , जिनका उत्तर दोनों उम्मीदवारों को देना पड़ता है . इस डेढ़ घंटे के कार्यक्रम में दोनों उम्मीदवार न केवल अपनी बात रखते हैं , बल्कि अपनी वक्तृत्व कला और हास्य से लोगों को प्रभावित भी करते हैं . सारा कार्यक्रम पूरे देश के लोग विभिन्न टी वी चैनलों पर देखते हैं . इस कार्यक्रम के बाद एक अध्ययन किया जाता है विभिन्न एजेंसियों द्वारा जिसके आधार पर दोनों उम्मीदवारों की रेटिंग बताई जाती है . अमेरिका की राजनीति का ये एक बहुत महत्वपूर्ण हिस्सा है क्योंकि इस कार्यक्रम के बाद वो लोग जो किसी भी दल के कट्टर समर्थक नहीं हैं अपना मन बनाते हैं . चुनाव के निर्णय काफी हद तक प्रभावित होते हैं इन कार्यक्रमों से .
कल भारत में एक न्यूज़ चैनल ने ये चर्चा छेडी - क्या ये तरीका भारत में संभव नहीं है ? ज्यादातर नेताओं ने कहा की हमारा चुनावी मोडल अम्रीका से अलग है इसलिए हमारे यहाँ इस तरह की बहस संभव नहीं है . मेरे विचार में ये संभव नहीं होने के कारण कुछ अलग हैं ; आइये देखें उन कारणों को -
1. अमरीका में चुनाव होता है दो दलों के बीच में , लेकिन हमारे यहाँ छोटी बड़ी दर्जनों पार्टियाँ हैं . मजे की बात ये है , की सबसे बड़ी पार्टी से लेकर सबसे छोटी पार्टी का नेता भी प्रधानमंत्री बन सकता है . इस बात का गवाह इतिहास है , कि कैसे चंद्रशेखर , देवेगौडा और गुजराल बिना दो प्रमुख दलों में होते हुए भी देश के प्रधानमंत्री रहे . ऐसी हालत में चुनावी डिबेट दो व्यक्तियों के बीच नहीं बल्कि कम से कम एक दर्जन व्यक्तियों के बीच होगा .
2. अमरीका की दोनों पार्टियाँ कम से कम ये जानती हैं की उनका राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार कौन होगा . हमारे यहाँ तो हर पार्टी में कई दावेदार होंगे . उदाहरन के लिए बी जे पी किसे पेश करेगी - अडवाणी जी . मोदी जी, सुषमा जी या जेटली जी को . पहला राउण्ड तो हर पार्टी के अन्दर ही होगा .
3. अगर सभी पार्टियों के दावेदार इस बहस में उतरेंगे तो दृश्य क्या होगा - बी जे पी के नरेन्द्र मोदी , कांग्रेस के राहुल गाँधी , एस पी के मुलायम सिंह यादव , बी एस पी की मायावती , टी एम् सी की ममता बैनर्जी , समता पार्टी के नितीश कुमार , आर जे डी के लालूजी , इसके अलावा जयललिता , प्रकाश करात , चंद्रबाबू नायडू , नवीन पटनायक आदि सभी मैदान में होंगे ; सबसे बड़ा मुद्दा होगा की किस भाषा में बहस हो . अमेरिका तो पूरा अंग्रेजी बोलता है लेकिन हमारे यहाँ तो भाषाओँ का पूरा गुलदस्ता है . जिन लोगों ने पिछले दिनों ममता बनर्जी का दिल्ली में हिंदी में भाषण सुना , वो लोग समझ सकते हैं की ममता दीदी ने हिंदी भाषा के साथ वो ही किया जो कांग्रेस ने ममता दीदी के साथ किया . यानि की हर भाषा का भाषण अपने अपने क्षेत्र को ही प्रभावित करेगा .
3. अगर किसी तरह ऊपर लिखी बातों का समाधान करके देश की दो प्रमुख पार्टियों के उम्मीदवारों की बहस करवाई जाए तो उसका क्या स्वरुप होगा - 1. मनमोहन सिंह बनाम सुषमा स्वराज 2. सोनिया गाँधी बनाम अडवाणी 3. नरेन्द्र मोदी बनाम राहुल गाँधी . कांग्रेस के पास स्पीकर कम और बातें ज्यादा हैं . लीडर की जगह रीडर हैं . भाषण की जगह तू तू मैं मैं है . ऐसे में क्या निर्णय होगा कोई भी सोच सकता है .
4. और अंतिम बात मोड्रेटर या संचालक की ! अगर टाइम्स नाऊ के न्यूज़ एडिटर अर्नव गोस्वामी को मोडरेटर बना दें तो दोनों उम्मीदवार कम और अर्नव ही ज्यादा बोलेंगे . अगर प्रभु चावला को बना दें - तो दोनों उम्मीदवार मिल कर प्रभु चावला जी के खिल्ली उड़ाने वाले अंदाज पर नाराज होकर उनपर ही धावा बोल देंगे . संसद की स्पीकर मीरा कुमार को बना दिया तो वो संसद की तरह 'बैठ जाइए , बैठ जाइए ' का उद्घोष करती रहेंगी .
5. और फिर जो आंकडें सामने आयेंगे - वो बिलकुल उत्तर दक्षिण होंगे . सर्कार प्रेमी मिडिया इसे सर्कार की विजय बताएगी ; और सर्कार विरोधी मिडिया इसे विपक्ष की .आम आदमी उसी तरह उधेड़बुन में रहेगा जैसे की आज है .
कुल मिलकर निष्कर्ष ये हैं की इस तरह की बहस अमेरिका जैसे पढ़े लिखे देशों के लिए तो ठीक हैं हमारे यहाँ इस बहस का क्या फायदा होगा , जब देश की 70 प्रतिशत जनता टी वी देखती ही नहीं है . वो जो 30 प्रतिशत देखती है उसमें से 50 % वोट डालते नहीं ; लेकिन बाकी के 70 % में से 90 % वोट जरूर पड़ते हैं .
नेताओं की ओढ़ी ढकी रहे तभी ठीक है , वर्ना दुनिया जरूर जान जायेगी की हमारे नेता कितने प्रबुद्ध हैं !