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बहुत से विद्वानों ने इस्लामी मूल्यों में हो रहे बदलावों पर तालियां बजाकर खुशी का इजहार भी किया। यह भी कहा गया कि इस्लामी मूल्य जड़ नहीं है। उनमे भी काल-क्रमानुसार परिवर्तन होता रहता है। परंतु तालियां बजाने वालों की हवा जल्द ही काफूर हो गयी जब गुलनाज के इस किस्से का अंतिम पटाक्षेप हुआ। गुलनाज की सजा से माफी इस शर्त पर दी गयी है कि जेल से छूटने के बाद उसी पुरुष से शादी करेगी जिसने उसके साथ बलात्कार किया था। इस्लाम के दानिशमंदों का कहना है कि गुलनाज द्वारा बलात्कारी पुरुष से शादी करने पर ही इस्लाम की रक्षा हो सकेगी। गुलनाज ने भी अपनी इस नीयति को स्वीकार कर लिया है। उसका कहना है, इस्लामी कानून के इस निर्णय से उसकी बच्ची को बाप का नाम मिल जाएगा, और उसके भाई भी समाज में इज्जत से रह सकेंगे। अन्यथा समाज में उसके भाईयों को व्याभिचारिणी बहन का भाई कहा जाएगा।
ध्यान रखना चाहिए यह घटना मध्यकाल की नहीं, बल्कि उस 21वीं शताब्दी की है जिसे ज्ञान की शताब्दी कहा जा रहा है और ऐसा भी हो-हल्ला सुनने में आ रहा है कि समूचा विश्व एक गांव बन गया है। इस ज्ञान की शताब्दी और हो-हल्ले के बीच गुलनाज जैसी अनेकों स्त्रियां इस्लाम की रक्षा के लिए बलात्कारी से शादी करने के लिए मजबूर है। क्या इस बंद कमरे से निकलने का कोई रास्ता है?
ऐसा ही एक रास्ता अफगानिस्तान में ही तलाशने का प्रयास एक युवक ने किया था। वह इस्लाम छोड़कर इसाई हो गया। तब कुछ लोगों ने कहा यह रास्ता सही नहीं है। यह एक बंद कमरे से दूसरे बंद कमरे में जाने का प्रयोग मात्र ही कहा जा सकता है। लेकिन फिलहाल यह बहस का मुद्दा नहीं है। अफगानिस्तान के उस युवक का यह प्रयोग सही था या गलत इसका निर्णय तो बाद के काल में ही हो सकता था। मुख्य प्रश्न है कि क्या उस युवक की अपनी इच्छा से इस्लाम छोड़ने का अधिकार है या नहीं? इस्लामिक कानून ने इस पर भी अपनी निर्णय सुनाया। यह प्रयोग करने के लिए उस युवक को न्यायालय ने मृत्युदंड दिया और फांसी के फंदे पर लटकने के लिए जेल में डाल दिया गया। चर्च को लगा होगा कि इस युवक का बचना अनिवार्य है, नहीं तो दुनियाभर में उसके मतान्तरण आन्दोलन को धक्का पहुंचेगा। राष्ट्रपति पर दबाव डालकर अमेरिका ने उस युवक को बचा तो लिया लेकिन उसे अफगानिस्तान छोड़ना पड़ा। परंतु इसके साथ ही अप्रत्यक्ष रुप से चेतावनी भी मिल गई कि इस्लाम छोड़कर जाने का अर्थ है मृत्युदंड। क्योंकि चर्च सभी को तो नहीं बचा सकता । शायद इसलिए गुलनाज ने बलात्कारी से शादी करने का निर्णय लिए होगा। एक ओर मौत और दूसरी ओर बलात्कारी ।
पिछले दिनों ऐसी ही एक घटना कश्मीर में हुयी। कश्मीर में कुछ मुस्लमान इसाई हो गए। उन्होंने इस्लाम छोड़कर इसाई सम्प्रदाय में जाना क्यों बेहतर समझा इसका उत्तर तो वो ही दे सकते हैं। लेकिन इस घटना के बाद जो तहलका मचा वह काबीले गौर है, अल्पसंख्यक आयोग के आलमबरदार तुरंत श्रीनगर पहुंचे और उन्होंने मुसलमानों के अनेक संगठनों को यह विश्वास दिलाने की कोशिश की कि, इसाई संगठन आगे से ऐसा कुफ्र नहीं करेंगे। इस बार उन्हें क्षमा कर दिया जाए। जिस पादरी ने मुसलमान युवकों को यीशु मसीह का उपदेश देने की हिमाकत की थी उसे जम्मू-कश्मीर सरकार ने गिरफ्तार कर लिया और मुस्लिम संगठनों के जख्मों पर मरहम लगाने की कोशिश की। हुर्रियत क्रान्फ्रेंस के मीरवाईज उमर फारुख ने सब मुल्ला-मौलवियों को आगाह कर दिया है कि इस्लाम के किले में सेंध लगाने वाले इन दुष्टों को इक्ट्ठे होकर और डटकर मुकाबला करना होगा। संदेश बिलकुल साफ है कि इस्लाम का किला छोड़कर जाने की किसी को इज्जात नहीं दी जा सकती । इस किले में दाखिल होने के सभी दरवाजे खुले है लेकिन इससे जाने के लिए दरवाजे की बात तो दूर एक छेद तक उपलब्ध नहीं है। सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि इस किले की रक्षा के लिए कश्मीर में वहां की सरकार भी पूरी ताकत से मौलवियों के साथ है। अफगानिस्तान से लेकर कश्मीर तक, कश्मीर से लेकर सउदी अरब तक, सब जगह एक ही हालात हैं। भारत में जब चर्च हिन्दुओं को मतान्तरण करने का प्रयास करता है तो सरकार और तथाकथित मानवाधिकारवादी चर्च के साथ डटकर खड़े हो जाते हैं, और यही चर्च इस्लाम के किले में दाखिल होने की कोशिश करता है तो सरकार और मानवाधिकारवादी इस्लामी संगठनों के आगे क्षमायाचना की मुद्रा में दुम हिलाते हैं। इस प्रश्न का उत्तर अन्तत: भारत की जनता को ही खोजना होगा।
(साभार - प्रवक्ता.कॉम )
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