सुबह बहुत अँधेरी थी.हवा में अच्छी ठंडक भरी थी. रजाई से बाहर हाथ भी निकालने का मन नहीं होता था .नन्हा मनकू रजाई में दुबका पड़ा था . माँ का मन ही नहीं कर रहा था उसे इतनी ठण्ड में नींद से उठाने का .
तभी बाहर से बापू की आवाज आयी - 'अरी मनकू की मां. मनकू उठा के ना ?'
माँ ने एक हाथ से मनकू को झकझोरा और आवाज लगाई - 'अभी उठ रहा है जी.'
'अरे भागवान इतनी देर से उठाएगी तो देर हो जाएगी . मास्टर जी ने कहा था की बच्चे को सात बजे तक भेज देना .' - हलके गुस्से में बापू की आवाज थी .
मनकू बेचारा ठण्ड और नींद - दोनों से परेशान था . मां ने जल्दी जल्दी में उसका मुह धोया. ठन्डे पानी के छींटे उसके कमजोर शरीर को अन्दर तक हिला गए . सात- आठ साल का ही तो था वो. बापू चाहते ते की पढ़ लिख कर आदमी बन जाये . मां बेचारी भी चाहती तो येही थी लेकिन बचपन पर ऐसा कठोर अनुशासन नहीं देख पाती थी. खैर पांच सात मिनटों में बिना किसी नाश्ता पानी के मनकू रवाना हुआ.
मास्टरजी के दरवाजे पर तो सांकल लगी थी. डरते डरते खटखटाया .किसी ने नहीं खोला. हिम्मत जुटा कर थोडा जोर से खटखटाया. अबकी अन्दर से आवाज आयी - कर्कश स्वर में. किसी नारी की -' सवेरे सवेरे कौन आ मरा'
मनकू सहम गया .धीरे से बोला - मैं मनकू . मास्टरजी ने बुलाया था . आवाज और कर्कश हो गयी- ' ये मास्टरजी तो ना खुद सोता है और ना मुझे सोने देता है. ओ छोरे तू बैठ अभी बाहर.......'
मास्टरजी की आवाज आये- ' रुकमनी , किसे डांट रही हो ? अरे वो मनकू होगा ! आने दो उसे . सुबह सुबह उठने में बहुत तकलीफ होती है ना. जरा घंटा आधी घंटा पैर दबा देगा .'
'ठीक है . तुम्हारे दबा ले तो मेरे पास भेज देना . थक जाती हूँ सारा दिन तुम्हारी गृहस्थी चलाते चलाते.'- रुक्मिणी खुश होकर बोली.
मास्टर जी खुशामद की आवाज में बोले- ' इस्सी लिए तो .......'
नए विषय पर एक तेज़ प्रहार किया.. बेहतरीन.. प्रभावशाली लघुकथा.. लिखते रहिएगा..
ReplyDeletevicharneey laghukatha. primary education ki sachchai ke karib.
ReplyDeleteबहुत खूब ....आज भी गाँवों में ऐसा होता है.....इन सब को देखकर लगता है की आखिर हम कब सुधरेंगे?आपके ब्लॉग पर आकर बहुत अच्छा लगा.....आप बहुत अच्छा लिखते हैं.....मेरी शुभकामनाये.
ReplyDeleteकभी फुर्सत मिले तो हमारे ब्लॉग पर भी आयें..
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