रोज की तरह आज भी सुबह की सैर के लिए बगीचे में गया . रोज मिलने वाले लोग मिलने लगे . मजे की बात ये है की कोई भी व्यक्ति किसी को देश के गणतंत्र दिवस की बधाई नहीं दे रहा था . मैंने एक दो लोगों को दी तो उनका उत्तर कुछ इस अंदाज में आया जैसे की ये कोई बधाई देने की बात न हो . मजे की बात ये है की दिवाली , नया वर्ष, क्रिश्मस आदि पर हर व्यक्ति एक दूसरे को बधाई देता हुआ नजर आता है .
पार्क में रोज बजने वाला भजन भी आज नहीं बज रहा था . इतने में कहीं से एक बांसुरी बजने की धुन सुनाई पड़ी . बांसुरी पर कोई व्यक्ति एक मधुर धुन बजा रहा था - मेरे देश की धरती सोना उगले ....! चूँकि वो पार्क के बाहर से बजा रहा था इसलिए उसे देख पाना संभव नहीं था . लेकिन एक के बाद एक उसने जो धुनें बजायी , जैसे की - ऐ मेरे वतन के लोगों , दे दी हमें आजादी , आओ बच्चों तुम्हे दिखाएँ ...........वगैरह , ऐसा लगा जैसे उसने गणतंत्र दिवस की इस सुबह को एक राष्ट्रीय जलसे की खुशबू से भर दिया . ऐसा जलसा जिसमे न कोई भाषण थे , न कोई आयोजक , न कोई मंच और न कोई माइक . श्रोता थे आस पास के सभी लोग और केंद्र था वो बांसुरी वाला जो किसी को नजर नहीं आ रहा था .
पार्क के बाहर निकल कर मैंने उस बांसुरी वाले को ढूँढा . वो पार्क के बाहर एक दिवार के पास अपनी बांसुरियों का एक बहुत बड़ा गुलदस्ता सा बना कर बजा रहा था , और बेचने की कोशिश कर रहा था . मैंने उसे गणतंत्र दिवस की बधाई दी , उसके संगीत की तारीफ की और फिर सौ रुपैये में एक अच्छी सी बांसुरी खरीदी .
बचपन में स्कूल में बांसुरी सीखी थी ; उसे ही याद कर के बजाने की कोशिश कर रहा हूँ . बांसुरी जैसी भी बजे बहरहाल मैं बहुत खुश हूँ .
मेरे प्रत्येक पाठक को भारत के गणतंत्र दिवस की हार्दिक बधाई !
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