नमूना 26 जुलाई की बरसात का |
आधी डूबी हुई बस उस दिन की दास्ताँ बयान करती है |
मेरा घर है जुहू में और उन दिनों मेरा दफ्तर होता था मस्जिद बन्दर इलाके में . गाडी से आने जाने में भी सामान्य दिनों में औसतन डेढ़ घंटे का सफ़र हुआ करता . उस दिन मै और मेरा बेटा पराग एक साथ दोपहर का खाना खा रहे थे - रोज कीतरह करीब दो बजे . बाहर सुबह से ही बरसात बदस्तूर जारी थी . ये हर वर्ष होता है इसलिए कोई ख़ास बात नहीं थी . करीब सवा दौ बजे मेरी पत्नी रेणु का फोन आया की जुहू की तरफ बहुत जोरदार बरसात हो रही है , साथ में उसने हलके से कह दिया की कोई विशेष काम न हो तो निकल जाओ . मैंने कहा अगर ऐसे निकालेंगे तो फिर पूरे महीने रोज ही निकलना पड़ेगा .
ये लोग खड़े हैं रेल की पटरियों के दोनों तरफ प्लेटफोर्म पर |
बाद में ये गाडी पूरी डूब गयी थी |
आधी घंटे इन्तजार करने के बाद अपने सेल फोन से सबसे संपर्क करना शुरू किया . पत्नी से लगातार बात हो ही रही थी . उसने सलाह दी की मुझे वहीँ कहीं किसी होटल में या किसी जानकार के यहाँ शरण लेनी चाहिए . मैंने अपने एक रिश्तेदार को फोन किया , क्योंकि मुझे याद आया की उनकी ससुराल इसी इलाके में कहीं है . उन्होंने मुझे वहां तक पैदल चल कर जाने का रास्ता बताया . मैं और पराग गाडी से निकल कर चल पड़े ; ड्राइवर से कहा की गाडी को कहीं ढंग से खड़ा कर के उसी जगह आ जाए .
रेलवे स्टेसनों पर शरण ली रेल यात्रियों ने |
जब हम सडक पर निकले तब हमें अंदाज हुआ बरसात के तीखेपन का . पानी कमर तक पहुँच चुका था . आगे जाकर देखा तो पाया की सभी गाड़ियों के ड्राइवर अपनी अपनी गाड़ियों को वहीँ लोक कर के चले गए हैं . यानि की उस रस्ते पर कोई भी गाडी अपनी जगह से हिलने की स्थितिमे नहीं थी . हम पहुंचे हमारे गंतव्य पर जहाँ घर की स्त्रियों ने हमारा स्वागत किया . पता चला की घर के पुरुष किसी और जगह पर हमारी ही तरह फंसे हुए हैं . बस इसी एक कारण ने उस दिन पूरे शहर को एक परिवार के रूप में बदल दिया . हर व्यक्ति आये हुए शरणागत में अपने घर के व्यक्ति - अपने पति . पुत्र देवर आदि को ढूंढ रहा था .
बस अड्डे भी शरण के रूप में ही काम आये |
उस दिन सब कुछ संभव था |
अगली सुबह का नजारा भी बदला नहीं था . एक अंतर ये हुआ की रात में किसी वक़्त घर का छोटा बेटा घर पहुँच चूका था . उन्होंने दोपहर 12 बजे तक हमें निकलने नहीं दिया . उसके बाद हम बिलकुल हाथ जोड़ कर धन्यवाद कर के निकल गए .गाड़ियाँ थोड़ी थोड़ी निकल चुकी थी . धक्का देकर गाडी को उस रास्ते से बाहर किसी खाली सडक तक लाये . भगवन की दया से गाडी स्टार्ट हो गयी . पैदल की स्पीड से गाडी को बंदर तक लाये . वहां पता चला की वहां से आगे गाड़ियाँ बिलकुल बंद है . एक जगह गाडी को खड़ा किया और पैदल चल पड़े जुहू तक जाने के लिए . हमें कम से कम डेढ़ दौ घंटे लगे इस पदयात्रा में . सड़कों पर कमर तक पानी था . लोग उंचाई की जगह पर कतारों में चल रहे थे . उसके दो कारण थे - एक तो सड़कों के बीच का डीवाइडर ऊंचा था , दुसरे उस पर चलने से किसी गड्ढे में पैर फंसने का डर नहीं था .
पटरियों पर रेंगता जीवन |
मुंबई के विभिन्न इलाकों से पता चल रहा था , की लोग सड़कों पर डूब कर मर गए ; कालीना में मकानों की पहली मंजिल तक पानी चढ़ गया ; एक अकेली बुढिया जिसने घर की डाइनिंग टेबल पर शरण ली थी , वो पानी के धीरे धीरे बढ़ते रहने से घर में डूब गयी ; जुहू में दो बच्चे अपनी गाडी लोक कर के बैठे थे , गाडी का ऐ सी ख़राब हो गया ; और शीशे नीचे करने वाला इलेक्ट्रोनिक सिस्टम काम करना बंद कर दिया , दोनों बच्चे घुटन से गाडी में मर गए - न जाने कितनी घटनाएँ घटी उस दिन !
मेरे घर पर कुछ काम चल रहा था ; 3-4 मिस्त्री रात भर मेरे यहाँ ही रुके थे , पत्नी ने उन्हें भोजन करवाया था . और सबसे विचित्र बात ! इतनी बरसात में जब की सब कुछ बंद हो चूका था - बिजली , टी वी , फोन आदि - हम सबसे अधिक परेशान थे पानी के अभाव से ! हैं न विचित्र बात ! मकान के टैंक में पानी समाप्त हो चूका था . पानी चढाने वाली मोटर पानी में पड़ी पड़ी ख़राब हो चुकी थी . आस पास की दुकाने बंद दी जहाँ पानी की बोतलें खरीद पाते . जब उस दिन कुछ भी कर पाना संभव नहीं था तो मैंने बैठ कर लिखना शुरू किया - एक छोटी सी कविता लिखी . जो इस प्रकार है -
ये कैसी बरसात
ये कैसी बरसात
जीवन देने वाली
गिरी है बन के गाज
निकले थे लोग
घर से सुबह
दिन भर के जीवन के लिए
लौटे नहीं
रातों को भी
आशंकाएं मन में लिए
काली थी कैसी रात
ये कैसी बरसात
ये कैसी बरसात
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