दर्शन और विज्ञान के बीच हमेशा एक तर्क वितर्क की स्थिति रही है . ये स्थिति भारत में उतनी गंभीर नहीं जितनी पाश्चात्य देशों में है ; इसका कारण है की भारतीय आम तौर पर जन्म से ही धार्मिक होतें हैं , विज्ञान उन्हें शिक्षा के रूप में प्राप्त होता है , इसलिए विज्ञान उनके विश्वासों को चुनौती नहीं देता .
विश्व में दर्शन और विज्ञान दो परस्पर विरोधी धाराएँ मानी जाती रही है .विज्ञान-विदों का ये आरोप होता है की दार्शनिक सच्चाई से दूर अपने काल्पनिक जगत में विचरण करतें हैं . अपनी आराम कुर्सी पर बैठ कर वो लोग कुछ मनगढ़ंत परिकल्पना कर लेतें हैं और फिर उसी कल्पना की गिरफ्त में वो अपने विचार बनाते रहतें हैं . उदहारण देते हैं गैलिलेओ जैसे वैज्ञानिकों का, जिनके वैज्ञानिक दृष्टिकोण को तत्कालीन दार्शनिकों ने धोखा बताया और उन्हें अपनी बात को त्यागने पर मजबूर किया . विज्ञान का एक और गंभीर आरोप रहा है दर्शन पर - दर्शन अपने विश्वास पर इतना अडिग रहता है की सत्य को कभी स्वीकार नहीं करता और इस तरह विश्वास को सत्य का शत्रु बना लेता है .
अगर हम भारतीय दृष्टिकोण से देखें तो हम पायेंगे की दर्शन और विज्ञान एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. दोनों का आधार एक है - जिज्ञासा ! मनुष्य के अन्दर एक नैसर्गिक गुण है - जिज्ञासा . वह हर चीज का कारण ढूंढता रहता है. इस ढूँढने की प्रक्रिया दो है - दर्शन और विज्ञान . विज्ञान का जन्म दर्शन की कोख से हुआ है . दर्शन एक दृष्टिकोण देता है - विज्ञान उस दृष्टिकोण के पुष्टिकरण के लिए कार्यरत होता है . जब विज्ञान की खोज दर्शन के विश्वास की पुष्टि कर देती है तो दोनों में कोई विरोध नहीं होता ; बल्कि दोनों अपनी अपनी अपनी जगह मजबूत हो जाते हैं . इसके विरुद्ध जब विज्ञान अपने प्रयोगों और पूर्व स्थापित नियमों के आधार पर दर्शन को गलत ठहराता है तो स्थिति टकराव की बनती है . सवाल खड़ा हो जाता है श्रेष्ठता का . और ऐसी स्थिति ही विषय होना चाहिए दर्शन शास्त्रियों का , जहाँ हठ त्याग कर उन्हें वास्तविकता तक पहुंचना चाहिए .
सत्य और विश्वास में वही अंतर है जो मनुष्य और परमात्मा में है . जहाँ तक मनुष्य की बुद्धि सक्षम है वहां तक मनुष्य विज्ञान की सहायता से हर सत्य तक पहुँचता है . इस सत्य को सही मानना उसका अधिकार भी है और उचित भी . जो धारणाएं प्रयोगों और उनसे निकलने वाले निर्णयों पर आधारित है वो मान्य होती हैं . उदहारण के लिए चन्द्रमा के धरातल और उसके मंडल पर मनुष्य की प्राप्त की गयी जानकारी . अगर दुनिया का कोई दार्शनिक चन्द्रमा को लेकर अभी भी गपोड़ों में विश्वास करेगा तो वो परिहास का ही कारण होगा .क्योंकि मनुष्य अपने प्रयासों से चन्द्रमा तक पहुँच गया और जो उसने वहां जाकर अनुभव किया वो ही सत्य है , ना कि हजारों वर्षों से चला आ रहा कोई विश्वास .
लेकिन जहाँ विज्ञान की सीमा समाप्त होती है वहां शुरू होती है दर्शन की सीमा . जिन प्रश्नों के उत्तर विज्ञान चाह कर भी नहीं निकाल पाता वहां मनुष्य की जिज्ञासु प्रवृति कुछ परिकल्पनाएं करती है . उन परिकल्पनाओं से पैदा होने वाले प्रश्नों का समुचित उत्तर खोजती है. जब वो उत्तर उन परिकल्पनाओं को और पुष्ट करतें हैं तब वो जिज्ञासा अगले प्रश्नों तक पहुँच जाती है . उदहारण के लिए - विज्ञान ने पृथ्वी, चन्द्रमा, सूरज, नक्षत्रों के विषय में बहुत सी जानकारी तो हासिल कर ली - लेकिन अगर पूछें कि इस विशाल ब्रह्माण्ड की गति को नियमबद्ध कौन करता है - तो उसके पास इस प्रश्न का उत्तर नहीं है . यहाँ आकर दर्शन की परिकल्पना एक विश्वास को जन्म देती है - एक वृहद् शक्ति है जिसके अन्दर सभी लोक लोकान्तरों को नियमबद्ध तरीके से चलाने की क्षमता है - जिसे हम ईश्वर कहतें हैं . विज्ञान के पास इस बात को न मानने के कोई कारण नहीं है , लेकिन अगर वैज्ञानिक हठधर्मिता से इसे मानने से इनकार करे तो उसका कोई अर्थ नहीं . इसे न मानने की स्थिति में उसे इस मौलिक प्रश्न का उत्तर देना पड़ेगा की ब्रह्माण्ड की रचना और फिर इसका सञ्चालन कौन करता है ?
उसी प्रकार एक उदहारण और लेते हैं - मानव शरीर का . आज का चिकित्सा विज्ञान बहुत विकसित हो चुका है. मुश्किल से मुश्किल बिमारियों का इलाज निकल चुका है . शरीर की धड़कन, रक्त चाप , शरीर के निर्माण के अवयव आदि का पता लगा लेता है . इन सब बातों में दर्शन को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए . इलाज के परिणाम सामने आते रहते हैं . लेकिन फिर इस चिकत्सा विज्ञान की भी अपनी सीमायें हैं . विज्ञान मनुष्य के रक्त की सफाई कर सकता है , उसे एक मनुष्य से निकाल कर दूसरे मनुष्य को दे सकता है - लेकिन क्या वो इस रक्त की रचना कर सकता है . मनुष्य की मृत्यु से लड़ सकता है लेकिन क्या वो उसे रोक सकता है ? और इस से भी अधिक गहन प्रश्न - वो क्या था जो मनुष्य के शरीर से निकलने के बाद मनुष्य एक शव बन जाता है ? और वो जो निकलता है वो कहाँ जाता है ? बस यही समाप्त होती है विज्ञान की सीमा और शुरू होती दर्शन की सीमा . दर्शन अपने परिकल्पित ईश्वर को कारण मानता है- इन सब अनुतरित घटनाओं का . जब मनुष्य और सोचता है की क्यों कोई व्यक्ति जल्दी मर जाता है , या बहुत कष्ट पाकर मरता है ; इतना ही नहीं वो सोचता है की क्यों कोई प्राणी जन्म लेता है , और क्यों कभी मनुष्य और कभी और जीव जंतु का जन्म होता है तो दर्शन की सोच पहुँचती है - पुनर्जन्म , कर्मफल सिद्धांत , अलग अलग योनियों का कारण आदि तक . इन सब अवधारणाओं के पीछे एक और बात छुपी होती है - इन सब मान्यताओं का समाज पर क्या असर पड़ेगा . उदाहरण के तौर पर कर्मफल का सिद्धांत मनुष्य को अच्छे कर्म करने के लिए प्रोत्साहित ही करेगा , बुरे कर्म करने से भयभीत करेगा .
इस प्रकार हम देखतें हैं की विज्ञान और दर्शन दोनों ही मनुष्य के मित्र हैं . विज्ञान की खोज मनुष्य के भौतिक जीवन में खुशियाँ लाती हैं तो दर्शन मनुष्य के गुण कर्म और स्वाभाव में सुधार लाता है . दुर्भाग्य से दोनों का दुरुपयोग शुरू हो गया . विज्ञान का उपयोग जहाँ मनुष्य के विनाश की सामग्री में शुरू हो गया , वहीँ दर्शन में गलत मिलावट के कारण अन्धविश्वास का प्रवेश हो गया . दर्शन के कर्मफल से पैदा होने वाले भय का दुरुपयोग कर के लोगों ने मनुष्य को सच्चाई से दूर कर के ढकोसलों में फंसा दिया . विज्ञान के दुरुपयोग ने परमाणु बम और अन्य हथियारों को जन्म दिया . गलत विश्वासों ने आतंकवाद जैसे राक्षस को जन्म दिया .बुराई विज्ञान या दर्शन में नहीं है , बुराई है इनके दुरुपयोग में . आवश्यकता है विज्ञान और दर्शन को एक साथ बैठ कर एक स्वस्थ और भय रहित विश्व का निर्माण करने की .
No comments:
Post a Comment