नील स्वर्ग

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Sunday, February 17, 2013

मानवीय दृष्टिकोण और अफज़ल गुरु की फांसी

  अफज़ल गुरु को फांसी हो ही गयी . ये फांसी तो तय हो चुकी थी 7-8 वर्षों पहले  ही . ये तो होनी ही थी और होनी चाहिए भी थी, इसलिए हो भी गयी। मुद्दा ये तो हो ही नहीं सकता की अफज़ल गुरु को फांसी क्यों दी गयी !
मुद्दा ये है की फांसी इतनी चुपचाप और जल्दी बाजी में क्यों दी गयी .

सर्कार ने बहुत समझदारी से काम लिया है . अगर ये खबर किसी भी रूप में बाहर आ जाती तो कश्मीर की घाटी में बैठे अलगाव वादी गुट ऐसी  आतंक की स्थिति पैदा कर देते , कि  सरकार के लिए फांसी देने का काम धर्म संकट हो जाता.

जम्मू कश्मीर के विभाजनवादी गुटों का प्रलाप तो समझ में आता है , लेकिन  वहां के मुख्य मंत्री श्री  ओमर अब्दुल्ला ने फांसी के 2-3 दिन बाद  सुर बदल लिए . उनको शिकायत थी की गुरु की पत्नी को पहले क्यों नहीं मिलवाया गया ; यहाँ तक की फांसी की सरकारी सूचना भी उन्हें डाक घर के माध्यम से भेजी गयी . ये भी आरोप लगा की देश के कानून के अनुसार अफज़ल गुरु को अपने परिवार से मिलने  का अधिकार था .

मानव अधिकार और   मानवीय दृष्टिकोण मानव के लिए होता है . अफज़ल गुरु जैसे खूंखार आतंकवादी के साथ मानवता और उसके अधिकारों का सवाल बेमानी है . क्या ये आतंकवादी उन निर्दोष निरपराध और मासूम लोगों को ये  मौका  देते हैं की पहले जाकर अपने परिवार से मिल आओ , उसके बाद  बम  फोड़ेंगे . संसद की रक्षा में शहीद होने वाले बहादुर सैनिक क्या अपने घर वालों से ये कह के आये थे की शाम को नहीं लौटेंगे .

पागल कुत्तों को  सीधा गोली मारना पड़ता है ,  उनके साथ पालतू कुत्तों के जैसा व्यवहार नहीं होता . जहाँ तक अफज़ल गुरु के परिवार के साथ किसी प्रकार के अन्याय होने का सवाल है - तो सबसे बड़ा अन्याय उनके साथ किया है खुद अफज़ल गुरु ने . क्या उसे पता नहीं था कि जिस रस्ते पर वो चल रहा  था  , वो  सीधा फांसी  के तख्ते तक जाता है . खुद अफज़ल ने ही अपनी पत्नी के लिए दुखों की वसीयत लिख दी थी .

ओमर अब्दुला जैसे नेता की प्रतिक्रिया उनकी गलत सहानुभूति का सन्देश ही देती है .  

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