एक कहानी याद आती है .
एक बाप और बेटा कहीं यात्रा पर पैदल जा रहे थे . साथ में उनका एक गधा चल रहा था . रस्ते में किसी ने व्यंग किया - देखो , कैसे बेवकूफ है
; दोनों पैदल चले जा रहे हैं , गधे पर नहीं बैठते . दोनों ने सोचा चलो गधे
पर बैठ जाते हैं . फिर किसी ने फिकरा कस दिया - दो दो मुस्टंडे एक बेचारे निरीह
प्राणी पर लाद कर जा रहे हैं . बाप ने कहा - बेटा, मैं उतर जाता हूँ , तो बैठा रह .
फिर किसी ने फिकरा कसा - क्या जमाना है , जवान बेटा तो गधे पर मजे से बैठा है ,
बूढा बाप पैदल चल रहा है . बेटा बोला - बापू, लोग ठीक कह रहे हैं ; ये अच्छा नहीं
लग रहा . आप बुजुर्ग हैं , आप गधे पर बैठो , मैं नीचे उतरता हूँ . फिर एक व्यंग आ
गया - देखो बाप है की कसाई. इतनी गर्मी में बेटा पैदल चल रहा है , लेकिन जालिम बाप
मजे से सवारी कर रहा है . यानि दुनिया तो कुछ न कुछ कहेगी ही .
यही हुआ टीम अन्ना के साथ . जब टीम अहिंसक तरीके से अनशन के द्वारा लोकसभा में
बैठे प्रतिनिधियों से गुहार कर रहे थे लोकपाल की ; तब लोकसभा में नेताओं के वक्तव्य
आते थे ; कोई भी कानून सड़कों पर नहीं बनते . कानून बनते हैं लोकसभा में जहाँ चुने
हुए जन प्रतिनिधि देश के हित के निर्णय लेते हैं . कई महानुभावों ने तो तो अन्ना
को चुनौती दे दी , की हिम्मत हो तो हमारी तरह चुनाव लड़ के दिखाओ ; और फिर बनाओ जो
कानून तुम्हे बनाना है . एक साल के संघर्ष के बाद टीम अन्ना ने कल सबको चौंका दिया
- ये कह के अगर यही रास्ता बचा है तो हम भी तैयार है चुनाव लड़ने के लिए .
अब वही सारे महापुरुष कह रहे हैं की इनका असली अजेंडा तो यही था , सत्ता में
आने का ! वाह ! चित्त भी मेरी और पट भी मेरी ! ये बहुत सही विचार है टीम अन्ना का
. एक वर्ष के संघर्ष में उन्होंने अपने लिए ऐसी छवि बना ली है की - किसी भी
चिंतनशील व्यक्ति के लिए अन्ना की पार्टी ही पहला विकल्प होगी .
हार में से ही जीत का रास्ता निकलता है . इस यु पी ऐ सर्कार ने टीम अन्ना
का तिरस्कार और बहिष्कार करने में कोई कमी नहीं रखी .बेशर्मी से इन बहादुर युवकों
के अनशन को भी अनदेखा करते रहे . और इसी परिस्थिति ने जन्म दिया टीम अन्ना के इस नए
विचार को .
मेरी पूरी सहमति और शुभकामना - इस बहादुर सेनापति की बहादुर टीम को !
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