कल रात से सरकार ने अचानक पेट्रोल के दामों में साढ़े सात रुपैये प्रति लीटर की भडोतरी कर दी . ये करीब करीब १० प्रतिशत होता है . इतने गंभीर कदम से पूरे देश में हाहाकार मचा हुआ है . सरकार सफाई देने की नाकाम कोशिशों में लगी है . सरकारी प्रवक्ता टेलीविजन चैनलों पर घडियाली आंसू बहा रहें हैं . कुछ ऐसा दिखावा कर रहें हैं की उनके पास ऐसा दुखद कदम लेने के सिवा कोई चारा नहीं था . सफाई के नाम से जो कुछ परोसा जा रहा है उसमे मुख्य कारण ये बताये जा रहे हैं - तेल कंपनियों का नुक्सान , रुपैये के मूल्य में आई गिरावट , गरीबों की मदद के लिए अमीरों पर टैक्स ! आइये जरा देखें की सच्चाई क्या है .
आज के समय में भारत अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चा माल या क्रूड खरीद रहा है करीब सौ डॉलर प्रति बैरल में . आज के डॉलर के ५६ रुपैये के भाव के हिसाब से एक बैरल का मूल्य होता है ५६०० रुपैये . अगस्त २००८ में भारत ये बैरल खरीद रहा था ५९०० रुपैये में . कारण ये है की उस समय क्रूड का भाव ज्यादा था भले ही रुपैये का मूल्य मजबूत था . आइये आगे बढ़ें - एक बैरल क्रूड का अर्थ है करीब १५० लीटर तैयार पेट्रोल . क्रूड का आयात कर के उसके पेट्रोल बनाने तक का खर्च होता है करीब १२ डॉलर यानि की ६७२ रुपैये . इसमें सारे खर्च शामिल हैं जैसे की - क्रूड और तैयार माल का ट्रांसपोर्ट , रिफाइनिंग खर्च , तेल कम्पनी का मुनाफा ( करीब १० प्रतिशत) डीलर का कमीशन वगैरह ! अब जरा गणित लगायें की १५० लीटर तैयार माल की कीमत हुई ५६०० रुपैये और ६७२ रुपैये मिलकर ६२७२ रुपैये ; यानि की अगर किसी किस्म का टैक्स न लगे तो ये दाम उपभोक्ता के हाथों में होगा ४२ रुपैये !और देश में आज तेल बिक रहा है ७७ से लेकर ८१ रुपैये में . ये ४५ - ४९ रुपैये का बोझ अलग अलग टैक्सों का है जैसे की - बेसिक एक्ससाइज ड्यूटी , एडिसनल ड्यूटी . स्पेसल एडिशनल ड्यूटी , सेस , एडिसनल सेस और इन सब के ऊपर राज्य सरकारों द्वारा लादा गया मनमाना सेल्स टैक्स . जब पूरे देश में वैट लागू करने की बात हो रही थी तब बहुत सी राज्य सरकारें इस शर्त पर तैयार हुई थी की पेट्रोल और डीजल वैट के दायरे में नहीं रखा जाएगा . पेट्रोल आदि राज्य और केंद्र सरकार की दुधारू गायें हैं . इसलिए सरकार का घडियाली आंसू बहाना बेमानी है .
ये तो था पेट्रोल की कीमत पर एक दृष्टिपात ; अब जरा सरकार का दूसरा बहाना भी सुने - तेल कम्पनियों के घाटे की दुहाई ! बात सीधी है , तेल कम्नियों की रिफाइनिंग की कीमत कुछ बेहिसाब बढ़ नहीं गयी है, लेकिन उनका बेचने का दाम तो सरकार तय करती है . सरकार बड़ी चालाकी से अपने टैक्सों का पिटारा तो कम करने के लिए खोलती नहीं , कीमतों को कम रखने के लिए विक्रय मूल्य घटा देती है . डीजल या किरोसिन की सब्सिडी भी इसका हिस्सा है . इसके घातक परिणाम जो भविष्य पर पड़ रहें हैं वो भी चौंका देने वाले हैं . ऐसी अवस्था में सभी पी एस यु नें नए रिफाइनिंग प्रकल्पों में पैसा लगाना बंद कर दिया है , या कम कर दिया है . निरंतर घाटे की बात सुन सुन कर कौन करेगा ऐसा निवेश ? नए स्त्रोतों की खोज का काम ठप्प पड़ जाएगा . जिन निवेशकों ने इन कम्पनियों में पैसा लगाया था , वो अपने पैसों की सलामती लिए बाहर निकलने का रास्ता ढूंढ रहें हैं . और आम जनता में जिन्होंने इन कम्पनियों के शेयर ले रहें हैं उन्हें इनसे किसी किस्म का डिविडेंड मिलने की आशा नहीं है .
सरकार का अगला बहाना - रुपैये की कीमत में गिरावट ! सही है की पिछले दिनों में रुपैया डॉलर के सामने ५१ रुपैये से बढ़ कर ५६ रुपैये हो गया , यानि की १० प्रतिशत का अंतर ; लेकिन सरकार ये क्यों नहीं बता रही की क्रूड की कीमत भी १२० डॉलर ( प्रति बैरल ) से घट कर १०० डॉलर हो चुकी है - सीधा सीधा २० प्रतिशत का फायदा ! और रुपैये की गिरावट रोकने के साधन तो रिजर्व बैंक अपनाती ही है ; शायद अभी भी अपनाएगी . सरकार का ये बहाना भी लचर है .
सरकार कहती है की पैसे वालों की सब्सिडी बंद करने का रास्ता चुना है उसने ! कैसी सब्सिडी ? ऊपर दिए आंकड़े बताते हैं की पेट्रोल के वास्तविक मूल्य पर केंद्र और राज्य सरकार ८३ % का टैक्स लादे बैठी हैं - सब्सिडी कौन किसको दे रहा है ? रहा सवाल आमिर गरीब का तो सर्कार की परिभाषाओं का कोई मतलब नहीं . अगर दो पहिया चलने वाले लोग अमीर हैं तो फिर इस सर्कार से क्या उम्मीद की जाए . गोवा की सरकार ने पिछले मार्च में अपने सेल्स टैक्स में से ११ रुपैये की कटौती की - इस उदहारण से ये बात स्पष्ट हो जाती है की कीमतों को कम किया जा सकता था . सरकार चलाना सरकार का काम है , लेकिन अपनी गलत नीतियों से जनता की कमर तोड़ कर सरकार कितने दिन चलने वाली है ?
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