आज क्रिसमस के दिन एक बहुत पुरानी घटना याद आती है . मेरी बुआजी दार्जिलिंग के पास एक छोटे से शहर कर्सियांग में रहती थी. पहाड़ों के बीच एक बहुत सुन्दर हिल स्टेशन था - कर्सियांग . कर्सियांग की विशेषता थी वहां के बहुत सारे स्कूल - अंग्रेजों के ज़माने से बने कोनवेंट स्कूल जहाँ पढ़ाते थे सजे धजे ईसाई पादरी और नन ! बुआजी का एक बहुत बड़ा संयुक्त परिवार था . चार चार पीढ़ियों के सदस्य एक साथ रहते थे . उनके परिवार की कई दुकाने थी , जहाँ घर के अलग अलग सदस्य काम सँभालते थे .
बुआजी के दादा ससुर नित्य अपनी एक दुकान में बैठते थे . शहर का बच्चा बच्चा उनको जानता था . एक दिन क्रिसमस के त्यौहार के समय वो अपनी दुकान में बैठे थे . वहां के स्कूल की एक स्मार्ट सी टीचर वहां से गुजर रही थी . दादाजी को हमेशा देखती थी . क्रिसमस का दिन था इस लिए उसके मन में आया की उन्हें क्रिसमस की शुभकामनायें दी जाए . बस , वो दुकान में आई , मुस्कुरा कर दादाजी का हाथ अपने हाथ में लिया , हथेली के पिछले भाग पर एक हल्का सा चुम्बन किया और बोली - मेरी क्रिसमस ! और फिर उसी तरह मुस्कुरा कर बाहर चली गयी. कुछ देर तो दादाजी स्तब्ध रहे , फिर उन्होंने अपने बेटे को आवाज दी और कहा - "अरे भई , ये स्कूल की टीचर क्या कर रही थी . उसने मेरे हाथ को पहले चूमा और फिर बोली - मेरी किस्मत . "
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