अन्ना ने अपना अनशन डेढ़ दिनों में ही तोड़ लिया ! अन्ना के अनशन में मुंबई में भीड़ नहीं जुटी ! अन्ना ने अपना जेल भरो आन्दोलन फिलहाल वापिस लिया ! ................बस फिर क्या था ! इतना होते ही मिडिया ने गिरगिट की तरह रंग बदल लिया . कोंग्रेस के तेवर बदल गए . अन्ना प्रकरण का समापन घोषित कर दिया . बुद्धिजीवियों को इस पूरे वर्ष में पहली बार मौका मिल गया , अन्ना के आन्दोलन पर इकतरफा प्रहार करने का - क्या जरूरत थी अनशन की जब सरकार ईमानदारी से लोकपाल विधेयक पर चर्चा के लिए तीन दिन का विशेष सत्र रख रही थी ? अन्ना को अपनी कमजोरी का अंदाजा लग गया होगा !अन्ना आर एस एस का एजेंट है , इस लिए सिर्फ कोंग्रेस का विरोध कर रहा है ! अन्ना का आकर्षण ख़त्म हो गया ..................वैगरह वैगरह !
अन्ना ने अपने २७ दिसंबर से २९ दिसंबर के अनशन की घोषणा बहुत पहले ही कर दी थी , क्योंकि उन्हें पता था की लोकसभा और राज्यसभा का शीतकालीन सत्र २६ दिसंबर को समाप्त हो जाएगा . उन्होंने यह भी घोषणा की थी , अगर सरकार एक सशक्त लोकपाल बिल पारित कर देगी तो ये अनशन एक जश्न के रूप में मनाया जाएगा . उन्होंने वही किया जो उन्होंने बहुत पहले से कहा था . दरअसल सरकार ने उल्टा किया . शीतकालीन सत्र तो बिना लोकपाल की चर्चा के निकाल दिया और फिर अन्ना की तलवार लटकती देखी तो तीन दिन के लिए सत्र बढ़ा दिया . ये सरकारी चाल नहीं थी तो और क्या था ? ये षड्यंत्र था अन्ना को बदनाम करने के लिए - की हम तो लोकपाल पर चर्चा कर रहें हैं और ये लोग बाहर बैठ कर अनशन कर के हमें बदनाम कर रहें हैं .
दुर्भाग्य वश अन्ना जी का स्वास्थ्य बिगड़ गया और उन्हें अपना अनशन तोडना पड़ा . ये भी सही है की उनके अनशन में रामलीला मैदान के अनुपात में भीड़ बहुत कम थी ; लेकिन इस संख्या के कम होने का कारण अन्ना जी के आन्दोलन की कमजोरी नहीं थी . एम एम आर डी ऐ मैदान में भीड़ न जुटने के मुख्य कारण थे ये -
१. अनशन का स्थान चुना गया था - दादर का शिवाजी पार्क या फिर आजाद मैदान . दोनों जगह प्रशासन ने अनुमति देने से इंकार किया . आजाद मैदान तो इस तरह के आन्दोलनों के लिए नियुक्त ही है , लेकिन प्रशासन ने कहा की हम पूरा मैदान नहीं देंगे . अगर अन्ना का अनशन आजाद मैदान में हुआ होता तो संख्या कम से कम एक लाख लोगों की होती क्योंकि जहाँ आजाद मैदान मुंबई के लोगों की बहुत आसान पहुँच में है , क्योंकि ये मैदान वेस्टर्न और सेंट्रल रेल लाइनों के मुख्य स्टेशनों - चर्चगेट और सी एस टी के बिलकुल पास पड़ता है , वहीँ एम एम आर डी ऐ मैदान सब से नजदीक बांद्रा स्टेशन से भी कम से कम ५-७ किलोमीटर की दूरी पर है . इतना लम्बी दूरी चल कर जाना आम आदमी के लिए मुनासिब नहीं है . बस आदि की व्यवस्था उस इलाके के लिए बहुत सीमित है .
२. दिल्ली की अपेक्षा मुंबई में भीड़ कम होनी लाजिमी था . कारण आम मुम्बईकर बड़े से बड़े हादसे - जैसे की बम ब्लास्ट के बाद भी अपना दफ्तर नहीं छोड़ता ; ऐसे में सप्ताह के बीचोंबीच अनशन की तारीखें रखना ही गलत निर्णय था .
३. लोकसभा की गरमागरम बहस देखने के लिए इस विषय में कार्यशील लोग घरों ही नहीं दफ्तरों में भी टी वी खोल के बैठे थे - ऐसे में मैदान की अनुपस्थिति अपेक्षित थी .
४. पहले दिन अन्ना जी मैदान में पहुंचे ११ बजे के बाद जबकि पूर्व घोषित कार्यक्रम के अनुसार उन्हें वहां पहुंचना था साढ़े नौ बजे . सुबह जुटने वाली भीड़ काफी संख्या में आकर जा चुकी थी .
बहरहाल कारण जो भी थे दूसरे दिन अन्ना जी ने न केवल अनशन तोड़ दिया , बल्कि उस दिन से आन्दोलन को एक बार स्थगित कर दिया . अब देखिये उस स्थगन का परिणाम . जब २७ दिसंबर को लोकसभा की बहस चल रही तब , सरकार पूरे जोरों से लगी थी किसी तरह उनका लोकपाल विधेयक पास हो जाए - क्योंकि बाहर अन्ना जी का आन्दोलन जारी था .ये दबाव सिर्फ सरकार पर ही नहीं बल्कि विपक्ष पर भी था . यही कारण था की विपक्ष के बहुत सारे सुझावों के न माने जाने पर भी लोकपाल विधेयक लोकसभा में पारित हो गया .
अगले दिन बहस होनी थी राज्यसभा में ; लेकिन सुबह से ही ये बातें मिडिया में आने लगी की अन्नाजी का स्वस्थ्य ठीक नहीं है , इसलिए उन्हें शायद अनशन तोडना पड़ेगा . आधे दिन तक सरकार क़ानूनी औपचारिकताओं का बहाना बना कर राज्य सभा में बहस शुरू करने से बचती रही , लेकिन जब अन्ना जी ने अपना उपवास और आन्दोलन स्थगित कर दिया तो सरकार बेलगाम हो गयी , और इस प्रकार राज्यसभा का एक महत्वपूर्ण दिन बिना किसी बहस के चला गया . सरकार जानती थी की अब उन्हें किसी तरह राज्यसभा का सिर्फ एक दिन और पार करना है .
सरकार शुरू से ही जानती थी की राज्यसभा में उसका बहुमत नहीं है और बहुत सारे संशोधन आयेंगे , क्योंकि विपक्ष की कोई भी पार्टी उनके लोकपाल के प्रारूप को स्वीकार नहीं कर रही ; लेकिन सरकार ने ये नहीं सोचा था की उनकी अपनी सरकार की एक पार्टी तृणमूल कोंग्रेस भी उनका किसी मुद्दे पर विरोध करेगी . तृणमूल कोंग्रेस जैसे की विपक्ष की ही आवाज बन गया , और सरकार के लिए एक बहुत ही कमजोर स्थिति बन गयी . लोकपाल एक ऐसी हड्डी बन गया सरकार के लिए जिसे निगले तो मुश्किल और उगले तो मुश्किल . इस स्थिति से निपटने के लिए सरकार ने जिस घटिया राजेनीति का सहारा लिया वो सारे देश ने देखा . जिस लोकपाल बिल पर आये हुए संशोधनों के लिए सारा विपक्ष सारी रात बहस करने को तैयार था , ताकि उसके बाद मतदान करवा के सभी विवादस्पद मुद्दों पर निर्णय हो सके , वहीँ सरकार ने रात के १२ बजे तक स्थिति स्पष्ट नहीं की , और अचानक १२ बजे के बाद सदन की कार्यवाही समाप्त कर दी . इस बेशर्मी का कारण स्पष्ट है की मतदान का मतलब होता कि लोकपाल में वो सारे प्रावधान पारित हो जाते जो विपक्ष , और काफी हद तक टीम अन्ना चाहती थी . सरकार मैदान छोड़ कर भाग गयी .
अन्ना हजारे की बात एक बार फिर सिद्ध हो गयी की ये सरकार एक शशक्त लोकपाल कभी नहीं लाएगी क्योंकि भ्रष्टाचार की नदी का स्त्रोत्र ये सरकार स्वयं है . सदन में हुए राम जेठमलानी के भाषण ने सरकार की चालाकियों की पोल खोल कर रख दी .
अन्ना ! तुम हारे नहीं , बल्कि जीते हो ! देश की आँख खुलती जा रही है . सरकार की करतूतें खुद उसी पोल खोल रही हैं .
अन्ना ने अपने २७ दिसंबर से २९ दिसंबर के अनशन की घोषणा बहुत पहले ही कर दी थी , क्योंकि उन्हें पता था की लोकसभा और राज्यसभा का शीतकालीन सत्र २६ दिसंबर को समाप्त हो जाएगा . उन्होंने यह भी घोषणा की थी , अगर सरकार एक सशक्त लोकपाल बिल पारित कर देगी तो ये अनशन एक जश्न के रूप में मनाया जाएगा . उन्होंने वही किया जो उन्होंने बहुत पहले से कहा था . दरअसल सरकार ने उल्टा किया . शीतकालीन सत्र तो बिना लोकपाल की चर्चा के निकाल दिया और फिर अन्ना की तलवार लटकती देखी तो तीन दिन के लिए सत्र बढ़ा दिया . ये सरकारी चाल नहीं थी तो और क्या था ? ये षड्यंत्र था अन्ना को बदनाम करने के लिए - की हम तो लोकपाल पर चर्चा कर रहें हैं और ये लोग बाहर बैठ कर अनशन कर के हमें बदनाम कर रहें हैं .
दुर्भाग्य वश अन्ना जी का स्वास्थ्य बिगड़ गया और उन्हें अपना अनशन तोडना पड़ा . ये भी सही है की उनके अनशन में रामलीला मैदान के अनुपात में भीड़ बहुत कम थी ; लेकिन इस संख्या के कम होने का कारण अन्ना जी के आन्दोलन की कमजोरी नहीं थी . एम एम आर डी ऐ मैदान में भीड़ न जुटने के मुख्य कारण थे ये -
१. अनशन का स्थान चुना गया था - दादर का शिवाजी पार्क या फिर आजाद मैदान . दोनों जगह प्रशासन ने अनुमति देने से इंकार किया . आजाद मैदान तो इस तरह के आन्दोलनों के लिए नियुक्त ही है , लेकिन प्रशासन ने कहा की हम पूरा मैदान नहीं देंगे . अगर अन्ना का अनशन आजाद मैदान में हुआ होता तो संख्या कम से कम एक लाख लोगों की होती क्योंकि जहाँ आजाद मैदान मुंबई के लोगों की बहुत आसान पहुँच में है , क्योंकि ये मैदान वेस्टर्न और सेंट्रल रेल लाइनों के मुख्य स्टेशनों - चर्चगेट और सी एस टी के बिलकुल पास पड़ता है , वहीँ एम एम आर डी ऐ मैदान सब से नजदीक बांद्रा स्टेशन से भी कम से कम ५-७ किलोमीटर की दूरी पर है . इतना लम्बी दूरी चल कर जाना आम आदमी के लिए मुनासिब नहीं है . बस आदि की व्यवस्था उस इलाके के लिए बहुत सीमित है .
२. दिल्ली की अपेक्षा मुंबई में भीड़ कम होनी लाजिमी था . कारण आम मुम्बईकर बड़े से बड़े हादसे - जैसे की बम ब्लास्ट के बाद भी अपना दफ्तर नहीं छोड़ता ; ऐसे में सप्ताह के बीचोंबीच अनशन की तारीखें रखना ही गलत निर्णय था .
३. लोकसभा की गरमागरम बहस देखने के लिए इस विषय में कार्यशील लोग घरों ही नहीं दफ्तरों में भी टी वी खोल के बैठे थे - ऐसे में मैदान की अनुपस्थिति अपेक्षित थी .
४. पहले दिन अन्ना जी मैदान में पहुंचे ११ बजे के बाद जबकि पूर्व घोषित कार्यक्रम के अनुसार उन्हें वहां पहुंचना था साढ़े नौ बजे . सुबह जुटने वाली भीड़ काफी संख्या में आकर जा चुकी थी .
बहरहाल कारण जो भी थे दूसरे दिन अन्ना जी ने न केवल अनशन तोड़ दिया , बल्कि उस दिन से आन्दोलन को एक बार स्थगित कर दिया . अब देखिये उस स्थगन का परिणाम . जब २७ दिसंबर को लोकसभा की बहस चल रही तब , सरकार पूरे जोरों से लगी थी किसी तरह उनका लोकपाल विधेयक पास हो जाए - क्योंकि बाहर अन्ना जी का आन्दोलन जारी था .ये दबाव सिर्फ सरकार पर ही नहीं बल्कि विपक्ष पर भी था . यही कारण था की विपक्ष के बहुत सारे सुझावों के न माने जाने पर भी लोकपाल विधेयक लोकसभा में पारित हो गया .
अगले दिन बहस होनी थी राज्यसभा में ; लेकिन सुबह से ही ये बातें मिडिया में आने लगी की अन्नाजी का स्वस्थ्य ठीक नहीं है , इसलिए उन्हें शायद अनशन तोडना पड़ेगा . आधे दिन तक सरकार क़ानूनी औपचारिकताओं का बहाना बना कर राज्य सभा में बहस शुरू करने से बचती रही , लेकिन जब अन्ना जी ने अपना उपवास और आन्दोलन स्थगित कर दिया तो सरकार बेलगाम हो गयी , और इस प्रकार राज्यसभा का एक महत्वपूर्ण दिन बिना किसी बहस के चला गया . सरकार जानती थी की अब उन्हें किसी तरह राज्यसभा का सिर्फ एक दिन और पार करना है .
सरकार शुरू से ही जानती थी की राज्यसभा में उसका बहुमत नहीं है और बहुत सारे संशोधन आयेंगे , क्योंकि विपक्ष की कोई भी पार्टी उनके लोकपाल के प्रारूप को स्वीकार नहीं कर रही ; लेकिन सरकार ने ये नहीं सोचा था की उनकी अपनी सरकार की एक पार्टी तृणमूल कोंग्रेस भी उनका किसी मुद्दे पर विरोध करेगी . तृणमूल कोंग्रेस जैसे की विपक्ष की ही आवाज बन गया , और सरकार के लिए एक बहुत ही कमजोर स्थिति बन गयी . लोकपाल एक ऐसी हड्डी बन गया सरकार के लिए जिसे निगले तो मुश्किल और उगले तो मुश्किल . इस स्थिति से निपटने के लिए सरकार ने जिस घटिया राजेनीति का सहारा लिया वो सारे देश ने देखा . जिस लोकपाल बिल पर आये हुए संशोधनों के लिए सारा विपक्ष सारी रात बहस करने को तैयार था , ताकि उसके बाद मतदान करवा के सभी विवादस्पद मुद्दों पर निर्णय हो सके , वहीँ सरकार ने रात के १२ बजे तक स्थिति स्पष्ट नहीं की , और अचानक १२ बजे के बाद सदन की कार्यवाही समाप्त कर दी . इस बेशर्मी का कारण स्पष्ट है की मतदान का मतलब होता कि लोकपाल में वो सारे प्रावधान पारित हो जाते जो विपक्ष , और काफी हद तक टीम अन्ना चाहती थी . सरकार मैदान छोड़ कर भाग गयी .
अन्ना हजारे की बात एक बार फिर सिद्ध हो गयी की ये सरकार एक शशक्त लोकपाल कभी नहीं लाएगी क्योंकि भ्रष्टाचार की नदी का स्त्रोत्र ये सरकार स्वयं है . सदन में हुए राम जेठमलानी के भाषण ने सरकार की चालाकियों की पोल खोल कर रख दी .
अन्ना ! तुम हारे नहीं , बल्कि जीते हो ! देश की आँख खुलती जा रही है . सरकार की करतूतें खुद उसी पोल खोल रही हैं .