नील स्वर्ग

नील स्वर्ग
प्रकृति हर रंग में खूबसूरत होती है , हरी, पीली , लाल या फिर नीली

Wednesday, November 30, 2011

देर है अंधेर नहीं है


जी हाँ , ये बात भारतीय न्याय व्यवस्था पर पूरी तरह लागू होती है . देर सवेर न्याय मिलता है , ये अलग बात है की देर की परिभाषा एक वर्ष से लेकर एक जीवन काल तक कुछ भी हो सकती है .आइये ऐसे ही एक किस्से की चर्चा करें . 

मुंबई  हाई कोर्ट के एक बहुत ही प्रसिद्ध  जज - जस्टिस मदन लक्ष्मणदास तहिलियानी  ने कल एक बहुत ही मार्ग दर्शक फैसला सुनाया . जस्टिस तहिलियानी वही जज हैं जिन्होंने कसाब का मुक़दमा सुना और अंत में सजा -  - मौत सुनाई.  मुहम्मद अल्ताफ खान २००१ में  बीस वर्ष का थाजब उसे पुलिस ने गिरगांव इलाके में हुई एक चोरी की वारदात में शक के आधार पर गिरफ्तार किया .  उस  समय मुहम्मद खान की आर्थिक स्थिति ऐसी  नहीं थी  , की वो अपने लिए कोई अच्छा वकील  खड़ा कर  सके ;  लिहाजा कोर्ट ने अपने पेनल में से एक वकील की नियुक्ति  की . जस्टिस तहिलियानी ने मामले के इतिहास को समझते हुए ये बताया की , खान को सही क़ानूनी सहायता नहीं दी गयी . उनके  अनुसार उस समय के सेसन कोर्ट के जज साहब के लिए ये आवश्यक था की वो कोर्ट द्वारा नियुक्त वकील को शिकायत कर्ताओं को क्रोस एक्सामिन करने का अवसर देते , जो किया ही नहीं गया . इतना ही नहीं खान को उसके नागरिक अधिकारों के विषय में भी बताया नहीं गया . मुफ्त क़ानूनी सहायता इस देश  के हर  नागरिक का अधिकार है , जो समय पड़ने पर  उसे मिलनी चाहिए . जस्टिस तहिलियानी ने कहा कि सामान्य रूप से ऐसी अवस्था में मुझे ये केस सेसन कोर्ट के पास भेज देना चाहिए ताकि वो दुबारा पूरे मामले की  छान बीन करें , लेकिन ये आरोपी मुहम्मद अल्ताफ खान के साथ अन्याय होगा , क्योंकि वो पहले ही दस वर्ष जेल में काट चुका है . अपने इस वक्तव्य के साथ जस्टिस तहिलियानी ने मुकदमा ख़ारिज करते हुए खान को मुक्त करने का आदेश दिया .

अब इसे आप क्या कहेंगे - अंधेर या देर ? शायद दोनों ! किसी के जीवन के दस वर्ष , वो भी आयु के २० वें वर्ष से लेकर ३० वें वर्ष तक के - अगर जेल में बिताने पड़े , बिना किसी आरोप के सिद्ध हुए - तो इससे बड़ा अंधेर क्या होगा ? लेकिन जो कुछ जस्टिस तहिलियानी ने किया , वो इस अंधेर के अन्दर से न्याय की एक लौ को जगाने का काम किया .    

Saturday, November 5, 2011

अँधा कानून


क्या आपको फिल्म कानून याद है - जिसके मुख्य कलाकार थे अशोक कुमार , राजेंद्र कुमार , नंदा और जीवन ? उस फिल्म की शुरुवात बहुत ही जबरदस्त थी . कालिदास को अदालत उम्र कैद की सजा सुनाती  है - गणपत के क़त्ल के जुर्म में . कालिदास चीख चीख कर गुहार करता है की उसने किसी का क़त्ल नहीं किया . कोई सुनवाई नहीं होती . सजा काटने के बाद जब कालिदास बाहर आता हैतो उसे पता चलता है की गणपत जिन्दा है और मजे की जिंदगी बिता रहा है . कालिदास का खून खौल उठता हैवो एक पिस्तौल उठा कर उस क्लब में पहुँच जाता हैजहाँ गणपत मजे कर रहा होता है . कालिदास सबके सामने गणपत का खून कर देता है . जब उसे अदालत के सामने लाया जाता है , तो वो एक सवाल करता है जज साहब से - आज मुझे किस जुर्म के लिए लाया गया हैअगर गणपत के क़त्ल के जुर्म में , तो उसकी सजा तो मैं पहले ही काट चूका हूँ ; एक ही जुर्म की क्या दो बार सजा हो सकती है ? अदालत के पास कोई जवाब नहीं होता .  दिलचस्प कहानी थी .

वो तो एक कहानी थी , अब बात करें एक सच्ची घटना की . अगस्त ,२००० को झाँसी  के एक ठाणे में एक अफ आई आर दर्ज हुई - तीन व्यक्तियों - रामेश्वर , उसके पिता मोहन और उसके चाचा डालचंद के खिलाफ ! आरोप था भगवानदास नाम के एक व्यक्ति के क़त्ल का . १० फरवरी २००३ को झाँसी के सेसन कोर्ट ने तीनों अभियुक्तों को उम्र कैद की सजा सुना दी . तीनों अभियुक्तों ने इलाहबाद हाई कोर्ट में अपने निर्दोष होने की गुहार लगाई . पूरे छह साल और आठ महीने के बाद इलाहबाद हाई कोर्ट ने सेसन कोर्ट के फैसले  पर मुहर लगते हुए आजीवन कारावास की सजा को बरक़रार रखा .

कहानी में एक बहुत बड़ा मोड़ तब  गया जब भगवन दास अचानक दिसंबर २०१० में अपने गाँव पहुँच गया . उसने बताया कि वो हिमाचल प्रदेश के किसी हिस्से में नौकरी कर रहा था . गाँव के एक प्रभावशाली व्यक्ति ने दोनों परिवारों की सम्पति पर कब्ज़ा जमा लिया था . यह उसी व्यक्ति की चाल थी - ऐसा वहां के लोगों का मानना है .सारा मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा . कल यानि चार नवम्बर  २०११ को सुप्रीम कोर्ट ने तीनों सजायाफ्ता निर्दोष व्यक्तियों को जमानत पर रिहा करने का हुक्म दिया . अब तीनों ने राज्य से पचास पचास लाख रुपैये हर्जाने कि मांग की है.

ये हमारे देश की व्यवस्था में आमूल चूल घुसे भ्रष्टाचार का एक ज्वलंत उदहारण हैकैसे पुलिस अपने अधिकारों का दुरुपयोग करके सफ़ेद को काला और काले को सफ़ेद कर देती हैमुद्दा सिर्फ तीन निर्दोष व्यक्तियों के जीवन के सबसे अच्छे दस सालों के अमानवीय हनन का ही नहीं है ,  बल्कि इस तरह के हजारों अन्य लोगों का भी हैजो शिक्षा और धन के अभाव में पूरी तरह सड़ी गली   व्यवस्था से लड़ नहीं सकते .

चाहिए एक अन्ना हजारे जो देश की विभिन्न जेलों में फंसे हुए हजारों बेगुनाहों की मदद करे . पांच पांच हजार रुपैये की जमानत के अभाव में  जाने कितने बेगुनाह सलाखों के पीछे एक अभिशप्त जीवन काट रहें हैं . देश की न्यायपालिका के इतिहास में ये घटना एक शर्मनाक पन्ने की तरह जुड़ेगी . 

एक प्रश्न भी खड़ा होता है - अगर ऐसे निर्दोष  लोगों को मृत्युदंड दे दिया गया होता तो देश के पास क्या उत्तर होता ?