जी हाँ , ये बात भारतीय न्याय व्यवस्था पर पूरी तरह लागू होती है . देर सवेर न्याय मिलता है , ये अलग बात है की देर की परिभाषा एक वर्ष से लेकर एक जीवन काल तक कुछ भी हो सकती है .आइये ऐसे ही एक किस्से की चर्चा करें .
मुंबई हाई कोर्ट के एक बहुत ही प्रसिद्ध जज - जस्टिस मदन लक्ष्मणदास तहिलियानी ने कल एक बहुत ही मार्ग दर्शक फैसला सुनाया . जस्टिस तहिलियानी वही जज हैं जिन्होंने कसाब का मुक़दमा सुना और अंत में सजा - ऐ - मौत सुनाई. मुहम्मद अल्ताफ खान २००१ में बीस वर्ष का था, जब उसे पुलिस ने गिरगांव इलाके में हुई एक चोरी की वारदात में शक के आधार पर गिरफ्तार किया . उस समय मुहम्मद खान की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी , की वो अपने लिए कोई अच्छा वकील खड़ा कर सके ; लिहाजा कोर्ट ने अपने पेनल में से एक वकील की नियुक्ति की . जस्टिस तहिलियानी ने मामले के इतिहास को समझते हुए ये बताया की , खान को सही क़ानूनी सहायता नहीं दी गयी . उनके अनुसार उस समय के सेसन कोर्ट के जज साहब के लिए ये आवश्यक था की वो कोर्ट द्वारा नियुक्त वकील को शिकायत कर्ताओं को क्रोस एक्सामिन करने का अवसर देते , जो किया ही नहीं गया . इतना ही नहीं खान को उसके नागरिक अधिकारों के विषय में भी बताया नहीं गया . मुफ्त क़ानूनी सहायता इस देश के हर नागरिक का अधिकार है , जो समय पड़ने पर उसे मिलनी चाहिए . जस्टिस तहिलियानी ने कहा कि सामान्य रूप से ऐसी अवस्था में मुझे ये केस सेसन कोर्ट के पास भेज देना चाहिए ताकि वो दुबारा पूरे मामले की छान बीन करें , लेकिन ये आरोपी मुहम्मद अल्ताफ खान के साथ अन्याय होगा , क्योंकि वो पहले ही दस वर्ष जेल में काट चुका है . अपने इस वक्तव्य के साथ जस्टिस तहिलियानी ने मुकदमा ख़ारिज करते हुए खान को मुक्त करने का आदेश दिया .
अब इसे आप क्या कहेंगे - अंधेर या देर ? शायद दोनों ! किसी के जीवन के दस वर्ष , वो भी आयु के २० वें वर्ष से लेकर ३० वें वर्ष तक के - अगर जेल में बिताने पड़े , बिना किसी आरोप के सिद्ध हुए - तो इससे बड़ा अंधेर क्या होगा ? लेकिन जो कुछ जस्टिस तहिलियानी ने किया , वो इस अंधेर के अन्दर से न्याय की एक लौ को जगाने का काम किया .