नील स्वर्ग

नील स्वर्ग
प्रकृति हर रंग में खूबसूरत होती है , हरी, पीली , लाल या फिर नीली

Wednesday, February 23, 2011

मोर्निंग वाक

इस बार काफी समय से मेरी मोर्निंग वाक नियमित चल रही है . सैर के लिए घर के पास ही है एक बहुत सुन्दर उद्यान . उसके अन्दर एक वृताकार रास्ता है जिस पर सभी लोग चलते हैं , एक ही दिशा में . एक चक्कर करीब एक तिहाई किलो मीटर के बराबर है . मेरी गति से मुझे लगते हैं साढ़े तीन मिनट एक चक्कर लगाने में . घूमते समय बहुत से लोग मुझसे आगे बढ़ जाते हैं . कुछ लोग तो बहुत तेज रफ़्तार से और कुछ लोग मुझ से थोड़ी ज्यादा रफ़्तार में . उन्हें देख कर मैं भी कोशिश करता हूँ अपनी रफ़्तार बढाने  की . कभी कभी मन में आता है , क्या सभी लोग मुझसे तेज चलते हैं , क्योंकि एक बाद एक कोई न कोई मुझे पार करता रहता है . लेकिन वास्तव में ऐसा है नहीं . जो लोग मुझसे धीमा चलते हैं वो तो मुझे दिखाई नहीं देते क्योंकि वो हमेशा मेरे पीछे होते हैं .
 
आज की मोर्निंग वाक में एक बात सीखी . जीवन के हर क्षेत्र में हमेशा अपने से तेज चलने वाले को देखो , क्योंकि वही हमें प्रेरणा देता है और तेज चलने की . हमसे धीमा चलने वाला हमें भी धीमा कर देगा .

Monday, February 14, 2011

सही ठिकाना : एक लघु कथा

" भगवान के नाम पर कुछ दे दो ! दो दिनों से भूखा हूँ , कुछ खाया नहीं ; लालाजी ! माताजी ! सेठजी ! " बूढा भिखारी सिद्धि विनायक मंदिर के बाहर हर आने जाने वालों से गुहार लगाता . लोग मंदिर में वैसे भी भक्ति भाव में रहते हैं , लेकिन ऐसा कोई भिखारी सामने आ जाये तो उसे भक्ति की आड़ में अनदेखा कर जाते हैं . एक हफ्ते की मेहनत का परिणाम था कुल ७८ रुपैये और ४५ लड्डू  .

निराश होकर ढाबे  वाले से बोला - " रहमत भाई, कैसे काम चलेगा इस महंगाई में ? " रहमत ने सलाह दी - " भैय्या दान बख्शीश  के मामले में मुसलमान ज्यादा आगे रहते हैं , इसलिए तुम किसी मस्जिद के बाहर अपना ठिकाना बनाओ .

अगली सुबह भिखारी ने थोडा अपना हुलिया बदला और जा बैठा माहिम  दरगाह के बाहर . थोडा मांगने का तरीका बदल लिया - " मेहरबान , परवरदिगार के यहाँ  जाकर आ रहे हो , थोड़ी मदद करो इस बूढ़े की . खुदा बहुत देगा , इस बूढ़े को एक वक़्त के खाने के पैसे दे जाओ " . यहाँ तो मामला और भी बेकार रहा . कोई भी पैसे देने को तैयार नहीं था ; जो लोग रुक कर बात सुनते , सीधा मशविरा दे डालते - "यहाँ बैठ कर पैसे क्यों मांगते हो ; बाहर ढाबों की लाइन लगी है ; वहां लोग पैसे जमा दे जाते हैं . भिखारी जमात लगा के बैठे हैं , तुम भी बैठ जाओ . दोनों समय का खाना मिल जाएगा " . अब उन लोगों को कौन समझाए की अगर वो खाना उसने दो तीन दिन खा लिया तो उसे शायद जिंदगी में खाना खाने की जरूरत ही ना पड़े .

गुरुबक्श सिंह की दुकान पर चाय पीते हुए भिखारी ने कहा - " सरदार जी ! हम गरीबों का क्या होगा ? ना मंदिर में भीख मिलती है ना मस्जिद में ! " सरदारजी ने कहा - " गुरूद्वारे पर जाकर बैठ जा . सिख बहुत खुले हाथ के होते हैं , तेरा गुजारा चल  जाएगा , ५-७ दिन भिखारी गुरूद्वारे पर भी बैठ लिया . खाना , प्रसाद वैगरह  का जुगाड़ तो हो जाता था लेकिन पैसे नहीं मिलते .

एक शराबी मिला ; नशे की पिनक में पूछा - " क्यों बुड्ढे ? इतना दुखी क्यों है ? भिखारी ने कहा - " लोगों की कंजूसी  से दुखी हूँ . मंदिर ,मस्जिद , गुरुद्वारा- हर जगह बैठ कर देख लिया , कोई भी आदमी भिखारी के लिए जेब में हाथ नहीं डालता" . शराबी बोला - " तू स्स्साला बैठाइच गलत जगह पर है . अरे किसी दारू के ठेके के बाहर बैठ ; लेकिन हाँ माँगना उनसे जो बाहर निकाल रहें हैं ; फिर देख लाइफ का मजा . "

भिखारी ने सोचा ये भी कर के देख लिया जाए . अँधेरी के एक बहुत बड़े बिअर बार के बाहर अड्डा जमाया . भिखारी ने गुहार लगाना शुरू किया - " लालाजी, मियांजी , सरदारजी ! बहुत बढ़िया लग रहें हैं , जरूर आज बहुत खुश हैं आप ; बन्दे का भी जुगाड़ कर देवें " 

और लो ! पैसे बरसने लगे . पहले दिन ही रात के अढाई बजे जब बार बंद हुआ तो भिखारी ने हिसाब लगाया . कुल कमाई - ५७५   रुपैये   और तीन आधी से ज्यादा खाली बोतल दारू की . सबसे बड़ा नोट १०० रुपैये का , ५ नोट ५० ५० के . भिखारी गदगद हो गया . पैसे संभाल के रखे. अलग अलग बोतल की दारू पीकर टुन्न हो गया . 

लडखडाता हुआ बार के दरवाजे पर आया और हाथ जोड़ कर कहा - " हे भगवान , अल्लाह , गोड, वाहे गुरु वैगरह वैगरह . तूने आज मेरी सुन ली . .......................लेकिन एक बात बता , पता  तूने कहीं और का  दे रखा  हैं और रहता तू कहीं और है ...............ये क्या चक्कर है ! खैर जो भी है ठीक है भगवान , आखिर सही जगह भी तूने ही पहुंचा दिया ."  



Sunday, February 6, 2011

दर्शन और विज्ञान

दर्शन और विज्ञान के बीच हमेशा एक तर्क वितर्क की स्थिति रही है . ये स्थिति भारत में उतनी गंभीर नहीं जितनी पाश्चात्य देशों में है ; इसका कारण है की भारतीय आम तौर पर जन्म से ही धार्मिक होतें हैं , विज्ञान उन्हें शिक्षा के रूप में प्राप्त होता है , इसलिए विज्ञान उनके विश्वासों को चुनौती नहीं देता .

विश्व में दर्शन और विज्ञान दो परस्पर विरोधी धाराएँ  मानी जाती रही है .विज्ञान-विदों का ये आरोप होता है की दार्शनिक सच्चाई से दूर अपने काल्पनिक जगत में विचरण करतें हैं . अपनी आराम कुर्सी पर बैठ कर वो लोग कुछ मनगढ़ंत परिकल्पना कर लेतें हैं और फिर उसी कल्पना की गिरफ्त में वो अपने विचार बनाते रहतें हैं . उदहारण देते हैं गैलिलेओ जैसे वैज्ञानिकों का, जिनके वैज्ञानिक दृष्टिकोण को तत्कालीन दार्शनिकों ने धोखा बताया और उन्हें अपनी बात को त्यागने पर मजबूर किया . विज्ञान का एक और गंभीर आरोप रहा है दर्शन पर - दर्शन अपने विश्वास पर इतना अडिग रहता है की सत्य को कभी स्वीकार नहीं करता और इस तरह विश्वास को सत्य का शत्रु बना लेता है .

अगर हम भारतीय दृष्टिकोण से देखें तो हम पायेंगे की दर्शन और विज्ञान एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. दोनों का आधार एक है - जिज्ञासा ! मनुष्य के अन्दर एक नैसर्गिक गुण है - जिज्ञासा . वह हर चीज का कारण ढूंढता रहता है. इस ढूँढने की प्रक्रिया दो है - दर्शन और विज्ञान . विज्ञान का जन्म दर्शन की कोख से हुआ है . दर्शन एक दृष्टिकोण देता है - विज्ञान उस दृष्टिकोण  के पुष्टिकरण के लिए कार्यरत होता है . जब विज्ञान की खोज दर्शन के विश्वास की पुष्टि कर देती है तो दोनों में कोई विरोध नहीं होता ; बल्कि दोनों अपनी अपनी अपनी  जगह मजबूत हो जाते हैं . इसके विरुद्ध जब विज्ञान अपने प्रयोगों और पूर्व स्थापित नियमों के आधार पर दर्शन को गलत ठहराता है तो स्थिति टकराव की बनती है . सवाल खड़ा हो जाता है श्रेष्ठता  का . और ऐसी स्थिति ही विषय होना चाहिए दर्शन शास्त्रियों का , जहाँ हठ त्याग कर उन्हें वास्तविकता तक पहुंचना चाहिए .

सत्य और विश्वास में वही  अंतर है जो मनुष्य और परमात्मा में है . जहाँ तक मनुष्य की बुद्धि सक्षम है वहां तक मनुष्य विज्ञान की सहायता से हर सत्य तक पहुँचता है . इस सत्य को सही मानना उसका अधिकार भी है और उचित भी . जो धारणाएं प्रयोगों और उनसे निकलने वाले निर्णयों पर आधारित है वो मान्य होती हैं . उदहारण के लिए चन्द्रमा के धरातल और उसके मंडल पर मनुष्य की प्राप्त की गयी जानकारी . अगर दुनिया का कोई दार्शनिक चन्द्रमा को लेकर अभी भी गपोड़ों में विश्वास करेगा तो वो परिहास का ही कारण होगा .क्योंकि मनुष्य अपने प्रयासों से चन्द्रमा तक पहुँच गया और जो उसने वहां जाकर अनुभव किया वो ही सत्य है , ना कि  हजारों वर्षों से चला आ रहा कोई विश्वास .

लेकिन जहाँ विज्ञान की सीमा समाप्त होती है वहां शुरू होती है दर्शन की सीमा . जिन प्रश्नों के उत्तर विज्ञान चाह कर भी नहीं निकाल पाता वहां मनुष्य की जिज्ञासु प्रवृति कुछ परिकल्पनाएं करती है . उन परिकल्पनाओं से पैदा होने वाले प्रश्नों का समुचित उत्तर खोजती है. जब वो उत्तर उन परिकल्पनाओं को और पुष्ट करतें हैं तब वो जिज्ञासा अगले प्रश्नों तक पहुँच जाती है . उदहारण के लिए - विज्ञान ने पृथ्वी, चन्द्रमा, सूरज, नक्षत्रों के विषय में बहुत सी जानकारी तो हासिल कर ली - लेकिन अगर पूछें कि  इस विशाल ब्रह्माण्ड की गति को नियमबद्ध कौन करता है - तो उसके पास इस प्रश्न का उत्तर नहीं है . यहाँ आकर दर्शन की परिकल्पना एक विश्वास को जन्म देती है - एक वृहद् शक्ति है जिसके अन्दर सभी लोक लोकान्तरों को नियमबद्ध तरीके से चलाने की क्षमता है - जिसे हम  ईश्वर कहतें हैं . विज्ञान के पास इस बात को न मानने के कोई कारण नहीं है , लेकिन अगर वैज्ञानिक हठधर्मिता से इसे मानने से इनकार करे तो उसका कोई अर्थ नहीं . इसे न मानने की स्थिति में उसे इस मौलिक प्रश्न का उत्तर देना पड़ेगा की ब्रह्माण्ड की रचना और फिर इसका सञ्चालन कौन करता है ?

उसी प्रकार एक उदहारण और लेते हैं - मानव शरीर का . आज का चिकित्सा विज्ञान बहुत विकसित हो चुका है. मुश्किल से मुश्किल बिमारियों का इलाज निकल चुका है . शरीर की धड़कन, रक्त चाप , शरीर के निर्माण के अवयव आदि का पता लगा लेता है . इन सब बातों में दर्शन को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए . इलाज के परिणाम सामने आते रहते हैं . लेकिन फिर इस चिकत्सा विज्ञान की भी अपनी सीमायें हैं . विज्ञान मनुष्य के रक्त की सफाई कर सकता है , उसे एक मनुष्य से निकाल कर दूसरे मनुष्य को दे सकता है - लेकिन क्या वो इस रक्त की रचना कर सकता है . मनुष्य की मृत्यु से लड़ सकता है लेकिन क्या वो उसे रोक सकता है ? और इस से भी अधिक गहन प्रश्न - वो क्या था जो मनुष्य के शरीर से निकलने के बाद मनुष्य एक शव बन जाता है ? और वो जो निकलता है वो कहाँ जाता है ? बस यही समाप्त होती है विज्ञान की सीमा और शुरू होती दर्शन की सीमा . दर्शन अपने परिकल्पित ईश्वर को कारण मानता है- इन सब अनुतरित घटनाओं का . जब मनुष्य और सोचता है की क्यों कोई व्यक्ति जल्दी मर जाता है , या बहुत कष्ट पाकर मरता है ; इतना ही नहीं वो सोचता है की क्यों कोई प्राणी जन्म लेता है , और क्यों कभी मनुष्य और कभी और जीव जंतु का जन्म होता है तो दर्शन की सोच पहुँचती है - पुनर्जन्म , कर्मफल सिद्धांत , अलग अलग योनियों का कारण आदि तक . इन सब अवधारणाओं के पीछे एक और बात छुपी होती है - इन सब मान्यताओं का समाज पर क्या असर पड़ेगा . उदाहरण के तौर पर कर्मफल का सिद्धांत मनुष्य को अच्छे कर्म करने के लिए प्रोत्साहित ही करेगा , बुरे कर्म करने से भयभीत करेगा .

इस प्रकार हम देखतें हैं की विज्ञान और दर्शन दोनों ही मनुष्य के मित्र हैं . विज्ञान की खोज मनुष्य के भौतिक जीवन में खुशियाँ लाती हैं तो दर्शन मनुष्य के गुण कर्म और स्वाभाव में सुधार लाता है . दुर्भाग्य से दोनों का दुरुपयोग शुरू हो गया . विज्ञान का उपयोग जहाँ मनुष्य के विनाश की सामग्री में शुरू हो गया , वहीँ दर्शन में गलत मिलावट के कारण अन्धविश्वास का प्रवेश हो गया . दर्शन के कर्मफल से पैदा होने वाले भय का दुरुपयोग कर के लोगों ने मनुष्य को सच्चाई से दूर कर के ढकोसलों में फंसा दिया . विज्ञान के दुरुपयोग ने परमाणु बम और अन्य हथियारों को जन्म दिया . गलत विश्वासों ने आतंकवाद जैसे राक्षस को जन्म दिया .बुराई विज्ञान या दर्शन में नहीं है , बुराई है इनके दुरुपयोग में . आवश्यकता है विज्ञान और दर्शन को एक साथ बैठ कर एक स्वस्थ और भय रहित विश्व का निर्माण करने की .

Wednesday, February 2, 2011

देश के दामाद

विचित्र  देश  है भारत ! कौन सा ऐसा विषय है जिसमे हमारी विचित्रता नजर नहीं आती ! एक विषय है वी आई पी . हमारे यहाँ इस खास कटेगोरी की परिभाषा भी समझना मुश्किल है . अभी देखिये ना कल शाम जब मैं कोल्कता के हवाई अड्डे पर सुरक्षा जांच की लम्बी कतार में खड़ा था , तो मेरी नजर पड़ी एक बड़े से बोर्ड पर . उस बोर्ड पर एक फेहरिस्त थी उन खास पदों या खास कटेगोरी की, जिन्हें इस सुरक्षा जांच की प्रक्रिया से मुक्त किया गया था . मैंने पढना शुरू किया . सूची कुछ ऐसे थी -


  1. President
  2. Vice President
  3. Prime Minister
  4. Former President
  5. Speaker of Lok-Sabha
  6. Chief Justice Of India
  7. Judges of Supreme Court
  8. Leaders of Opposition in Lok Sabha and Rajya Sabha
  9. Union Ministers of Cabinet Rank
  10. Dy. Chairman of Rajya Sabha and Dy. Speaker of Lok Sabha
  11. Governers of States
  12. Chief Ministers of States
  13. Chief Justice Of High Courts
  14. Lt. Governors of Union Territories
  15. Chief Ministers of Union Territories
  16. Ambassadors of Foreign Countries / Charge De- Affairs and High Commissions and their spouses.
  17. Cabinet Secretary
  18. Visiting foreign dignitories of the same status as Sl No. 1 to 3, 5,6,9 and 11 above.
  19. Chief of Army, Navy and Airforce.
  20. His holiness The Dalai Lama
  21. SPG Protectors
  22. Shri Robert Vadra while travelling with SPG Protectees
क्यों है ना चोंकाने वाली सूची ? अंतिम नाम का औचित्य समझ पाना बड़ा मुश्किल है . श्री रोबेर्ट वाड्रा  - दामाद हैं कांग्रेस की अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गाँधी के . इस प्रकार कांग्रेस पार्टी के लिए भी करीब करीब दामाद की हैशियत  रखते हैं - लेकिन पूरे देश के दामाद तो नहीं हैं ! इससे ज्यादा आसान होता अगर एक और कटेगोरी और जोड़ दी जाती - नेहरु परिवार से जुड़ा हर व्यक्ति ताकि व्यक्तिगत नामों को इस महत्व पूर्ण सूचना में नहीं लिखना पड़ता .

सवाल एक नाम का नहीं है ; सवाल है सत्ता के दिमागी दिवालियेपन का ! वाह रे भारत ! वाह रे भारत सरकार !